Magazine - Year 1956 - Version 2
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आध्यात्मिक जीवन के अनुभव
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(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती)
मानव-चेतना सापेक्ष-चेतना है। इसकी सापेक्षता को विनष्ट कर देना ही मारे योगों का एक लक्ष्य है जब मन की उपाधि का तिरोधान हो जाता है तभी चेतना अपनी परमावस्था को प्राप्त करती है; जहाँ किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं रहता वरन् अस्तित्व का ही अस्तित्व रहता है, जहाँ किसी वस्तु विशेष के आस्तित्व का ज्ञान नहीं होता, वरन् परम अस्तित्व का ही परम ज्ञान होता है; और जहाँ विभिन्न वस्तुओं के ज्ञान का आनन्द नहीं होता वरन् परम अस्तित्व के परमार्थिक ज्ञान का परमानन्द प्राप्त होता है। यहाँ सच्चिदानंद स्वरूप का साक्षात्कार है। यही ब्रह्म अथवा सनातन सत्य है। यही मुक्ति अथवा मोक्ष है इसके ज्ञान से ही मनुष्य परम पुरुषार्थ की प्राप्ति कर सकता है।
“तमेय विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।”
श्वेताश्वतर 3-8
(उसको जान लेने से ही मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करता है। अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है।)
इस पारमार्थिक स्थिति को प्राप्त करने के लिये मुमुक्षु मनुष्य नाना मार्गों को ग्रहण करते हैं। हर एक मार्ग को योग कहकर पुकारते हैं। योग वह प्रक्रिया है जिससे जीव अपने अविद्या-जाति उपाधियों से विमुक्त होकर अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का ज्ञान कर सके ब्रह्म के तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना योग है, चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग है। प्रेम स्वरूप परमात्मा की अवस्थिति का कण कण में भान करना योग है, निमित्त रूप से सहजावस्था में सन्यित होकर अखिल विश्व के कल्याणार्थ ब्रह्मकर्म में संलग्न रहना योग है, तथा साथ ही वे सारी प्रक्रियायें एवं साधनायें भी योग हैं जो इन लक्ष्यों की ओर (यथार्थतः लक्ष्य तो एक ही है परन्तु उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने पर विभिन्न प्रकार से हैं) हमें प्रवृत्त करती हैं।
इस प्रकार मुख्यतः चार योग माने जाते हैं– ज्ञान-योग, कर्मयोग, राजयोग तथा भक्तियोग। मनुष्य की संस्कार एवं कर्मगत अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार उसके साधना मार्गों में भी बाह्य विभेद नहीं है। ये विभेद व्यक्ति- व्यक्ति की मानसिक विभिन्नता के कारण ही हैं। योगों की इन बाह्य विभिन्नताओं के आधार पर आध्यात्मिक अनुभवों की भी बाह्य विभिन्नता पाई जाती है। परन्तु इस बात पर ध्यान देना अनिवार्य है कि योग की वास्तविक प्रगति सर्वांगीण-प्रगति ही है। किसी एक योग-विशेष में उन्नति होने का अर्थ है योगों में समान रूप से उन्नति को प्राप्त करना, अतः यद्यपि बाह्य अनुभवों की अभिव्यक्ति में विभिन्नतायें रहती हैं। यहाँ इस लेख में उन्हीं अनुभवों का विशेष वर्णन किया जा रहा है, जो आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य हैं। मनुष्य चाहे जिस योग का अवलम्बी हो उसमें यदि इन सामान्य लक्षणों तथा अनुभवों का अभाव हो तो निश्चय जानिये कि वह आध्यात्मिक मार्ग से अवगत नहीं है।
