Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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आदर्श के अनुयायी
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आदर्श देशभक्ति। युद्ध के दिनों में एक समय जापान की भोजन-समस्या बहुत विकट हो गई थी। खाद्य सामग्री पर नियंत्रण था, हर व्यक्ति को नपातुला राशन मिलता था। फौज के रिटायर्ड अक्सर जनरल यामानुची यद्यपि बुड्ढ़े हो गये थे तो भी उसकी खुराक बहुत थी। जितनी सरकारी राशन मिलता था वह उनके लिये एक चौथाई भी न था। फिर भी राष्ट्रिय संकट के समय उनने इतने से ही चलाना उचित समझा और दिन-दिन भोजन के अभाव में दुर्बल होने लगे। जब उनकी कमजोरी बहुत बढ़ गई तो उनके मित्रों ने अधिक भोजन प्राप्त करने के लिये कई उपाय सुझाये। एक मित्र ने कहा-आप सरकार से प्रार्थना करें तो आपका राशन बढ़ सकता हैं। उनने उत्तर दिया, जब राष्ट्र के पास खाद्य सामग्री कम है तो में दूसरे उपयोगी नागरिकों के हिस्से में से अपने लिये अधिक लेकर उन्हें क्यों भूखा रखूँ ? मैं तो दो चार वर्ष में वैसे भी मर जाऊँगा पर उन लोगों का ग्राम क्यों छीनूँ जिन्हें अधिक जीना है और काम करना है। उनके अन्य मित्रों ने अपनी-अपनी खुराक में से थोड़ा-थोड़ा भाग उन्हें देने का प्रस्ताव रखा तो यह भी उसने अस्वीकार का दिया और अन्ततः वे कम-ड़ड़ड़ड़ कुछ ही दिनों में मर गये।
पहिले अपनी हानि तब दूसरों की
जर्मनी का जब पिछला युद्ध चल रहा था तब उधर से गुजरती हुई सेना को घोड़ों के लिये चारे की जरूरत पड़ी। सेनापति ने एक किसान को बुलाया और काहा -किसके खेत का चारा अच्छा है हमें बताओ वह किसान सेनापति को बहुत अच्छा चारा दिलाने के लिये काफी दूर ले गया और एक मामूली से चारे के खेत में खड़ा करके कहा-इस खेत का चारा बहुत अच्छा है। जितनी जरूरत हो इसमें से काटा जा सकता है। इस पर सेनापति ने कहा-यह खेत दूर भी बहुत है और चारा भी पीछे के खेतों से अच्छा नहीं है। फिर तुमने पीछे के खेतों को क्यों नहीं बताया और यहाँ इतनी दूर लाये ? किसान ने उत्तर दिया, यह मेरा खेत है। जब तक मेरा खेत मौजूद है तब तक दूसरों का नुकसान कराने का मुझे क्या अधिकार हैं। पहले मेरा खेत काटिए तब दूसरों के खेत में जाइए।
सद्भावना का कोप
एक बार फारस के राजा साइरस के यहाँ उससे बड़ा अपार धनवान् राजा क्रोसियस मिलने आया। उसकी राज्य व्यवस्था की क्रोसियस ने बड़ी प्रशंसा सुनी थी कि वहाँ की प्रजा बहुत सुखी और संतुष्ट है। क्रोसियस से घूम घूम कर सारी राज्य व्यवस्था देखी, प्रजा तो सुखी थी, पर राज्य कोप खाली था। क्रोसियस ने पूछा-प्रजा की भलाई में तो आपने इतना खर्च किया पर अपने लिये कुछ भी बचा कर न रखा। यदि अपने लिये भी बचाते तो बहुत धन आपके पास जमा होता। साइरस ने कहा-अब भी मेरे पास बहुत धन है उसे मैं दे दूँगा। दूसरे दिन साइरस ने नगर में घोषणा कराई कि मुझे एक आवश्यक कार्य के लिये धन की जरूरत है। प्रजा मुझे सहायता करे। घोषणा सुनते ही प्रजाजन उमड़ पड़े और जिसके पास जो कुछ था उसे लेकर राजा के सामने रखना शुरू कर दिया। देखते-देखते अपार धन जमा हो गया। क्रोसियस ने कहा-आपका कहना सर्वथा सत्य था। आपके पास राजकोष खाली होते हुए भी प्रजा की जो सद्भावना थी वह अपार धन राशि से कम मूल्य की नहीं है।
