Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म और विवेक का समन्वय
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(श्री डा. भगवानदास एम. ए.)
विचार के विषय में, यह प्रसिद्ध है कि सब प्रकार के आस्तिक-दर्शन और सब प्रकार के नास्तिक-दर्शन इस वेद-वेदाँग रूपी ज्ञान सागर में मग्न हैं। जब यह सिद्धाँत है कि परमात्मा की, परमेश्वर की, चेतना में, उसी की इच्छा में, सब कुछ है, तो इन विविध विचारों को भी उसी ने जगत् में स्थान दिया है, यह भी निश्चय न होगा।
ब्रह्म सर्वमावृत्त्य तिष्ठति।
ब्रह्मेव सर्वाणि नामानि सर्वाणि
रूपाणि सर्वाणि कर्माणि बिभर्ति।
सोऽयमात्मा सर्वानुभूः। (उपनिषत्)
अर्थात् सब पदार्थों को घेर कर, लपेट कर, ब्रह्म बैठा है। सब नाम, सब काम, सब रूप, उसी एक ब्रह्म के, ही “मैं” हैं। वह यह आत्मा “मैं” सब अनुभवों का अनुभव करने वाला है। (मुसलमानों के कुरान में भी ठीक यही बातें कही हैं, ‘अल्लाहो बिकुल्ले शयौन् मुहीत्” “लाहुल् अस्मा उल् हुसना,” “वसेआ रब्बोना कुल्ले शयीन् इल्मा।”)
पुराणों में भी कहा हैं,
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्वः।
श्रद्धत्स्वाननुभूतोऽर्थो न मनः स्प्रष्टुमर्हति।
(भागवत)
सोऽयमात्मा सर्वविरुद्धधर्माणामाश्रयः।
द्वन्द्वमयोऽयं संसारः। इत्यादि।
तो इन विरुद्ध धर्मों और विचारों का समन्वय कैसे हो? इस समन्वय के मूल-सूत्र रूप ये वाक्य हैं—
अधिकारिभेदाद् धर्मभेदः।
देशकालनिमित्तानाम् भेदैर्धर्मो विभिद्यते।
प्रस्थानभेदाद्दर्शनमेदः।
सः एव धर्मः सोऽधर्मस्तं तं प्रति नरं भवेत्।
पात्रकर्मविशेषेण देशकालाववेक्ष्य च॥
(म. भा., शान्ति, अ. 314)
न धर्म परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम्।
अन्यो धर्मः समस्थस्य, विषमस्थस्य चापरः
(म. भा. शां. अ. 266)
अस्मिन् देशे काले निमित्ते च यो धर्मोऽनुष्ठीयते।
स एव देशकालनिमिताँतरेष्वधर्मो भवति॥
(शांकर-शारीरिक भाष्य, 3, 1, 25)
अर्थात् अधिकारी के भेद से धर्म में भेद होता है। देश काल, निमित्त के भेद से धर्म में भेद होता है। जिस स्थान पर खड़े होकर देखते हैं, उस स्थान के बदलने से दर्शन, अर्थात् दृश्य का रूप, बदल जाता है। जो ही एक देश, काल, पात्र, निमित्त और कर्म के विशेष से एक आदमी के लिये धर्म है, वही दूसरे आदमी के लिये दूसरे देश, काल, पात्रता, निमित्त और कर्म के विशेष से अधर्म होता है। केवल एक दो ग्रन्थ पढ़ लेने से धर्म का पता नहीं लगता, अच्छी अवस्था का धर्म दूसरा और विषम अवस्था का धर्म दूसरा होता है।
बच्चों को मिट्टी का खिलौना ही अच्छा लगेगा उनको रेखा गणित और बीज गणित पढ़ाने का यत्न करना व्यर्थ है।
यही दशा मतों की, सम्प्रदायों की, पन्थों की है,
“मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना।
