
सहयोग भावना (kavita)
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सुनती हूँ सहयोग भावना में बसते भगवान!
हो जाती जन-जन की आत्मा जिस क्षण एकाकार,
बन जाता लघु-बिन्दु तभी है व्यापक पारावार,
तृण की निर्बलता लेती है हाथी को भी बाँध,
और शुष्क कण कर देता है भू की पूरी साध,
बन कर एक अनेक शक्ति कर लेते प्राप्त महान,
सुनती हूँ -------
सामूहिक श्रम स्वयं विश्वकर्मा कहलाता है,
सृजन स्रोत बन मरुथल को मधुमास बनाता है,
स्वयं भगीरथ कोटि-कोटि हाथों की गुरु-गरिमा,
गंगा सरिता नहीं पुण्य जग-जीवन की महिमा,
सह साधन सहभोज समन्वय से संभव कल्याण! सुनती हूँ -------
बनी हुई सहयोग भावना ही है मंगल-मूर्ति
श्राँत पथिक को भी यह देती नवगति नवल-स्फूर्ति,
एकाकी तप-व्रत-निष्ठा का बदल गया अब रूप,
सुखी समष्टि व्यक्ति को देगी गौरवपूर्ण स्वरूप,
युग-युग से ही कहते आये गीता वेद पुराण।
सुनती हूँ -------
-विद्यावती मिश्रा
*समाप्त*