सैनिकों का आत्मत्याग
जापान और रूस में युद्ध चल रहा था। जापानी सैनिक एक किले पर हमला कर रहे थे। किले की खाई चौड़ी थी और पानी भरी हुई थी उसे कैसे पार किया जाय यह एक कठिन प्रश्न था। निदान एक उपाय सूझा कि सैनिक आगे बढ़ते हुए चले जावे ड़ड़ड़ड़ खाई में गिर कर उसे पीट दें। उनकी लाशों के ऊपर से पीछे के सिपाही निकलें और किले को फतह करें। यही किया गया और किला फतह हो गया।
आकर्षण से बचकर अध्ययन।
नेपोलियन जब उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अध्ययन में संलग्न था, तब पड़ोस की एक स्त्री उस पर बेतरह मुग्ध थी। वह उसे अपनी और आकर्षित करने के लिये तरह तरह की छेड़खानी करती। पर नैपोलियन टस से मस न हुआ, वह अपने अध्ययन में दत्तचित्त हो कर लगा रहा। बहुत दिन बाद जब नेपोलियन अपने देश का प्रधान सेनापति बन गया तब वह छुट्टियों में अपने पूर्व परिचितों से मिलने गया। वह उस स्त्री के यहाँ भी पहुँचा। उसने कहा-आपको याद होगा यहाँ इस कालेज में एक नेपोलियन नामक लड़का पढ़ा करता था। उस स्त्री ने बात काटते हुए कहा-हाँ-हाँ एक रूखा नीरस और किताबों का कीड़ा लड़का, उसकी मुझे याद है, ऐसे बेकार आदमी की मुझसे चर्चा भी मत कीजिए महोदय! नेपोलियन ने हँसकर कहा-देवि मैं ही वह नीरस किताबों का कीड़ा नेपोलियन हूँ। आज का प्रवीण सेनापति। यदि उन दिनों में रसिक रहा होता तो आह सेनापति बन सकना मेरे लिए संभव न होता।
शरणार्थी को क्षमादान।
स्पेन में एक किसान अपने बगीचे में काम कर रहा था कि एक व्यक्ति बुरी तरह हाँकता हुआ उधर दौड़ा आया। किसान से उसने छिपने की जगह माँगी और कहा-मेरे शत्रु मेरा पीछा कर रहें हैं वे मुझे मार ही डालेंगे। कृपया मुझे कहीं जल्दी ही छिपा दीजिए।’ किसान को दया आई, उसने एक कूड़े की कोठी में उसे छिपा दिया। थोड़ी देर में पीछा करने वाले लोग भी आ पहुँचे। उनने कहा-एक लुटेरे ने एक निर्दोष लड़के के जेवर लूटे और उसे मार डाला। हमने उसे देखा, लाश तो वहाँ पड़ी है ओर हम लोग उसे लुटेरे का पीछे कर रहें है। किसान की समझ में सब बात आगई पर वह उसे शरण दे चुका था इसलिये चुप रहा। थोड़ी देर में लाश पहचानी गई। वह उसी किसान के लड़के की थी। किसान ने अपने इकलौते बच्चे को दफनाया और अँधेरा होते ही उस डाकू से कहा- “अभागे, भाग यहाँ से। तूने मेरे ही लड़के को मारा। जा तुझसे बदला नहीं लेता।
राष्ट्रीय चरित्र
सन् 48 की बात है। लन्दन में एक बार राष्ट्र मण्डल के श्रम मंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने भारतीय मंत्रीमंडल के सदस्य चौ. जगजीवनराम गये। जब वे इंग्लैण्ड के श्रम मंत्री से मिले तो उन्होंने सिगरेट पेश की दोनों ने उसे पिया। यह सिगरेट उस कम्पनी की थी जो इंग्लैण्ड और भारत में एक ही नाम की सिगरेट बनाती है। दूसरे दिन मंत्री लोग फिर मिले तो इंग्लैण्ड के श्रममंत्री ने भी चौ. जगजीवनराम को सिगरेट पेश की। उसे भी पी लिया गया। पर कल की और आज की सिगरेट में बहुत अन्तर था। सिगरेट एक ही लेबल की और स्वाद में इतना अन्तर। भारत में बनी सिगरेट का तम्बाकू बहुत बढ़िया था जब कि इंग्लैण्ड में बनी का घटिया। इस पर चौधरी साहब को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने यह बात इंग्लैण्ड के श्रम मंत्री को भी कही। इस अन्तर को उन्होंने स्वीकार किया ओर बताया कि-युद्ध में हमारी तमाकू की खेती बुरी तरह नष्ट हो गई। अब हमारे यहाँ बढ़िया तमाकू बहुत कम पैदा होती हैं । इसलिये हम लोग बढ़िया तमाकू विदेशों को भेजते हैं ताकि वहाँ हमारी प्रतिष्ठा कायम रहे और घटिया पीकर हम लोग गुजारा करते हैं।