भिन्नरुचिर्हि लोकः।” इत्यादि।
जब बचपन बीत जायगा, तब मिट्टी के खिलौने आप ही छूट जायेंगे, और दूसरे प्रकार के खिलौनों में मन लग जायगा।
अप्सु देवा मनुष्याणां दिवि देवा मनीषिणाम्,
बालानां काष्ठ लोष्ठेषु बुधस्यात्मनि देवता।
उत्तमा सहजाऽवस्था, द्वितीया ध्यान धारणा,
तृतीया प्रतिमा पूजा, होमयात्रा चतुर्थिका।
अर्थात् बालकों के देवता काठ-पत्थर में, साधारण मनुष्यों के जल में, मनीषी विद्वानों के आकाश में हैं, बुध का- बोध वाले का, ज्ञानवान का देव, आत्मा ही है। सहज अवस्था, अर्थात् सब दृश्य संसार को ही परमात्मा का स्वरूप जानना, यह उत्तम कोटि है, विशेष विशेष ध्यान धारणा करना, यह उससे नीची दूसरी कोटि है, प्रतिमाओं की पूजा तीसरी कोटि है, होम और यात्रा चौथी कोटि है।
बाल-बुद्धि जीव, जिनकी बुद्धि सर्वथा बहिर्मुख है, जो इन्द्रियग्राह्य आकार ही का ग्रहण कर सकते हैं, वे अपने मन का सन्तोष काष्ठ-लोष्ठ की प्रतिमा से ही करे। यह बहिर्मुख माया- रोग मनुष्य का ऐसा बढ़ा हुआ है कि मुसलमान धर्म में भी, यद्यपि वह अपने को बड़ा भारी बुत्शिकन् यानी मूर्ति तोड़ने वाला कहता है, लोग देवालयों को तोड़कर मकबरे और कब्र बनाते और पूजते हैं। किसी उर्दू शायर ने ही कहा है-
“जिन्दगाहें तोड़ करके मुर्दगाहें भर दिया।”
इसी बहिर्मुख माया का वर्णन उपनिषदों ने किया है।
पराँचि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः
तास्मात् पराड् पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-
दावृत्तचक्षुर मृतत्वमिच्छन् ॥ (कठोपनिषद्)
अर्थात् स्वयंभूने ब्रह्मा (सृष्ट युन्मुख, रजः प्रधान महत्तत्त्व, बुद्धितत्त्व), ने सब इंद्रियों को, छिद्रों को बाहर की ओर खोला, छेद करके निकाला। इसलिये जीव बाहर की वस्तु देखता है, भीतर अपने को नहीं देखता। कोई-कोई धीर, विरक्त जीव, संसार को दौड़ धूप, आवागमन और मृत्यु से थककर विश्राम और अमरत्व को चाहकर, आँख भीतर फेरता है और प्रत्यगात्मा को देखता है।
पर हाँ, उन बालकों के जो रखवारे वृद्ध बुजुर्ग हैं, उनको यह फिक्र रखनी चाहिये कि बीच- बीच में मिट्टी के खिलौनों के खेल के साथ-साथ कुछ अक्षर ज्ञान भी दिलाते जाएँ, कुछ पुस्तकों का शौक पैदा कराने का यत्न भी करते रहें। यह न चाहें कि लड़के सदा खिलौनों में ही खुश रहें, मूर्ख बने रहें, पोथी-पत्रा कभी न छुएँ और हम उनको हमेशा बेवकूफ रखकर अपना गुलाम बनाये रहें।
और भी यदि ये वृद्ध सात्त्विक-बुद्धि वाले और लोक हितैषी हों तो इस खिलौना पूजा को भी बहुत शिक्षाप्रद, उत्तम, सात्त्विक भाव-वर्द्धक, कलावर्द्धक, शिल्पवर्द्धक, शाख-प्रवर्तक बना सकते हैं। सुन्दर मन्दिरों से ग्राम की, नगर की, शोभा सौंदर्य बढ़ा सकते हैं, और उनसे पाठशाला, चिकित्सालय, पुष्प-वाटिका, उद्यान, चित्राशाला, संगीतादि-विविध-कलागृह सार्वजनिक सभा-मण्डप, सम्मेलन-स्थान, व्याख्यानशाला आदि का काम ले सकते हैं। योग-साधनादि में भी ये मन्दिर सीढ़ी का काम दे सकते हैं। क्योंकि-