मुदिता :– आध्यात्मिक साधकों में साधना के साथ-साथ मुदिता भी उत्तरोत्तर बढ़नी चाहिये। यह स्वस्थ मनस्, तथा शुद्ध हृदय का परिचायक है। यह चित्त-प्रसाद है अथवा मन की शान्ति का बोधक। जब तक हृदय शुद्ध नहीं होता मन के विकार क्षीण नहीं होते, विक्षिप्तता दूर नहीं होती तब तक मनुष्य मुदिता की प्राप्ति नहीं कर सकता। मुदिता एक निश्चित लक्षण है जिससे हम जान सकते हैं कि साधक अपनी साधना में सफलता को प्राप्त कर रहा है। बहुत लोग साधु रूप में दृष्टिगत होने के लिये बहुत ही उदासपूर्ण मुखाकृति बनाये दिखते हैं। यह उनका भ्रम है जो मन सुख की रश्मियों से ओत-प्रोत हैं उसी में सत्व का संचार है। सात्विक मन ही योग की गंभीर साधनाओं में सफलता पूर्वक प्रवृत्त हो सकता है, अतः सुन्दर सद्गुण का उपार्जन करिए आत्मा आनन्द है; सदा आनन्द में ही संस्थित रहिये।
सन्तोष :– शान्ति, सत्संग, सन्तोष तथा सद्विचार मोक्ष के चार द्वारपाल हैं सन्तोष से बढ़कर और कोई लाभ नहीं। सन्तोष से परमशान्ति तथा सुख की प्राप्ति होती है, सन्तोष सात्विक गुण है। इससे मनुष्य आलसी नहीं बनता, वरन् और भी सक्रिय बनता है। सन्तोष से वैराग्य, विवेक तथा विचार की अभिवृद्धि होती है। जिसमें सन्तोष है उसी में ईश्वरीय ज्योति का अवतरण होता है। सन्तोष ही सर्वोत्तम धन है। आत्मा स्वयं नित्य तृप्ति है। सन्तोष मनुष्य के आगे सारी ऋद्धियाँ डोलने लगती हैं। वह महापुरुषों तथा तपस्वियों द्वारा भी पूजित होता है।
वैराग्य :– राग ही बन्धन को घनीभूत करता है। वैराग्य से ही विमुक्ति होती है। साधक में जब सत्व का समावेश होता है, तब उसमें सारे विषय पदार्थों के प्रति स्वाभाविक विभक्ति हो जाती है। वैराग्य की दिनानुदिन अभिवृद्धि होती है यह इस स्पष्ट परिचायक है कि साधक आध्यात्मिकता की ओर बढ़ता जा रहा है। यदि वैराग्य की स्थिति का अनुभव मनुष्य में उत्पन्न नहीं हुआ तो वह रञ्चमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता। वैराग्य महती शक्ति है, जिससे साधक सतत् ध्यान के लिए प्रवृत्त होता है और अन्ततः आत्मा—साक्षात्कार करता है। विवेकयुक्त वैराग्य ही लाभदायक है, कारण वैराग्य तो अस्थायी है।
अभय :– यह दैवी सम्पदा है। भय तो अविद्याजात है। शरीर के साथ तादात्म्यता रहने से ही मनुष्य भयभीत होता है। ज्यों-ज्यों मनुष्य में आँतरिक शाँति, सन्तोष तथा वैराग्य की अभिवृद्धि होती जाती है त्यों-त्यों उसमें भय का तिरोधान होता है। अभय की पूर्णावस्था जीवन्मुक्तों में ही पाई जाती है।
समाधान :– मन में पूर्ण शान्ति रहती है। विक्षेप नहीं होता। योगी का मन सदा लक्ष्य की ओर लगा रहता है। समाधान प्राप्त साधक ही सतत् एवं अनवरत ध्यान का अभ्यास कर सकता है। उसमें विचार करने की प्रबल क्षमता होती है।
साधना में सफलता के साथ साथ सारे सद्गुण मनुष्य में आने लगते हैं। शान्ति, पूर्णता, एकाग्रता, निश्चलता, समत्व, धृति, श्रद्धा, इत्यादि सारे गुण उसमें अपना आवास बनाते हैं। चमत्कारों की क्षमता के द्वारा मनुष्य योगी नहीं बनता, वरन् इन सद्गुणों की अभिवृद्धि से ही सच्चा योगी बनता है। जो मनुष्य एक भी सद्गुण में प्रतिष्ठित है, उसके पास अन्य सद्गुण दौड़ कर चले आते हैं।