Magazine - Year 1959 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ईश्वरीय सत्ता का अनुभव और हमारा अन्तर्ज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री फिरोज काबसजी दावर एम. ए.)
इंग्लैण्ड के एक प्रसिद्ध विद्वान ने एक अवसर पर कहा था कि “मनुष्य धार्मिक प्राणी है।” यही कारण है कि मनुष्य का ध्यान सदैव सृष्टि की पहेली की तरफ आकर्षित होता रहता है और इसे सुलझाये बिना उसे चैन नहीं पड़ता। पेट की भूख की अपेक्षा भी ज्ञान की वुभुक्षा अधिक प्रबल होती है। एक दूसरे विद्वान ने एक बार धार्मिक-जीवन पर विचार करते हुये कहा था कि “ज्ञान-शक्ति सम्पन्न मनुष्य की अपेक्षा एक कुत्ते का जीवन अधिक सुखमय है क्योंकि उसके भीतर जिज्ञासा रूपी मीठी खुजली और ज्ञान की भूख नहीं होती। मनुष्य की बुद्धि ईश्वर का आशीर्वाद भी है और अभिशाप भी है, क्योंकि वह उसे सदैव ईश्वर सम्बन्धी शंका समाधान के भँवर जाल में घुमाये रहती है और तब तक चैन नहीं लेने देती जब तक कि वह सर्वज्ञ न हो जाय।”
“ईश्वर को बुद्धि से जान लेना सर्वथा असम्भव है। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे कि हमारी इस प्रकार की चेष्टा सीढ़ियों से चढ़कर स्वर्ग में पहुँचने की चेष्टा के सदृश्य व्यर्थ है।” ईश्वर और हमारे बीच जो अंधकार का पर्दा पड़ा हुआ है उसे भेद सकने में मनुष्य की वैज्ञानिक और तार्किक बुद्धि सर्वथा असमर्थ है। वास्तव में परमात्मा की वैज्ञानिक ढंग से छानबीन करने और उसकी अपार शक्ति को तर्क द्वारा सीमाबद्ध करने और नापने की कोशिश करने में हम उस परात्पर पुरुष को बहुत छोटा बना देते हैं। जर्मनी के प्रोफेसर जैकोवी ने कहा है—”वह परमात्मा ही नहीं रह जाता जो हमारी समझ में आ सकता हो।” जो वस्तु भली-भाँति बुद्धि में आ जाती है उसके प्रति भय और आदर का भाव किसके हृदय में उत्पन्न होगा? उस व्यक्ति के सामने, जिसे हम समझ सकते हैं अपने अधीन कर सकते हैं, और जिसका विश्लेषण कर सकते हैं, हम क्यों सर झुकायेंगे? ऐसी दशा में ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता कहाँ रहेगी? इसी भावना को ध्यान में रखते हुये योरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने कहा था-”ईश्वर को मैं जितना कम समझता हूँ उतना ही अधिक भक्ति के साथ मैं उसकी प्रार्थना करता हूँ।” यही कारण है कि सरल चित्त के अनपढ़ और साधारण पढ़े लिखे व्यक्ति उच्च कोटि के भक्त और संत हो चुके हैं और ईश्वरीय शक्ति का अच्छा परिचय दे सके हैं जब कि बड़े-बड़े दार्शनिक और तार्किक उस क्षेत्र में जरा भी प्रवेश नहीं कर सके हैं।
ईश्वर के अस्तित्व को पुष्ट करने वाले प्रमाण तीन श्रेणियों में विभक्त किये जाते हैं—
(1)उस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले जिसमें वस्तुओं के तत्व और स्वभाव पर विचार होता है।
(2) सृष्टि-विकास के सिद्धान्त से सम्बन्ध रखने वाले।
(3) उस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले जिसमें संसार के आदि कारणों पर विचार किया गया है।
पहली श्रेणी के प्रमाण का आशय यह है कि हमारे हृदय में ईश्वर की जो भावना सदैव से चली आती है वह उसकी प्रेरणा से ही है और यह उसकी सत्ता का एक प्रमाण है। दूसरे प्रमाण वाले यह कहते हैं कि बिना कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। उसका कोई कारण होना आवश्यक है। इसके अनुसार इस विश्व का जो कारण है वही ईश्वर है। तीसरे प्रमाण के अनुसार सृष्टि में जो अद्भुत व्यवस्था और नियमितता दिखलाई पड़ती है उससे प्रतीत होता है कि इसको रचने वाली कोई महान शक्ति अवश्य है। यह कहना कि परमाणुओं के आकस्मिक संयोग से सृष्टि के ये मस्त अद्भुत पदार्थ बन गये बुद्धि-संगत बात नहीं है।
