
मानव जीवन की सार्थकता
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(श्री शम्भूसिंहजी कौशिक)
परम पिता परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना इतने विचित्र ढंग से की है कि मनुष्य की बुद्धि चक्कर खाने लगती है। इस सृष्टि का सर्व श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है। वह इसके रहस्यों को जानने का प्रयास सदैव से करता आ रहा है। ज्ञानी जन इन रहस्यों का अन्वेषण कर, मानव को नये नये रूप में लाते जा रहे हैं। परमात्मा के युवराज मानव की शक्ति अपरिमित है। इसने विशाल पयोधि के अन्तस्थल को चीर डाला और उसके धरातल की छानबीन करनी आरम्भ कर दी। उसके गर्भ में छुपे रत्नों को ढूँढ़ डाला। उस अथाह समुद्र की थाह भी इस बुद्धिमान् मानव की क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं रही।
समुद्र की खोज से ही वह सन्तुष्ट नहीं हुआ, इसने आकाश में उड़ान लगाना आरम्भ किया और नक्षत्रों के समाचार ले आया। समर्थ मानव ने अन्य लोक वासियों से अपना सम्बन्ध स्थापित करना आरम्भ कर दिया।
समस्त विश्व के सर्वोच्च शिखर माउन्ट एवरेस्ट पर भी अपने चरण जा धरे। इन सब शिखरों पर चढ़ना और उनके मनोरम दृश्यों का आनन्द लेना इसके लिए अब मनोरंजन की सामग्री हो गई है। पर्वतों के दुर्गम मार्गों को उसने अपने जन्य यन्त्रों से तोड़ फोड़ कर सीधे और सरल बना दिये हैं। इनकी गोदी में छिपे हुए बहुमूल्य रत्नों को इसने खोदना आरम्भ कर दिया है। हिंसक पशुओं और सृष्टियों से भरपूर जंगल अब मानव के लिए एक सामान्य गोचर भूमि से अधिक कुछ नहीं है। इस अतुलित बलशाली मानव ने ध्रुवों तक खोज कर डाली है। इसकी बुद्धि की कहाँ तक प्रशंसा करें इसने पय, पवन, पावक और पृथ्वी सभी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। ये सभी इसकी सेवा प्रमाद रहित होकर कर रहे हैं।
द्रुत-गति से प्रवाहित होने वाली नदियों के प्रवाह को इसने यथेच्छ दिशा में मोड़ दिया है। उनकी तेज धाराओं को बाँध कर बड़े-बड़े बाँध बना दिये हैं। जिनसे नहरें निकाल कर मरुस्थल को भी हरे भरे उद्यानों में परिवर्तित कर दिया है।
अपनी यात्रा के साधनों को इतना आरामदेह बना लिया है कि अत्यन्त तप्त प्रदेश में भी इसे अब गरमी नहीं सताती है। अपने कल नल के सहारे महाद्वीपों और द्वीपों को अत्यन्त निकटवर्ती पड़ौसी बना दिया है।
सम्पूर्ण भूतों पर यह विजयी हो गया है। अपनी इस भौतिक सफलता पर यह गर्भित हो उठा है और उस सृष्टि नियन्ता परमपिता परमेश्वर को भूलने में गौरव का अनुभव करता है। जिसने इसके ऊपर अनेकों उपकार किए हैं। जो स्वभाव से बड़ा दयालु ओर परोपकारी है।
ऐसे दयालु परमात्मा को भुलाकर वह अपने वास्तविक लक्ष्य को भूलता जा रहा है। प्राचीन भारतीय तत्व ज्ञानियों ने अन्ततोगत्वा दुख को प्रदान करने वाले इस भौतिक और क्षण भंगुर विज्ञान की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया। उन्होंने समुद्र की तरंगों की ओर विशेष ध्यान न देकर अपने अन्तःकरण की तरंगों को पहचाना।
विज्ञान की दुनिया से प्रभावित होने वाले अब भी सावधान हो और शेष जीवन को ईश्वरानुग्रह प्राप्त करने में लगा। वह बड़ा कृपालु है। यह सृष्टि और तेरी शक्ति उसकी कृपा का प्रयत्न-प्रभाव है। जिस बुद्धि बल पर आज तू इतना इठलाता है यह सब उस दया सागर का एक बिन्दु है। अपना कोई स्वार्थ न होते हुए भी उसने जीवों के कल्याण के लिए संसार रचना की है। उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए हम अपनी बुद्धि को उसकी ओर मोड़ें। नदियों के प्रवाह को मोड़ने वाले, अपनी मन के प्रवाह को प्रभु की ओर मोड़ दे। वह माता पिता के समान कृपालु है। जब परमपिता अपने प्यारे वत्स, जीव को अपनी ओर आता देखता है तो भक्त वत्सल अधीर होकर नंगे पैर दौड़ पड़ता है। दया सिंधु अपने प्यारे पुत्रों को अपने अनन्त शक्ति रूप हाथों से उठा लेता है। अपनी गोद में लेकर उसे सच्चे आनन्द का पयपान कराता है। जिसे पीकर वह सदैव के लिए तृप्त हो जाता है।
पर्वत, मस्तकों को अपने चालों से परिमर्दन करने वाले ओ गर्वित मानव! अनन्य मन से उस जगत नियन्ता की स्तुति, प्रार्थना कर! उसके आदेश को शिरोधार्य करके उसके अनुसार आचरण कर!! उस प्रभु से प्राप्त तन, मन, धन को उसकी ही सेवा में लगाने में संकोच मत कर। हे पयोदधि के मन्धन कर्त्ता! अपने अन्तःकरण को मथकर देख, तभी तुझे सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकेगी। इसके लिए उस परमेश्वर की उपासना करना, सत्कर्मों में प्रवृत्त रहना, दया, उपकार को धारण करना ही श्रेष्ठ साधन हैं! ज्यों-ज्यों तू परमात्मा की तरफ चलेगा। त्यों-त्यों वह भी बढ़ता दिखाई पड़ेगा। जैसे बालक को आता हुआ देखकर माता स्वयं दौड़कर उसे गोद में ले लेती है कि कहीं इसे चोट न लग जावे, इसी प्रकार जब साधक प्रभु की तलाश में निकलता है—तो जगत पिता भी उसको अपनी वात्सल्यमयी गोद में खिलाने के लिये लालायित हो उठता है। अत्यन्त प्रीति से उसे अपनाना है और तभी मानव का जीवन सार्थक हो पाता है।
आज सारे संसार का सार जानने वाला स्वयं अपने निर्माता प्रभु का रूप नहीं जान पाया। उसकी प्राप्ति के बिना ही देव दुर्लभ मानव जीवन को समाप्त किये जा रहा है।