Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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सच्चा संतोष ही सब से बड़ा धन है।
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(जेम्स ऐलन)
मन का भाव सदैव एकरस और मधुर रखना, निर्मल और बुद्धिमानी के विचारों का मनन करना, सब प्रकार की स्थिति में संतोष रखना और ऐसी श्रेष्ठ स्थिति के होते हुये अपना जीवन और व्यवहार ऐसा रखना कि जिससे दूसरों के ऊपर प्रभाव पड़ सके-यही सब मनुष्यों की भावना होनी चाहिये। खास कर जो व्यक्ति साँसारिक दुःखों को कम करना चाहते हैं उनका तो यही एकमात्र मार्ग है। यदि कोई मनुष्य अपने भीतर पाये जाने वाले अविवेक, असंतोष और अन्य दोषों को दूर न कर सका हो, और उनके होते हुये भी ऐसा विचार करता हो कि किसी शास्त्रीय सिद्धान्त या सम्प्रदाय के प्रचार से दुनिया सुखी बन सकेगी तो वह वास्तव में बड़ी भूल करता है। जो मनुष्य सदैव कठोर, कटु शब्द बोलता हो, खराब रास्ते पर चलता हो अथवा असंतोषी हो, तो वह दुनिया के दुःखों को बढ़ाने वाला है। इसके विपरीत जो मनुष्य प्रत्येक समय संतोष रख कर परोपकार का विचार करता रहता है और संतोष के भाव को भली प्रकार स्थिर रखता है वह दुनिया के सुख को बढ़ाया करता है।
जो मनुष्य विवेकयुक्त, क्षमाशील, प्रेमी और संतोषी बनना नहीं जानता, उसने चाहे पुस्तकीय ज्ञान अथवा धर्म सम्बन्धी ज्ञान कितना भी क्यों न प्राप्त कर लिया हो, पर हम तो यहीं कहेंगे कि वह कुछ भी पढ़ा नहीं है। जीवन का गहन, उपयोगी और स्थायी ज्ञान तो, विवेकशील, निर्दोष और संतोषी होने से ही प्राप्त हो सकता है। हमारे प्रतिपक्षी चाहे कितना भी विरोध का भाव क्यों न प्रकट करें, तो भी यदि हम उनके साथ निरन्तर मधुर व्यवहार ही करते रहें, तो यह मन के ऊपर नियंत्रण रख सकने का दृढ़ प्रमाण है। विवेक ही ज्ञान का सहकारी है।
सबको प्रिय जान पड़े ऐसा संतोषी जीव अनुभव और विवेकयुक्त ज्ञान का परिपक्व फल है और वह संसार को सुधार कर तथा दूसरे लोगों को आनन्द प्रदान करके अपनी कीर्ति रूपी अदृश्य सुगन्ध को देश-देशान्तर में फैला देता है। अगर आप उन गुणों को धारण करना चाहते हैं, जो वास्तव में एक सच्चे पुरुष या सच्ची स्त्री के लिये प्रशंसनीय समझे जाते हैं, तो आपका कर्तव्य है कि आज से ही उनको प्राप्त करने का प्रयत्न आरम्भ कर दें। यह कहते रहना कि परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं, व्यर्थ की बात है। किसी भी मनुष्य की परिस्थितियाँ उसके विरुद्ध नहीं होतीं, वरन् वे तो उसकी सहायक होती हैं। जिन बाहरी घटनाओं को तुम कटु और अशान्ति उत्पन्न करने वाली समझते हो, वे तुम्हारे विकास के लिये आवश्यक है। उन घटनाओं का सामना करके तुम शिक्षा ग्रहण कर सकते हो, अपनी वृत्तियों को उन्नत बना सकते हो और पूर्णतः प्राप्त करके महान पुरुष बन सकते हो। जो दोष तुमको दिखलाई पड़ते हैं, वे सब तुम्हारे अपने ही हैं।
पूर्ण संतोष ही जीवात्मा की सच्ची, सुखी और आनन्दमय स्थिति है, और जो कोई निर्दोष और निस्वार्थ रहकर व्यवहार करेगा वह इस स्थिति को अवश्य प्राप्त कर सकता है। प्राणी मात्र के लिये परोपकार की भावना रखो और अति लोभ, क्रोध और बुरी निगाह को इस प्रकार दबा दो कि तुम्हारा जीवन हवा की सुखद लहरों की तरह सुन्दर बन जाय।
क्या यह कार्य तुमको बहुत कठिन जान पड़ता है? अगर ऐसी बात है तो असंतोष और अशान्ति को तुम दूर नहीं कर सकते। इस कार्य में शीघ्र ही सफलता तभी प्राप्त हो सकती है जब इस बात के लिये तुम्हारे मन में दृढ़ आस्था, अभिलाषा और निश्चय हो।
निराश होना, चिड़चिड़ाना, चिन्ता करना, बड़बड़ाना, दूसरे की निन्दा करना और अपना रोना रोते रहना- ये सब सड़े हुये विचार हैं- मन के रोग हैं। वे हमारे मस्तिष्क की दुर्दशा को प्रकट करते हैं, और जो इस रोग से पीड़ित हों उनको अपने विचार और व्यवहार का सुधार करना आवश्यक है। यह बात ठीक है कि संसार में पाप तथा दुःख की अधिकता है, इसीलिये उसे हमारे पूर्ण प्रेम और दयाभाव की आवश्यकता है। हमारे रोने की किसी को जरूरत नहीं। ऐसा रोना तो सब जगह पहले से ही मौजूद है। इसलिये अगर जरूरत है तो हमारे आनन्दी और संतोषी स्वभाव की है, क्योंकि उनकी सर्वत्र कमी है। हम संसार को अपने स्वभाव और व्यवहार के मिठास से बढ़कर और कोई चीज नहीं दे सकते। इसके अतिरिक्त सब व्यर्थ है। यही सब से अच्छी चीज है, सत्य है, स्थायी है, अविनाशी है और इसी में समस्त सुख और परमानन्द समाया हुआ है।
तुम पर यदि विपत्तियाँ आती हैं-तुमको हानि उठानी पड़ती है, तो उससे निराश मत बनो। दूसरों के पापयुक्त की निन्दा करना और उन व्यक्तियों का विरोध करना बन्द कर दो। दूसरों को हानि पहुँचाने वाले अथवा दुष्टतापूर्ण विचारों को त्याग दो, क्योंकि इसी से तुमको मन की शान्ति, शुद्ध धर्म और सच्चे सुधार की प्राप्ति हो सकेगी। तुम दूसरों को सत्यवादी बनाना चाहते हो तो पहले स्वयं सत्यवादी बनो। पाप और दुःखों से संसार को मुक्त कराना चाहते हो तो पहले स्वयं इन बुराइयों से मुक्त बन जाओ। तुम अपने घर के लोगों और पड़ोसियों को संतोषी देखना चाहते हो तो पहले स्वयं संतोषी हो जाओ। अगर तुम स्वयं बदल जाओगे तो अपने आस-पास की सब वस्तुओं को भी बदल सकोगे।
शोक मत करो, दुःखी मत हो, निराशावादी बनकर अपना आत्मबल मत घटाओ। अगर कोई बात बुरी जान पड़े तो उसकी निन्दा करते मत फिरो, वरन् जो कुछ सत्य और सुन्दर जान पड़े उसी का गुणगान करते रहो।
तुम्हारे भीतर जो सज्जनता का भाव है, उसका अनुभव जैसे-जैसे तुमको होता जायगा, वैसे-वैसे तदनुकूल व्यवहार तुम स्वयं ही करने लगोगे।