तच्छ्र यतामनाधारा धारणा नोपपद्यते।
अर्थात् ध्यान-धारणा प्रायः किसी मूर्त विषय के बिना नहीं सधती।
और भी तरह-तरह के उत्तम वैज्ञानिक शास्त्रानुकूल, आधिदैविक-शास्त्रसम्मत, आधिभौतिक-शास्त्र सम्मत काम लिये जा सकते हैं।
“द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे, मूर्त चैवाभूर्त्तं च” (उपनिषत्)
यह याद रखते हुए, और यह समझते हुए कि सारा साकार जगत् ही उस जगदात्मा का रूप है, जनता को क्रमशः इस मूर्त-रूप की ओर ले जाना उचित ही है और मूर्तियों की और मूर्ति-पूजा की आत्यंतिक निन्दा करना अनुचित ही है।
दूसरे दर्जे की बुद्धि के लिये जलमय तीर्थ, सरिता, सरोवर आदि की अनुज्ञा दी गयी। अदृष्ट फल वे हैं, जिनसे सूक्ष्म-शरीर, मनोमय अथवा विज्ञानमय कोष, अर्थात् अंतःकरण, मन, बुद्धि, अहंकार का संस्कार हो। दृष्ट फल वे हैं, जिनका प्रभाव स्थूल-शरीर पर पड़ता है। इन तीर्थों में भ्रमण करने से, देशाटन के जो शिक्षाप्रद, बुद्धि की उदारता बढ़ाने वाले, संकोच हटाने वाले, फल हो सकते हैं, वे होने चाहियें। यदि तीर्थ रक्षक और पुजारी और भिखमंगे लोग कौआरोड़ करके यात्रियों की जान आपत्ति में न डाल दें, और तीर्थों के जलों में फल, फूल, पत्ता, कच्चा और पक्का अन्न डलवा-डलवाकर पानी को सड़ाकर घिन्नाटा न कर डालें। स्वयं पुराणों ने कहा है।
अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः।
तेऽपि तिष्ठतन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः॥
(भागवत-माहात्म्य)
तीर्थ-स्थानों का और यात्राओं का दृष्ट-फल भी शरीर की स्वच्छता, दृढ़ता, शीतोष्ण सहिष्णुता आदि होने चाहियें। पर जब तीर्थों का पानी इस तरह गंदा किया जाय तो शरीर में सफाई की जगह बीमारी ही आवेगी। हाल में मुझे एक ऐसे स्थान पर जाने का अवसर हुआ। सुन्दर, पुराना मन्दिर और सुहावना तालाब बना था। पर मन्दिर के पुराने, अति सुन्दर, काशीदार पत्थर के छज्जे से नये, अति कुरूप, बेमेल टीन के सायबान लटकाये थे, और पुजारी लोगों ने अपने रहने के सुभीते के लिये मन्दिर की दीवारों के सहारे मिट्टी की दीवारें और खपरैल डालकर मन्दिर को नितान्त नेत्र-पीड़क कर दिया था। तालाब की मछलियाँ पण्डे लोग बेचकर रुपया अपने खर्च में लाते थे, इस वजह से काई भर रही थी और उसमें हर तरह की पानी को खराब करने वाली चीजें भी डाली जाती थीं। पानी बदबू कर रहा था। पण्डे लोग मुझसे जोर से रटने लगे कि “सर्धा हो तो आचमन करो, संकल्प करो।” मैंने कहा “सर्धा बहुत है, पर आप तो यहाँ के पण्डा-पुजारी ही हो, आपको जितनी सर्धा होगी उतनी मुझको कहाँ हो सकती है, सो आप आगे रास्ता दिखाओ, एक लोटा भर आप आचमन करके संकल्प करो मैं भी करूंगा।” फौरन राग बदल गई, “क्या कहें तालाब की मछली लोग बेच डालते हैं, इससे पानी गन्दा रहता है,” इति। सर्वोपरि यह सदा याद रखने और रखवाने की बात है कि—
