Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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अरी तृष्णे, अब मुझको त्याग (Kavita)
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(1)
घनाशासे मैंने बहु बार--
हृदय वसुधा का किया विदीर्ण।
गलाई अतुलित गिरि की धातु,
किए गंभीर-सिंधु निस्तीर्ण।
नृपति-सेवा, आराधन-मंत्र--
किया शव-भू में निशि को जाग।
न पाई लघु वराटिका किन्तु,
अरी तृष्णे, अब मुझको त्याग॥
(2)
किया दुर्गम देशों में वास,
कुपथ में घूमा मैं अज्ञान।
किया अंगीकृत सेवा-धर्म,
त्याग कर जाति-वंश अभिमान।
मान-वर्जित-परगृह-आहार--
काकवत् करता रहा सदोष।
पाप रत दुर्मति तृष्णे! किन्तु,
न तुझको फिर भी है सन्तोष॥
(3)
खलों का सहकर भी उपहास,
किया आराधन उनका हाय!
शून्य मन से मैं हुआ प्रसन्न,
रोककर शोक अश्रु-समुदाय।
चित्त भी करके वृत्ति-निरोध,
किया करबद्ध विनय का कृत्य।
अरी आशा संगिनी तू और,
नचाएगी अब कितना नृत्य?॥
(4)
हुई भोगों की तृष्णा शान्त,
रूपगत हुआ, हुए श£थडडडडडडड अंग।
गये समवय साथी सुरधाम,
त्याग करके जीवन का संग।
यष्टि-बल से उठते हैं पैर,
हुए तमसावृत नैन पुनीत।
अहो धिक् फिर भी काया नित्य,
मरण के भय से है भयभीत॥
(5)
उठाते हैं हम क्या आनन्द,
आह! उठ जाते हैं हम आप।
ताप से मिलती है क्या सिद्धि,
और बढ़ जाता है सन्ताप।
समय होता है कहाँ व्यतीत,
हमारा ही होता है अंत।
बलवती तृष्णा हुई न जीर्ण,
हुए हम स्वयं जीर्ण, हा हंत॥
*समाप्त*
(श्री जगदीशशरणसिंहजी, एम. ए.)
(श्री जगदीशशरणसिंहजी, एम. ए.)