Magazine - Year 1956 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
त्याग का असाधारण महत्व
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री॰ लक्ष्मी नारायण जी बृहस्पति)
संसार के किसी भी पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसका त्याग ही अत्यावश्यक हो जाता है, क्योंकि साँसारिक-पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त न होने के कारण ही उनके प्रति राग रहता है।
इसीलिये रागी, अज्ञानी होता है और त्यागी, ज्ञानी होता है। जिस प्रकार मक्खियाँ मधु से चिपटती रहती हैं, चींटे मिठाई में लिप्त रहते हैं, उसी प्रकार अभागे जीव भी संसार के विविध विषयों में लिप्त रहते हैं। वे जब तक उनका त्याग नहीं करते तब तक सद्विवेक अथवा सद्ज्ञान रूपी अभ्युदय के धनी नहीं होते तथा सद्ज्ञान के अभाव में वास्तविक प्रगति मार्ग के पथिक नहीं बन पाते।
राग का पथ भोग से, भोग रूपी अन्धकार से ओत-प्रोत है जो अहर्निश साँसारिक-बन्धनों में जकड़ने का ही कार्य करता है और त्याग का पथ योग रूपी प्रकाश में होकर जाता है जो परमोत्कृष्ट सत्य की असीम महानता में पहुँचा देता है।
वह सत्य रूपी असीम परम तत्व विश्व का आधार है, उसका पूर्ण ज्ञान मानव-बुद्धि द्वारा हो ही नहीं सकता। वह ऐसा विलक्षण है कि स्वयं तो दिखाई नहीं देता, किन्तु उसी के द्वारा सब कुछ देखा जाता है। वह स्वयं तो सुनाई नहीं देता, परन्तु उसी के द्वारा सब कुछ सुना जाता है। वह स्वयं तो मनन, चिन्तन में आता नहीं है लेकिन उसी के द्वारा सब कुछ मनन, चिन्तन किया जाता है। वह स्वयं तो पहिचानने में आता नहीं प्रत्युत उसी के द्वारा सब कुछ पहिचाना जाता है।
बिना उसके न कोई देखने वाला है, न कोई सुनने वाला है, न कोई सोचने वाला है, न जानने अथवा पहिचानने वाला है। वही सबका अन्तर्यामी परमात्मा है। उसके बिना सब मिथ्या है। वही सूत्रात्मा होकर सबको बाँधे हुए है।
अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी आदि तत्व उसी के सहारे समष्टि रूप से सृष्टि मय और व्यष्टि रूप से शरीर मय होकर एकत्रित हैं। जब यह सूत्र खुलता है तब स्वभावतः सब तत्व अपने-अपने कारण में लीन हो जाते हैं। इसी दशा में सृष्टि का प्रलय और देह की मृत्यु कही जाती है।
यह सृष्टि क्रम हमारी समझ में आये या न आये लेकिन यह सत्य है कि रागी होकर अपने बाँधने और त्यागी होकर (इस गहन तत्व का समझते हुए) अपने आप को छुड़ाने वाले हम स्वयं हैं। यदि अज्ञानी होकर हम स्वयं बँधे हैं तो निश्चय ही ज्ञानी होकर हम स्वयं ही सार्वभौम-सत्ता की सर्वोच्च स्थिति में स्थित होकर स्वयं मुक्त हो सकते हैं और जगत का कल्याण भी कर सकते हैं।
कहा भी है:—
नास्ति विद्या समं चक्ष र्नास्ति सत्य समं तपः।
नास्ति राग समं दुःख नास्ति त्याग समं सुखम्॥
विद्या के समान चक्षु नहीं सत्याचरण के समान तप नहीं, राग के समान संसार में और कोई दुःख नहीं और त्याग के समान और कोई सुख नहीं।
वास्तव में अपने सुख के लिए दूसरों से सेवा लेते हुए साँसारिक भोगों के पथ में जितना पतन होता है उतना ही दूसरों को हितप्रद सुख देते हुए सेवा करने से शीघ्रतया उत्थान होता है।
परमार्थ में अपने सत्य लक्ष्य की ओर बढ़ते हुये हम नीची सीढ़ियों में ही नहीं, बल्कि ऊँचे से ऊँचे सोपानों पर चढ़ कर जहाँ अपने परम-लक्ष्य के रागी होंगे, वहीं से हमारी प्रकृति में रुकावट पड़ने लगेगी और जहाँ कहीं त्यागी होंगे, वहीं से प्रगति होने लग जायगी।