ईमानदार गरीब
सीलौन में एक जड़ी बूटी बेचकर गुजारा करने वाला व्यक्ति रहता था। नाम था उसका महताशैसा। उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। कई कई दिन भूखा रहना पड़ता। उनका माता चक्की पीसने की मजदूरी करती, बहिन फूल बेचती तब कहीं गुजारा हो पाता। ऐसी गरीबी में भी उनकी ड़ड़ड़ड सावधान थी। महता एक दिन एक बगीचे में जड़ी बूटी खोद रहे थे कि उन्हें कई घड़े भरी हुई अशर्फियाँ गढ़ी हुई दिखाई दीं। उनके मन में दूसरे की चीज पर जरा भी लालच न आया और मिट्टी से ज्यों का ज्यों ढक कर बगीचे के मालिक के पास पहुँचे ओर उसे अशर्फियाँ गढ़े होने की सूचना दी। बगीचे के मालिक लखेटा की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो चली थी। कर्जदार उसे तंग किया करते थे। इतना धन पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। सूचना देने वाले शसा का उसने चार सौ अशर्फियाँ पुरस्कार में देनी चाही। पर उसने उन्हें ड़ड़ड़ड़ दिया ओर कहा- इसमें पुरस्कार लेने जैसी कोई बात नहीं, मैंने तो अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है। बहुत दिन बाद लखेटा ने अपनी बहिन की शादी शैसा के साथ कर दी ओर दहेज में कुछ धन देना चाहा। शैसा ने वह भी न लिया ओर अपने हाथ पैर की मजदूरी करके दिन गुजारे।
राष्ट्र के लिये निजी स्वार्थों का त्याग
रूस में जब क्रान्ति होकर चुकी तो नव निर्माण के लिये मशीनों की जरूरत पड़ी। मशीनें विदेशों से खरीदनी थीं। इसके लिए बदले में रूसियों को अपने यहाँ का कच्चा माल देना था। उन दिनों पशु और उनसे उत्पन्न होने वाली चीजें ही रूस के पास थीं जो बाहर भेजी जा सकती थीं। निदान उस देशवासियों ने स्वयं उनके बिना काम चलाने और दूध, मक्खन, माँस, खल, ऊन आदि चीजें बाहर भेजने का निश्चय किया। वह सब बाहर भेजा गया और मशीनें आईं। दस साल तक रूसियों ने बिना इन चीजों के काम चलाया। रूस भोजन और मोटे कपड़े पर गुजारा किया। यह बड़ाई ड़ड़डड़़ प्रिंस क्रोपाटकिन को भी दूध उपलब्ध न हो सका।
अंग्रेजी सेना जुडेफन के मैदान में लड़ रही थीं। सेनापति फिलिप सिडनी की जाँघ में गोली लगी। वे घायल होकर गिर पड़े। प्यास से उनका गला सुख रहा था। पानी की बोतल निकाल कर वे पीने ही वाले थे कि पास में पड़े एक दूसरे सैनिक को देखा जो उन्हीं की तरह घायल पड़ा था और बहुत खून निकलने से मरणासन्न दशा का पहुँच गया था। देखने से मालूम पड़ता था कि प्यासा वह भी बहुत है। फिलिप ने खिसक कर अपने हाथ की बोतल उसके मुँह में उड़ेल दी और कहा-मेरी अपेक्षा पानी की तुम्हें आवश्यकता अधिक हैं।
सुकरात को जब विष पिलाने की तैयारी हो रही थी तब उसे अपने एक कर्जदार का स्मरण आया जिससे एक मुर्गा उसने उधार लिया था। उसने अपने उत्तराधिकारियों को कहा-उस कर्जदार का कर्ज जरूर चुका देना। मैं ऋणी होकर नहीं मरना चाहता।