यद्यपि ये तीनों प्रकार के प्रमाण अकाट्य नहीं कहे जा सकते और आलोचना करने वालों ने इनमें अनेक प्रकार की त्रुटियाँ बतलाई हैं। तो भी उनमें कुछ तथ्य अवश्य हैं और इसलिये उनकी अवहेलना न करने, उन पर गम्भीरता से विचार करना हमारा कर्तव्य है। ईश्वर की सिद्धि गणित के किसी सिद्धान्त की तरह नहीं हो सकती, पर साथ ही हम यह भी कह सकते हैं कि ईश्वर का खण्डन कर सकना भी उतना ही निष्फल है। सत्य बात तो यह है कि ईश्वर का अस्तित्व तर्क या प्रमाणों द्वारा करना अच्छा तरीका नहीं है। क्योंकि ज्ञान का भंडार महान्, विस्तृत एवं शक्तिमय है, किन्तु मनुष्य को उतनी ही परिमित राशि का ज्ञान है, जिसको उसने स्वयं अर्जन किया है। ऐसे परिमित ज्ञान के अन्दर उस अपरिमित शक्ति का समावेश किसी प्रकार से नहीं हो सकता। इसलिए यदि हम ईश्वर के अस्तित्व के विषय में वास्तव में कोई जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो हमको आभ्यान्तरज्ञान (इंट्यूशन) का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। बुद्धिजन्य ज्ञान की प्रक्रिया बाह्य होती है और उसके लिए हमको बाहर के ज्ञान का अर्जन करना होता है, जिसमें पर्याप्त समय लगाना पड़ता है और देर से सिद्धि मिलती है। इसके विपरीत आभ्यन्तरिक ज्ञान की प्रक्रिया आन्तरिक (आत्माकार) होती है और इसके द्वारा सत्य का प्रकाश तत्काल ही हमारी बुद्धि पर पड़ता है। यह आभ्यन्तरिक ज्ञान ही असंदिग्ध, उत्पादनशील और विकासशील होता है। आन्तरिक ज्ञान की एक विशेषता यह है कि वह स्वतः-प्रकाश नहीं होता है किन्तु उसे उस आलौकिक वस्तु से प्रकाश प्राप्त होता है जिसको वह अपना विषय बनाता है। आन्तरिक ज्ञान स्वतः प्रकाश रूप नहीं किन्तु प्रकाश को ग्रहण करने वाला होता है, क्रियाशील शक्ति नहीं किन्तु क्रिया का आधारभूत एक विचित्र कारण है।
इसी आन्तरिक ज्ञान की सहायता से हम सृष्टि के अन्दर ईश्वर की सत्ता का अनुभव करते हैं। जिन लोगों को यह ज्ञान प्राप्त नहीं है वे सहज ही में ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर देते हैं। अब दर्शन और विज्ञान ने भी अन्तर्ज्ञान की महत्ता को मान लिया है और बड़े-बड़े योरोपियन तथा अमरीकन विद्वानों का कहना है कि इसके बिना सत्य की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। इस आन्तरिक ज्ञान की सहायता से भी हम ईश्वर को पूर्ण रूप से नहीं समझ सकते, उसका अनुभव मात्र कर सकते हैं, और अधिक से अधिक उसकी सर्वशक्तिमत्ता की एक झलक पा सकते हैं। महासागर में अपार जलराशि है किन्तु हम उसमें से उतना ही जल ले सकते हैं जितना हमारे बर्तन में समा सकता है। इसी प्रकार हम लोग अपने-अपने आध्यात्मिक विकास के अनुसार ही ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं।
आन्तरिक ज्ञान की इस सीमा पर पहुँच कर साधक को योग की सहायता लेनी पड़ती है। योगी का जीवन, उसकी दृष्टि एवं बातचीत ईश्वरमय पुरुष के सदृश्य होती हैं। योगी को विश्वास होता है कि वह उन तथ्यों को भी आध्यात्मिक रीति से जान सकता है जो बुद्धि की पहुँच के बाहर हैं। यद्यपि वह सत्य का अनुभव कर लेता है, तथापि वह भी साधारण मनुष्यों के सामने सिद्ध नहीं कर सकता। उसके अनुभव तक वहीं पहुँच सकता है जो आध्यात्मिक विकास में उसी दर्जे तक पहुँच गया हो। वह परमात्मा को जानता नहीं किन्तु उसका अनुभव करता है, यही नहीं परमात्मा के साथ उस की एकता हो जाती है। फिर वह ईश्वर के अतिरिक्त न तो कुछ जान सकता है, न देख सकता है, न अनुभव कर सकता है। वह समस्त सृष्टि में उस एक को देखता है और उसी में विलीन हो जाता है। तर्कवादी मनुष्य भले ही इस प्रकार के महात्मा को पागल समझें, पर ईश्वर के अस्तित्व को अनुभव करने का यही मार्ग है। हमारे देश के लोग सदा से इस तथ्य को स्वीकार करते आये हैं। इसीलिए प्रो. मैक्समूलर ने कहा था कि “संसार में सर्वत्र धर्म और दर्शनशास्त्र में विरोध दिखलाई पड़ता है। भारत वर्ष ही एक ऐसा देश है जहाँ दोनों में सामञ्जस्य है।”