यदि हमें अपने जीवन के सत्य-लक्ष्य का ज्ञान हो गया है तो उसके अतिरिक्त कहीं भी संसार में रागासक्त होकर न रहना चाहिये, बल्कि सबसे हर एक दशा में विरक्त होकर संसार की प्रत्येक वस्तु को प्रत्येक सम्बन्धी को, वहीं तक अपने साथ रहने देना चाहिये जहाँ तक वह सद्गुण विकास में सहायक हो और परमार्थ-पथ में बाधक न बने। प्रत्येक मनुष्य के अपने-अपने प्रारब्ध संस्कार के अनुसार जीवन विकास के लिये कहीं विद्या की, कहीं धन की, कहीं स्त्री तथा पुत्र की, कहीं ऐश्वर्य आदि की आवश्यकता है। संसार के किसी भी पदार्थ की आवश्यकता, ज्ञान न होने के कारण ही है, इसीलिये उन आवश्यक प्रतीत होने वाले पदार्थ की प्राप्ति हो जाने पर उसका यथोचित ज्ञान प्राप्त कर लेना विचारवान व्यक्ति का प्रमुख कर्त्तव्य है।
संसार के किसी भी पदार्थ का ज्ञान कर लेने पर उसका त्याग ही अत्यावश्यक हो जाता है, क्योंकि साँसारिक—पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त न होने के कारण ही उनके प्रति राग रहता है।
रागी अज्ञान-वश विषय-सुखों की प्राप्ति के लिये संसार का उपासक अथवा उसमें लिप्त रहता है—संसार का भक्त होता है और त्यागी, परमानन्द की प्राप्ति के लिये एक सत्य परमात्मा का उपासक अथवा भक्त होता है।
रागी अपने स्वार्थ—सुख की सिद्धि के लिये, अपनी प्रसन्नता के लिये यत्नशील रहता है और त्यागी अपने परमार्थ रूपी परमानन्द की प्राप्ति के लिए, परमात्मा की प्रसन्नता ही के लिये सब कुछ करता है।
यदि किसी को सुसंस्कार वश ऐसा सुयोग्य सुलभ हो जाय कि युवावस्था में ही इन्द्रिय निरोध और उन का दमन करते हुये समस्त विषय प्रपंच का त्याग कर सके तो निःसन्देह जो परम लाभ सैकड़ों जन्म बिता देने पर भी नहीं प्राप्त हुआ, वह एक ही जीवन के थोड़े समय में ही प्राप्त हो सकता है। इसीलिये युवावस्था ही त्याग का सर्वोत्तम-समय कहा गया है। विषय-वासनाओं और सुख-भोग की कामनायें अनन्त कर्मों को उत्पन्न करती है, वह युवावस्था में ही अति प्रबल रहती हैं।
यदि युवावस्था से ही इन वासनाओं, कामनाओं का त्याग बन पड़े तो अति शीघ्रता से मनुष्य सार्वभौम सेवा और मोक्ष के कार्य में बढ़ जाता है। ऐसे त्यागी-पुरुष के राग-द्वेष और तज्जनित मोहावरण दूर हो जाते हैं, और ऐसा ज्ञानोदय होता है जिसके द्वारा भीतर छिपी हुई ममता तथा आसक्ति की अनेकों सूक्ष्म बन्धन-ग्रन्थियों को तोड़ने में वह समर्थ हो जाता है।
वास्तव में जन्म जन्मान्तर तक जकड़े रहने वाली इन ग्रन्थियों को तोड़ना—किसी पूर्ण त्यागी का ही कार्य है।
ऐसे त्यागी को सार्वभौम—सत्ता की सर्वोत्कृष्ट सेवा करने का सुयोग्य सुलभ होता है जो सर्वस्व त्याग देने के पश्चात शेष रह जाने वाले चिन्मात्र स्वरूप आत्मा की शरण में स्थिर रहना जान गया है।
जहाँ पूर्ण त्याग है वही जीवन की सर्वोत्कृष्ट-शुद्धि है, वहीं सुन्दर सद्बुद्धि है वही सत-असत् ज्ञान होता है तथा ज्ञान होने पर ही सत्य की महान-महिमा का भान होता है और तभी उस सत्स्वरूप सार्वभौम-सत्ता का सतत् ध्यान होता है। ऐसे ध्यान की ही तन्मयता में त्यागी अहंभाव का भी त्याग कर देता है।
तभी शरणागति, आत्मसमर्पण की भावना उत्पन्न होती है और उससे परात्पर ब्रह्म की प्राप्ति में होती है!
अतः त्याग ही यह राजमार्ग है जिस पर चलते हुए हम सार्वभौम-सेवा-पथ का पथिक बनकर संसार की सर्वोच्च-सत्ता में स्थिर होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
यही त्याग का रहस्य है!