Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वार्थपरता आध्यात्मिक पतन का मूल कारण है।
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(श्री मेहरबाबा)
स्वार्थपरता मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में एक बहुत बड़ी बाधा स्वरूप है। जब किन्हीं कारणों वश हमारी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती तभी स्वार्थपरता अस्तित्व में आती है। साथ ही जो मनुष्य मानव-स्वभाव के वास्तविक स्वरूप से अनजान होता है उसमें भी इस प्रवृत्ति का जन्म होता है। जन्म-जन्मान्तर के विकासक्रम में हमारे भीतर जो नाना प्रकार के संस्कार एकत्रित हो जाते हैं उनसे मानवीय चेतना आच्छादित हो जाती है। ये संस्कार ही इच्छाओं के रूप में प्रकट होते हैं और इन इच्छाओं द्वारा हमारी चेतना (ज्ञान) का क्षेत्र बहुत कुछ सीमित हो जाता है।
स्वार्थपरता का घेरा इच्छाओं के घेरे के बराबर ही होता है। तरह-तरह की इच्छाओं के अवरोध (रुकावट) के कारण अपने यथार्थ स्वरूप की अभिव्यक्ति आत्मा के लिये असंभव हो जाती है। इससे हमारा जीवन अपने तक ही केन्द्रित और सीमित हो जाता है। इसके लिये हम इच्छानुकूल वस्तुओं की खोज करते रहते हैं, जो सब की सब परिवर्तनशील और क्षणभंगुर होती हैं। किन्तु ऐसी नाशवान वस्तुओं के द्वारा वास्तविक तृप्ति होनी असंभव है। जीवन की चंचल वस्तुओं से प्राप्त संतोष स्थायी नहीं होता और मनुष्य की चाहें या इच्छाएं अतृप्त बनी रहती हैं। इस प्रकार असंतोष का एक सामान्य भाव सदैव मौजूद रहता है, जिसके साथ सभी प्रकार की चिन्ताओं का आगमन होता है।
मनुष्य का निष्फल अहंकार जितने मुख्य रूपों में व्यक्त होता है वे हैं काम, लोभ, और क्रोध। कई दृष्टियों से ‘काम’ बहुत कुछ ‘लोभ’ के ही समान है, केवल इसके तृप्त होने की विधि भिन्न है, जिसका सीधा सम्बन्ध स्थूल क्षेत्र से रहता है। काम स्थूल शरीर के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करता है। लोभ हृदय की विश्राम हीनता की एक अवस्था है, और वह अधिकार तथा सत्ता की लिप्सा से उत्पन्न होता है। इच्छाओं की पूर्ति के लिए अधिकार और शक्ति की खोज की जाती है। इस प्रयत्न में मनुष्य आँशिक रूप से ही सफल होता है, और उसका यह आँशिक संतोष, इच्छा की अग्नि को शाँत करने के बदले और भी भड़काता है। इस कारण लोभ के लिये अपने सम्मुख स्थित विशाल क्षेत्र पर विजय पाना असंभव होता है, और वह मनुष्य को अत्यन्त असंतुष्ट बना देता है। इससे क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध उत्तेजित मन का उफान है, इच्छाओं के खंडित होने से वह उत्पन्न होता है। उसका लक्ष्य होता है इच्छाओं के तृप्त होने के मार्ग की बाधाओं को दूर करना।
इस प्रकार काम, लोभ और क्रोध की प्रवृत्तियों द्वारा ही मनुष्य निराशा का अनुभव करता है और उसका निष्फल अहम् काम, लोभ और क्रोध के द्वारा ही अधिक तृप्ति के साधनों की खोज करता है। इस प्रकार हमारी आत्मा की चेतना असीम निराशा के दुष्ट चक्कर में फँस जाती है। काम, लोभ या क्रोध की पूर्ति न होने से ही निराशा उत्पन्न होती है। इन तीनों पतनकारी प्रवृत्तियों का विस्तार स्वार्थपरता के साथ ही होता है। इन तीनों अन्योन्याश्रित दुर्गुणों का मुख्य आधार स्वार्थपरता ही है, अतः स्वार्थपरता ही वास्तव में हमारी समस्त निराशा और चिंताओं का आदि कारण है। पर इस प्रयत्न में वह अपने आपको ही पराजित करती है। वह इच्छाओं के विस्तार द्वारा अपनी तृप्ति करना चाहती है, पर परिणाम में उसे एक असीम असंतोष ही मिलता है।
