Magazine - Year 1957 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
महापुरुषों के जीवन हमारे पथ-प्रदर्शक हैं।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री गोपाल दामोदर तामस्कर)
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि -”जो-जो वस्तु वैभव या प्रभाव से मुक्त है, वह सब मेरे ही तेज के अंश से पैदा हुई है।” इसका अर्थ यही है कि जहाँ कहीं किसी गुण का अत्यन्त विकास है, उस वस्तु में ईश्वराँश समझ कर उसे पुण्य दृष्टि से देखना चाहिए। उसका सम्मान करना चाहिए।
यह नियम जिस प्रकार अन्य पदार्थों पर लागू है उसी प्रकार महापुरुषों पर भी लागू होता है। यहाँ पुरुष भी तेज, शोभा, प्रभाव या किसी गुण का अत्यन्त विकास होने से ही प्रसिद्ध होते हैं। वह महापुरुष चाहे योद्धा हो, चाहे कवि या तत्ववेत्ता हो, चाहे गृहस्थ हो या राजा हो, वह कोई क्यों न हो, वह हमारे लिये वन्दनीय ही होगा। प्राचीन काल में हम अपने पूर्वजों की, विशेष कर जिन्होंने कोई बड़ा कार्य किया था, उनकी पूजा करते थे। एक दृष्टि से यह कार्य सर्वथा सराहनीय भी है। जहाँ तेज है, प्रभाव है वहाँ हम अवश्य नतमस्तक हुए हैं, और आदर-भाव दर्शाते आये हैं। जग में एक परमेश्वर की सत्ता मानते हुये भी हम तेजस्वी पुरुषों को देवदूत या परमेश्वर का अवतार मानते आये हैं। हमारे हिन्दू-धर्म की यह प्रवृत्ति ही है। पर खेद कि अब से प्रवृत्ति का ह्रास हो रहा है। अब हम महापुरुषों का उतना आदर नहीं करते जितना पहले करते थे। पहले से जो उत्सव प्राचीन महापुरुषों के नाम पर चले आते हैं, उनको हम धर्म का अंग समझ कर उसी प्रकार चला रहे हैं, पर उस प्रकार के नये उत्सव नहीं चलाते। तो भी आदर की यह प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक है और इसे सर्वथा भूल जाना सम्भव नहीं। सभी देशों में महापुरुषों की पूजा किसी किसी रूप में होती ही है।
लाभ की दृष्टि से भी यह प्रवृत्ति बड़े महत्व की बात है। मनुष्य में पुण्य-पाप, सुकर्म-दुष्कर्म, उच्च और नीच प्रवृत्तियाँ स्वभावतः होती हैं। हमें नीच प्रवृत्ति उच्च प्रवृत्ति से हमेशा दबाते रहना चाहिये, अन्यथा हमारे पतन का डर पैदा हो जाता है। इस यथार्थ में महापुरुषों के गुणानुवाद से बड़ी सहायता मिलती है। मनुष्य, प्रकृति से ही अनुकरणशील है। वह जान कर और अनजाने में भी अनेक पदों का अनुकरण करता रहता है। यह उसकी अन्तः प्रवृत्ति का ही काम है। हम यदि अपनी आत्मा को उच्च बनाना चाहते हैं तो हमें चाहिये कि ऊँची आत्माओं के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संसर्ग में रहें। उनमें ऐसी शक्ति होती है कि वे हमें बरबस अति की ओर खींचती जा रही है। उनका दर्शन और भाषण हमारे लिये परम कल्याणजनक है। यदि भाग्यवश किसी को जन्म भर किसी महापुरुष के भाग्य और भाषण का लाभ नहीं मिल सकता तो महापुरुषों के लिखित विचारों के मनन से, उनके वास्तविक दर्शन करने से, उनका नाम लेकर भी हम उसका लाभ उठा सकते हैं। शिवाजी के नाम में जो जोर था वह औरंगजेब की प्रचण्ड सेना में भी न था। यही कारण शिवाजी का स्वर्गवास होने के बाद भी औरंगजेब मराठों को न हरा सका। पर जब मराठे शिवाजी का नाम भूल गये तो उनके शासन की भी इतिश्री हो गई।
सच्चा महापुरुष वही है जिसके संसर्ग से हमारी इन्द्रियाँ शिथिल न होकर नित्य प्रति बलवान बनती जायं। उनके दर्शन होते ही हम में नई शक्तियों का संचार होने लगता है, नई बातें हमें दीखने लगती हैं, हमें विश्वास हो जाता है कि इसमें हमें धोखा न होगा। कुछ भी हो साधारण जनता का कल्याण इसी में है कि वह इन महापुरुषों के चरित्रों का सुने, समझे और उनके अनुसार थोड़े या अधिक अंशों में आचरण करके अपना कल्याण करें। महापुरुषों के सम्मान के लिये नहीं तो अपने ही कल्याण के लिए, इन बातों की तरफ ध्यान देना हमारा कर्तव्य है। हम में जो उच्च प्रवृत्ति है उसका विकास होने से हमारा हर तरह से लाभ ही हो सकता है।