न द्यम्मयानि तीर्थानि, न देवा मृच्छिलामयाः।
ते पुनंत्युरुकालेन, दर्शनादेव साधवः।
तेषामेव निवासेन, देशास्तीर्थीभवन्ति वै॥
(भागवत)
अर्थात् जल से तीर्थ नहीं बनते, न देवता मिट्टी और पत्थर से बनते हैं। उनकी उपासना करने से बहुत काल में मन की शुद्धि होती है। पर सच्चे साधुओं के तो दर्शन और सत्संग से ही चित्त सद्यः शुद्ध हो जाता है। तीर्थ-स्थानों में जो सच्चे साधु (साध्नोति शुभाम् कामान् इति साधुः) तपस्वी विद्वान बसते हैं, वे ही तीर्थ के तीर्थंकर हैं, तीर्थों को तीर्थ बनाने वाले हैं। जो शोक के पार तारे वह तीर्थ (तरति शोकं येन सहायेन सः तीर्थः)। सप्त पवित्र पुरी आदि तीर्थ इसी हेतु से तीर्थ थीं, कि वे उत्तम विद्या पीठ का काम देती थीं। वहाँ की हवा में भक्ति, विरक्ति, ज्ञान भरा रहता था, क्योंकि इनके बताने और जगाने वाले साधु, तपस्वी, विद्वान पण्डित, बहुतायत से वहाँ वास करते थे। जैसे आजकल की यूनिवर्सिटियों, किसी एक में एक शास्त्र की किसी दूसरी में दूसरी विद्या की पढ़ाई, चर्चा, हवा अधिक रहती है। किसी शहर में किसी विशेष व्यापार की, किसी में कल-कारखानों की बहुतायत रहती है, और वहाँ जाने से उनके सम्बन्ध की विद्या सहज ही में आ जाती है। इसी तरह “काश्यां मरणान् मुक्तिः” काशी में मरने से मुक्ति होती है, क्योंकि वहाँ आत्म-ज्ञान सहज में साधुओं से मिलना चाहिये, चारों ओर उसकी चर्चा होने से मानो हवा में भर रहा है और “ऋते ज्ञानान् न मुक्तिः,” बिना ज्ञान के छुटकारा नहीं, किसी प्रकार की भी गुलामी और बन्धन से, सामाजिक से, अथवा राजनीतिक से, अथवा साँसारिक से, पर आज की इन पवित्र पुरियों की जो दुर्गति है, वह प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य “काश्यां मरणान् मुक्तिः”, के अक्षरों ही को पकड़े रहते हैं, और उसके हेतु को नहीं पकड़ते, और आत्म ज्ञान का संचय नहीं करते, उनके लिये मुक्ति की आशा नहीं है।
तीसरे दर्जे की बुद्धि के लिये, “दिवि देवाः”, सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति आदि प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी उपासना, गणित-फलितात्मक, अद्भुत ज्योतिष-शास्त्र की उपासना, “मिटियोरोलोजी”, “आस्ट्रोनोमी” आदि है। इससे जो कुछ काल ज्ञान में, कृषि में, समुद्र यात्रादि में, सहायता मिल सके वह सब इनकी उपासना का दृष्ट-फल है, पर सहायता के स्थान में जो विघ्न ज्योतिष-शास्त्र के कुप्रयोग से हो रहे हैं, वह सबको विदित हैं।