स्वार्थपरता का अनिवार्य परिणाम असंतोष और निराशा है, क्योंकि इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इसलिये सुख की समस्या का एकमात्र उपाय इच्छा त्याग है। पर बाहरी दमन के कारण इच्छाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, वे केवल ज्ञान के द्वारा ही जड़ से मिटाई जा सकती हैं। यदि तुम विचारों की गहराई में डूबो और थोड़ी देर के लिए गम्भीरता पूर्वक विचार करो, तो तुम्हें इच्छाओं का खोखलापन मालूम हो जायगा। सोचो कि इतने वर्षों में तुम्हें कितना सुख मिला तथा कितना दुःख मिला। जीवन में तुमने जो भोग किया, वह आज शून्य के बराबर है और जीवन में तुम्हें जो कष्ट मिला वह भी कुछ नहीं के समान है। वास्तव में वह दोनों ही भ्रम थे। सुखी होने का तुम्हें अधिकार अवश्य है, लेकिन तो भी तुम स्वयं वस्तुओं की चाह करके अपने लिये दुःख पैदा करते हो। चाह या इच्छा सदैव अशाँति का कारण होती है। जिस वस्तु की तुमने चाह की यदि वह तुम्हें न मिली तो तुम निराश होते हो। यदि वह तुम्हें मिली तो तुम उसे और भी अधिक परिमाण में चाहते हो और इस कारण दुखी होते हो। इसलिये तुम यह कहो कि “मुझे कुछ भी न चाहिये” इससे तुम सुखी हो जाओगे। इच्छाओं या चाहों की असारता की अनुभूति तुम्हें अन्त में ज्ञान प्रदान करेगी। यह आत्मज्ञान इच्छाओं से तुम्हें मुक्त करेगा और इस प्रकार स्थायी सुख का पथ तुम्हें मिल जायगा।
यहाँ पर चाह और आवश्यकता का भेद भली भाँति समझ लेना चाहिये। अभिमान और क्रोध, वासना और लोभ, ये सब चाह के विभिन्न रूप हैं। तुम शायद यह कहो कि “मुझे जिन वस्तुओं की चाह है, उन सब की मुझे आवश्यकता है”—किन्तु यह एक भूल है। यदि रेगिस्तान में तुम प्यासे हो तो तुमको स्वच्छ जल की आवश्यकता है, न कि शर्बत की। जब तक मनुष्य का शरीर है तब तक आवश्यकताएँ रहेंगी और ऐसी आवश्यकताएँ पूरी करना जरूरी है। किन्तु ‘चाह’ मूढ़ कल्पना का परिणाम है। यदि सुख पाना है, तो सावधानी पूर्वक हमें उनको निर्मूल करना चाहिये।
स्वार्थपरता के नाश की दूसरी विधि है हमारे भीतर प्रेम का उदय होना। सच्चे अस्तित्व का अर्थ है “प्रेम करके मरना”। यदि तुम एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हो, तो तुम उन्हें कैसे प्रेम कर सकते हो जो तुम्हें यंत्रणा देते हैं? स्वार्थपरता की सीमाएँ अज्ञान द्वारा निर्मित होती हैं। किन्तु जब मनुष्य यह जान लेता है कि उसकी रुचि और कार्य क्षेत्र के विस्तृत, उदार होने से उसे अधिक गौरवपूर्ण संतोष की प्राप्ति होगी, तब वह सेवामय जीवन की ओर अग्रसर होता है। इस स्थिति में वह सदिच्छाओं को अपने मन में स्थान देता है। पर दुःख निवारण तथा परोपकार द्वारा दूसरों को सुखी करना चाहता है। यद्यपि ऐसी अच्छी इच्छाओं में भी स्वार्थ का अप्रत्यक्ष संबंध रहता है, तथापि उसके सत्कार्यों पर संकुचित स्वार्थपरता का अधिकार नहीं रहता।
व्यक्तिगत अहम् की रचना में जो इच्छाएँ प्रविष्ट होती हैं, वे या तो अच्छी होती हैं या बुरी? बुरी इच्छाएँ सामान्यतया स्वार्थपरता के नाम से पुकारी जाती हैं और अच्छी इच्छाएँ निस्वार्थता के नाम से। किन्तु स्वार्थपरता और निस्वार्थता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। ये दोनों द्वैत के क्षेत्र में ही कार्य करती हैं। स्वार्थपरता का जन्म तब होता है जब सारी इच्छाएँ अपने संकुचित व्यक्तित्व के चारों ओर केंद्रीभूत कर दी जाती हैं। जब निस्वार्थता का उदय होता है तब इच्छाओं का सामान्य रूप में विस्तार होने लगता है। इच्छाओं के विस्तार का यह परिणाम होता है कि वे एक विशाल क्षेत्र को घेरती हैं। एक सीमित क्षेत्र तक रुचियों का संकुचित होना स्वार्थपरता है और एक विशाल क्षेत्र में रुचियों का विस्तार निःस्वार्थता है।