प्रत्येक महापुरुष के जीवन का कोई खास उद्देश्य होता है। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य अपना कुछ उद्देश्य बतला सकता है, पर उनके उद्देश्यों में कोई विशेषता नहीं होती, वे जो कुछ दृष्टि के सामने आ जाय या जो कार्य संयोगवश करना पड़े उसी को उद्देश्य समझ लेते हैं। पर महापुरुषों का उद्देश्य समझ बूझकर आन्तरिक स्फूर्ति से निश्चित किया जाता है और वह बहुधा पारलौकिक एवं परोपकारपूर्ण होता है। उसके लिये वे घर-बार, स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति सब कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं। वे समझते हैं कि हम एक ऊँचे उद्देश्य की पूर्ति के लिये उत्पन्न हुये हैं, और वही उनके लिये सब कुछ होता है। दुनिया के अन्य सब पदार्थ उनकी दृष्टि में उसी उद्देश्य की पूर्ति के साधन मात्र होते हैं। यदि उनका उपयोग साधन के तौर पर नहीं हो सकता तो वे उन्हें सर्वथा त्याग देने को तैयार रहते हैं। भगवान बुद्ध ने जब देखा कि राज्य के धन, वैभव और विलास में रह वे संसार के उद्धार का कार्य नहीं कर सकते तो उन्होंने निस्संकोच-भाव से उनका परित्याग कर दिया। श्री रामचंद्र जी ने मिलते हुये राज्य का क्षण भर में त्याग कर वनवास स्वीकार किया तो वह भी एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया गया। महापुरुषों के सामने साँसारिक लोभ अपना जोर नहीं दिखला सकते। इतिहास से भी यही सिद्ध होता है कि उनका आविर्भाव या अवतार कोई बड़ी आवश्यकता या समस्या उपस्थित होने पर ही हुआ करता है। ऐसे महापुरुषों ने चाहे जिस क्षेत्र में काम किया हो और चाहे उनके साधन एक दूसरे से कैसे भी भिन्न क्यों न रहें हो, पर उनका उद्देश्य देश और समाज की रक्षा करना और उसके किसी बड़े अभाव की पूर्ति करना ही रहा है और उसके लिये उन्होंने हर तरह का त्याग और सब प्रकार का कष्ट सहना स्वीकार किया है। इस प्रकार के महापुरुष सभी देशों और सभी कालों में उत्पन्न हुये हैं, और उन्हीं के त्याग, तप और बलिदान के प्रभाव से इस समय मानव समाज अनेक प्रकार के संकटों से मुक्त होकर, अपेक्षाकृत सुविधापूर्ण जीवन बिता रहा है। ईसा मसीह के समय में धार्मिक ढोंग बहुत अधिक बढ़ गया था और लोगों को कठोर बंधनों में बंध कर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। ईसा मसीह ने उनके विरुद्ध आवाज उठाई और यद्यपि उसे अपने प्राण सूली पर चढ़ कर त्यागने पड़े, पर उसके कारण यूरोप की काया पलट हो गई। अमरीका के प्रेसीडेन्ट अब्राहमलिंकन ने गुलामी के विरुद्ध झण्डा ऊंचा किया और यद्यपि अंत में उसे दुष्ट लोगों की गोली का शिकार बनना पड़ा, पर आज करोड़ों हबशी गुलाम उसी के कारण पशुवत् अवस्था से निकल कर मनुष्यों की तरह रहने का सुयोग पा सके हैं। ज्यादा दूर जाने की क्या आवश्यकता हमारी आँखों के सामने महात्मा गाँधी ने हानिकारक सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों को मिटाने के लिये अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, जिसके प्रभाव से हमारा देश पराधीनता के अभिशाप से मुक्त होकर संसार के सम्मुख मस्तक ऊंचा करके खड़ा होने में समर्थ हो सका है।
इन सभी महापुरुषों के चरित्र पढ़ना, उनका मनन करना, और जहाँ तक सम्भव हो सके उनसे शिक्षा ग्रहण करके उन पर अमल करना, साधारण लोगों के लिये उन्नति तथा कल्याण का एक सहज साधन है। जिस देश में ऐसे महापुरुषों का मान नहीं किया जाता उसे मृत प्रायः ही समझना चाहिये। महापुरुषों के चरित्र और कार्य ही हमारे सच्चे पथ प्रदर्शक हैं- “महाजनो येन गतः स ग्रन्थ ।”