चौथी और अन्तिम कोटि “बुधस्य आत्मनि देवता” जिसको यह विचार उत्पन्न हो गया है कि यह देवता है या नहीं है, यह पुस्तक मानने योग्य है या नहीं है, यह ऋषिवत् या अवतारवत् या रसूलपगम्बरवत् या मसीहवत् गुरुवत् मानने योग्य है या नहीं है, यह धर्म मानने योग्य है या नहीं है, यह छोड़ने योग्य है या ओढ़ने योग्य है, यह शास्त्र है या अशास्त्र है, यह वेद है या अवेद है, इसका अर्थ यह है या दूसरा है, अन्ततोगत्वा कोई ईश्वर है या नहीं है, और है, क्या है उसका स्वरूप क्या है- इस सबका अन्तिम निर्णेता मैं ही हूँ, “मैं” ही है, आत्मा ही है- जिसको यह विचार दृढ़ हो जाता है, उसके लिए “बुधस्य आत्मनि देवता”, अर्थात् बुधका, बुद्धिमान् का, देव स्वयं आत्मा ही है। परम ईश्वर, ईश्वरों का ईश्वर, “मैं” ही है। इस काष्ठा को जो पहुँचा है उसके लिए सुरेश्वराचार्य ने बृहदारण्यक वार्तिक में कहा है- “एतां काष्ठामवष्टभ्य सर्वो ब्राह्मण उच्यते।” जो ही जीव इस काष्ठा को पहुँचा है वह ब्राह्मण है, और वही ब्राह्मण है, अथवा ब्रह्मस्वरूप है।
उसके लिए “काश्यां मरणान् मुक्ति “ की आवश्यकता नहीं, किंतु,
भावना यदि भवेत् फलदात्री मामकं
नगरमेव हि काशी।
व्यापकोऽपि यदि वा परमात्मा
तारकं किमिह नोपदिशेन् नः॥
भावना ही यदि फल देने वाली है, तो जिस स्थान पर मैं हूँ, वही काशी है। यदि परमात्मा व्यापक है, तो यहीं पर तारक मन्त्र का उपदेश कर सकता है। सूफियों का भी यही कहना कि जो कोई हकीकत (=तत्व, सत्य, परमार्थ) इ-मुहम्मदी (=श्लाघनीय प्रशंसनीय, स्तनीय, महनीय) अर्थात् ब्रह्म ज्ञान को पहुँच गया है, वही मुहम्मद (=स्तुत्य, अर्हत्, पूज्य) है, रसीदा (पहुँचा हुआ) है, ऋच्छति, प्राप्नोति, (अंग्रेजी में, “रीच” पहुँचना) इति ऋषि है, वही ब्राह्मण है, पैगम्बर क्या बल्कि पैगम्दिह भी हो सकता है और है, नये वेद (जैसे याज्ञवल्क्य ने) नयी इञ्जील (जैसे ईसा ने) नये कुरान (जैसे मुहम्मद ने) बना सकता है। विशेष अवस्थाओं के लिए विशेष नवीन कायदे-कानूनों, धर्मों की तो बात ही क्या है, और ऐसे ही मनुष्य के लिए याज्ञवल्क्य-स्मृति में कहा कि वह स्वयं नयी आवश्यकता पड़ने पर नया धर्म बना सकता है।
चत्वारो वेदधर्मज्ञाः पर्षत्, त्रैर्विद्य—
मेव वा;
सा ब्रूते यं स धर्मः स्यादेको वाऽऽध्या—
त्मवित्तमः।
अर्थात् वेद पर, ज्ञान-समूह पर, प्रतिष्ठापित जो धर्म उसके जानने वाले चार मनुष्यों की मण्डली, अथवा अंगोपाँग-सहित तीन वेदों को अच्छी तरह जानने वालों की समिति, अथवा एक अध्यात्मवित्तम, ब्रह्मविद्वरिष्ठ, तत्त्वतः ब्रह्माज्ञान के हृदय में प्रविष्ट, ज्ञानी मनुष्य, जो निर्णय कर दे, कि यह धर्म होना चाहिये, वही धर्म माना जाय।