
मनःशक्तियों का सदुपयोग
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(स्वामी नित्यानन्द सरस्वती)
महात्मा गाँधी की याद आते ही सहसा उनके शरीर की तस्वीर आँखों में घूमने लगती है। सहसा आश्चर्य हो आता है “वह दुबला-पतला शरीर और इतने महान कार्य।” महान् कार्यों में इनके शरीर की इतनी प्रधानता नहीं हैं जितनी उनके मनोबल की। उनका मन स्वस्थ एवं शोधा हुआ था। मन के ठीक-ठीक निर्माण कर लेने पर दुबले-पतले व्यक्ति भी महान-2 कार्य सम्पन्न करते हैं। इसी तरह यदि हम शरीर से कितने हृष्ट-पुष्ट हों और यदि हमने स्वस्थ मन का निर्माण नहीं किया है तो हम स्वयं के समाज के लिए विशेष हितकर नहीं हो सकते। हमारे जीवन का महत्व संसार में कुछ नहीं होगा। मनुष्य के मन का स्वस्थ एवं शोधा हुआ होना परमावश्यक है। साथ-ही-साथ शरीर भी हो तो यह जीवन में एक वरदान ही है।
मन का स्वस्थ होना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि यदि मन स्वस्थ होगा तो दुबला पतला शरीर भी बहुत कुछ कर सकेगा। महात्मा गाँधी में सक्रियता और फुर्तीलापन उनके स्वस्थ मन के कारण ही थी। वे जब किसी भी कार्य या संकल्प पूर्ति में जुट जाते तो उन्हें आगे पीछे की चिन्ता नहीं होती थे। वर्तमान क्षण और संकल्प या कार्य ही उनके समक्ष होता था। उनकी इस अविचल, शान्त गम्भीर मनःस्थिति के कारण ही महान कार्य सम्पन्न होते हैं।
मन का ठीक-ठीक निर्माण एवं उसे स्वस्थ बनाने के लिए निम्नलिखित बातों को जीवन में अपनाना चाहिये। इससे हमारा मन स्वस्थ बनेगा और मनः शान्ति बढ़ेगी।
जीवन में निरन्तर सक्रियता की आवश्यकता है। जो जीवन अकर्मण्य है वह एक अभिशाप ही है। कहावत भी है “खाली दिमाग शैतान का घर है।” कार्य शीलता से रहित जीवन भार स्वरूप ही है। अकर्मण्य एवं आलसी व्यक्ति सदैव इस संसार में पिछड़े हैं। ऐसे व्यक्तियों को इस संघर्षमय कर्मक्षेत्र संसार में स्थान नहीं हैं। जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने कोई जादू या छल से महानता प्राप्त नहीं की है। उनकी महानता का एकमात्र कारण उनका निरन्तर कर्तव्य परायण एवं निष्ठा पूर्ण जीवन ही था। उनके जीवन में ‘आराम हराम’ था।
जीवन की निरन्तर सक्रियता में उद्दण्डी मन की चंचलता, संकल्प, विकल्प, वासना आदि नष्ट हो जाते हैं। कार्य व्यस्त और परिश्रमी व्यक्ति धीरे-धीरे इस चंचल मन पर बाजी मार लेते हैं। मन एक अजीब भूत है जो अपनी कल्पना एवं विचारों के सहारे आकाश पाताल और लोक लोकान्तरों में उड़ा उड़ा फिरता है। ऐसे मन पर काबू पाना सहज नहीं होता। इस भूत को निरन्तर काम में जोते रहना ही इसे बस में करने का एक मंत्र है।
जीवन में सक्रियता की इसलिए भी आवश्यकता है कि ईश्वर ने हमें क्रिया शक्ति दी है-कुछ करते रहने के लिए। अतः यदि हम अकर्मण्य रहे और ईश्वरीय विधान के विपरीत चले तो यह शक्ति हम से छीन ली जाती है। इन्द्रियाँ अपनी क्रिया शक्ति को खो देती हैं। ऐसा व्यक्ति हाथ पैर होते हुए भी मुर्दा ही है। वह जीवन में पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं देख सकता।
स्वस्थ मन के निर्माण में दूसरा साधन यह है कि हमारे मन, वचन और कर्म तीनों में एकता स्थापित हो। जो सोचा जाए या तो कल्पना की जाए वही कहा जाए और जो कहा जाये वही किया जाये। इस तरह का दृढ़ निश्चय स्वस्थ मन के निर्माण में बहुत ही महत्वपूर्ण है। जो मनुष्य केवल कल्पनाओं की उड़ानें लेता हो तथा कहता कुछ और हो और करता कुछ और हो, वह शेखचिल्ली जैसा ही है। उसे जीवन में असफलता, निराशा, परावलम्बन आदि के सिवा और कुछ नहीं मिल सकता।
मन को सदैव बुद्धि एवं विवेक के नियंत्रण में रखना चाहिए। क्योंकि इसमें अनेक जन्म जन्मान्तरों के संस्कार भरे पड़े हैं। मन को पूर्व संस्कारों से प्रभावित होकर तद्नुकूल कार्य करने की आदत होती है। अतः इसे बुद्धि के नियंत्रण में रखकर अनावश्यक तत्वों एवं गलत मार्ग में जाने से बल पूर्वक रोकना चाहिये। इस ओर दी गई तनिक भी ढील बुरे कर्मों के ओर लगने में अधिक प्रोत्साहित करती है। ऐसी ढिलाई एक बड़ी भूल होती है। जो व्यक्ति यह निर्णय कर लेता है कि अभी तो अमुक कार्य कर लो फिर बार में इसे नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्तियों को मन पछाड़ पछाड़ कर मारता है। उनकी आवाज पर अचानक कोई कार्य करने पर उतारू नहीं होना चाहिए। बुद्धि और विवेक से ठीक ठीक निर्णय करके फिर कार्यक्षेत्र में मनोयोग के साथ उतरना चाहिए।
मन को स्वस्थ बनाने का एक साधन ईश्वर चिन्तन भी है। परमात्मा की खोज में इसे लगा देना ही अधिक महत्वपूर्ण है। संसार के सारे धर्म कर्म, योग, साधना, उपासना आदि इसी केन्द्र पर केन्द्रित हैं।
शोधी हुई मनः शक्ति स्वयं एक चमत्कार है। स्वस्थ मन वाला व्यक्ति संसार के लिए एक वरदान होता है। वह संसार को कुछ न कुछ देकर ही जाता है। जबकि दूषित मन वाले सृष्टि में विकृति एवं दोष उत्पन्न करके जाते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वस्थ एवं सबल मन के निर्माण का पूरा ध्यान देना चाहिए।