द्वैत की दुनिया से ऊपर उठकर एकात्मभाव की दुनिया में प्रविष्ट होने के लिये स्वार्थ का निस्वार्थता में परिणित होना नितान्त आवश्यक है। दृढ़ आग्रह के साथ तथा निरंतर सत्कार्यों के करते रहने से स्वार्थ क्षीण हो जाता है। स्वार्थ जब संकुचित क्षेत्र से विस्तृत क्षेत्र में बढ़ता है और सत्कार्यों के रूप में प्रकट होने लगता है, तब अपने ही नाश का साधन बन जाता है। तब व्यक्तिगत स्वार्थ अपने को जागतिक या सार्वजनिक हित में लीन कर देता है। यद्यपि यह निस्वार्थ और परहितपरायण जीवन भी द्वन्द्वों से आबद्ध होता है, परन्तु यह स्थिति द्वंद्वों से पूर्णतः मुक्त होने के पहले की एक आवश्यक सीढ़ी है। सत्कार्य वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा अपने अज्ञान का उन्मूलन कर सकता है।
अच्छाई को पार करके आत्मा परमात्मा में पहुँचता है। निस्वार्थता सर्वोपरि परमार्थ में लय हो जाती है। मुक्ति की अवस्था में स्वार्थपरता तथा निःस्वार्थता का अस्तित्व सामान्य अर्थ में नहीं रह जाता और सभी के प्रति आत्मीयता की भावना में इनका रूपांतर हो जाता है। विश्व के समस्त जीवन में एकता का ज्ञान हो जाने से परम शान्ति एवं अथाह आनन्द की उपलब्धि होती है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गतिशून्यता नहीं है और इसके द्वारा सापेक्षिक मूल्यों का भी नाश नहीं होता। सभी के प्रति आत्मीयता की अनुभूति से ऐसी स्थायी समता की प्राप्ति होती है, जिसमें विवेक ज्यों का त्यों बना रहता है, तथा ऐसी शाँति प्राप्त होती है जो संसार के प्रति उदासीनता अथवा उपेक्षा का बर्ताव नहीं करती। ‘सर्व भूतेषु आत्मवत्, का यह भाव केवल वैयक्तिक दृष्टिकोण के समन्वय का ही परिणाम नहीं होता वरन् यह अंतिम सत्य से, जिसके अंतर्गत सब कुछ है, एकता की वास्तविक प्राप्ति का परिणाम होता है।
सभी इच्छाओं को निर्मूल करके अपना हृदय खोलो और उसमें केवल एक ही लालसा को स्थान दो—अर्थात् अंतिम सत्य से एकत्व प्राप्त करने की लालसा। उस अंतिम सत्य की खोज बाहरी परिवर्तनशील वस्तुओं में नहीं की जानी चाहिये। उसकी खोज अपने ही भीतर करनी चाहिये। प्रत्येक बार जब तुम्हारा आत्मा तुम्हारे मानवीय हृदय में प्रवेश करना चाहता है, तब वह बाहर तो ताला लगा हुआ पाता है, तथा भीतर इच्छाओं की बड़ी भीड़ लगी रहती है। स्थायी आनन्द का उद्गम स्थान सर्वत्र मौजूद है, किन्तु तो भी समस्त प्राणी अज्ञान जनित इच्छाओं के कारण दुःखी हैं। स्थायी सुख का लक्ष्य पूर्णतः तभी चमकता है जब सीमित अहंकार अपनी समस्त इच्छाओं के सहित अपने अंतिम नाश को प्राप्त होता है।
अन्त में एक बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि इच्छाओं को त्यागने का अर्थ संसार को त्याग देना या जीवन के प्रति पूर्णतया निषेधात्मक रुख धारण करना नहीं है। जीवन का ऐसा किसी भी प्रकार का निषेध मनुष्य को मनुष्यत्व शून्य बनाना है। ईश्वरत्व मनुष्यत्व से रहित नहीं है। आध्यात्मिकता का परमावश्यक कर्त्तव्य मनुष्य को अधिक मनुष्यत्व युक्त बनाना है। मनुष्य में जो सौंदर्य है, महानता है, तथा सात्विकता है, उन्हें मुक्त तथा व्यक्त करने के कार्य का नाम आध्यात्मिकता है। बन्धनों के भय से जीवन से दूर भागने से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसा करना जीवन का निराकरण है। प्रकृति की द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्ति से भयभीत होकर पीछे हटने से पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। बंधन से बचने के प्रयत्न का अर्थ है जीवन से भयभीत होना, किन्तु आध्यात्मिकता का अर्थ है परस्पर विरोधों से अभिभूत हुये बिना जीवन का ठीक और पूर्ण ढंग से सामना करना। ऐसी आध्यात्मिकता का पालन करने वाला जीवन के विभिन्न रूपों से अपना संपर्क बनाये रखकर भी आसक्ति से संपूर्णतः रहित होकर आचरण करता है, और इस प्रकार स्वार्थपरता के दोष में किंचित भी ग्रस्त नहीं हो पाता।