Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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विवेकशीलता का महान अभियान
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हम आत्मकल्याण और युग निर्माण के दो महान उद्देश्यों को लेकर अग्रसर होते हैं। यद्यपि यह दो भिन्न बातें मालूम पड़ती हैं, पर वस्तुतः एक ही चीज के दो पहलू मात्र हैं। आत्मकल्याण का यदि हमें ध्यान न होगा, ईश्वर, आत्मा, परलोक, कर्मफल, धर्म एवं कर्त्तव्य के प्रति हमारी गहरी आस्था न होगी, तो बाह्य उन्नति के नाम पर हम देर तक सही मार्ग पर नहीं चल सकेंगे। पग−पग पर आने वाले आकर्षण, प्रलोभन एवं भय विचलित कर देंगे। पथभ्रष्ट हो जाने के लिए अनेकों कारण इस संसार में मौजूद हैं। उनसे बचना केवल आध्यात्मिक आधार पर ही संभव है।
आत्मा की अदम्य पिपासा
आत्मा की एकमात्र प्यास भी परमात्मा-सा बनने की है। वह अणु से विभु, लघु से महान, बिंदु से सिंधु बनने के लिए निरंतर व्याकुल रहती है। इस अशांति को मिटाना और जीवनोद्देश्य का पूरा होना भी आध्यात्मिक विचारधारा को अपनाने से ही संभव है। आत्मकल्याण के लिए हमें उपासना का मार्ग अपनाना पड़ेगा। स्वाध्याय, सत्संग, मनन और चिंतन द्वारा आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास का आधार ग्रहण करना होगा। अंतःकरण की पवित्रता और पुष्टि के लिए इस अवलंबन को मजबूती से पकड़े रहना आवश्यक है। इसके बिना लौकिक-प्रगति भी संभव नहीं। धर्म और नीति का आधार अध्यात्म है, उसे छोड़ देने पर चतुरता और कूटनीति ही मनुष्य के पल्ले पड़ती है। उससे तात्कालिक लाभ तो हो जाता है, पर अंत बहुत ही दुःखद होता है। व्यक्तिगत कमाई करने वाले अनीति और बेईमानी पर उतर आते हैं। सार्वजनिक काम करने वालों को भी मद, मोह एवं लोभ कम नहीं सताते।
संस्थाओं एवं लोकसेवकों में जो भारी फूट एवं अनैतिकता दीख पड़ रही है, उसका एकमात्र कारण उनकी आत्मिक दुर्बलता ही है, अन्यथा सेवा का व्रतधारण करने वाले लोग अपने लक्ष्य की महानता को भूलकर छोटे प्रलोभनों में इतनी बुरी तरह क्यों उलझते?
सुस्थिरता का एकमात्र अवलंबन
आध्यात्मिकता मानव जीवन की रीढ़ है। रीढ़ की हड्डी टूट जाए तो फिर जिंदगी बेकार हो जाती है। इसी प्रकार जिसमें आध्यात्मिक आस्था न रहेगी, वह व्यक्ति अन्य किसी आधार पर इस प्रलोभन भरी दुनियाँ में धर्मकर्त्तव्य पर टिका न रह सकेगा। वह गड़बड़ में पड़ेगा और गड़बड़ियाँ करेगा। सच्चाई, नीति और भलाई की नीति चिरकाल तक अपनाए रहना केवल उसी के लिए संभव हो सकता है, जो ईश्वर की सर्वज्ञता और न्यायशीलता पर विश्वास करता है। गांधीजी कहा करते थे— ‛प्रार्थना जीवन का ध्रुवतारा है।’ रात्रि के गहन अंधकार में ध्रुवतारे का अवलंबन छोड़ देने वाला भटकता ही फिरेगा। आज हमने आस्तिकता और उपासना का मार्ग छोड़ दिया है और सचमुच हम बुरी तरह बीहड़ बन में भटकते रहे हैं। भटकते−भटकते वहाँ आ पहुँचे हैं, जहाँ से सर्वनाश अत्यन्त समीप दीखने लगा है। हमें पीछे लौटना होगा। जीवन के ध्रुवतारे की ओर दृष्टि डालनी होगी। आस्तिकता और उपासना का जनजीवन में कोई स्थान होना ही चाहिए। ‘अखण्ड ज्योति’ का पहला कार्यक्रम यही है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति आस्तिक एवं उपासक बने, गायत्री आंदोलन के पीछे यही भावना सन्निहित है। भारतीय धर्म की सबसे प्राचीन, सबसे श्रेष्ठ, सबसे वैज्ञानिक, सबसे महत्त्वपूर्ण उपासना ‘गायत्री’ ही मानी गई है। ऋषियों और शास्त्रों ने जैसा कि इसे अत्याधिक आवश्यक एवं अनिवार्य माना है, वैसा ही हम भी मानते हैं और प्रत्येक विचारशील को इसे अपनाने के लिए प्रेरणा देते हैं।
संतुलित जीवन-व्यवस्था
पिछले अंक में बताया जा चुका है कि आस्तिकता एवं उपासना की प्रवृत्ति निर्बाध गति से अग्रसर हो सके, इसके लिए हमारे जीवन में शांति और सुव्यवस्था रहनी आवश्यक है। अशांत और अव्यवस्थित परिस्थितियों में आत्मिक उन्नति तो दूर सामान्य शरीरयात्रा एवं जिंदगी के दिन पूरे करने की प्रक्रिया भी कठिन हो जाती है; इसलिए जीवन के तीनों प्रमुख आधारों को ठीक रखने के लिए भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इसी प्रयत्न का नाम ‘युगनिर्माण योजना’ है। इसकी एक मोटी रूपरेखा गत अंक में पाठक पढ़ चुके हैं। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज का लक्ष्य जितना पूरा हो सकेगा, उतनी ही जीवन-व्यवस्था संतुलित होती जाएगी और उसी आधार पर आत्मिक प्रगति की संभावनाएँ बढ़ती जाएँगी। आत्मकल्याण और युग निर्माण दोनों बातें एकदूसरे से इतनी अधिक संबद्ध हैं कि एक की उपेक्षा करके दूसरे की उपलब्धि हो नहीं सकती; इसलिए प्रगति की गाड़ी को गतिशील रखने के लिए उस के दोनों पहियों पर ध्यान रखा जाना आवश्यक समझा गया है। दोनों ही कार्यक्रमों को लेकर हम आगे बढ़ते हैं।
सर्वतोमुखी प्रगति
युग निर्माण के तीन आधारों का महत्त्व भी ईश्वर का स्मरण, ध्यान, पूजन करने जैसा ही है। सच्ची उपासना से आत्मा में तुरंत बल, आनंद एवं प्रकाश का अनुभव होता है। उसी प्रकार स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य−समाज के लिए किया हुआ प्रयत्न भी हमारे व्यक्तिगत जीवन में सर्वतोमुखी प्रगति, शांति एवं महानता के अवसर प्रस्तुत करता है। सामूहिक रूप से— सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से तो उसका लाभ अनिर्वचनीय है। राष्ट्रीय और सामाजिक प्रगति का— विश्वमानव के सर्वतोमुखी आनंद का आधार भी इन तीन बातों पर ही पूर्णतया निर्भर रहता है। जहाँ इनके स्त्रोत सूखे, वहाँ प्रत्येक समाज दुर्बलता एवं दुर्दशा में डूबता जाता है। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा ही वर्त्तमान कुसमय का कारण है। इस ओर जितना हमारा ध्यान जाएगा, उतनी ही प्रगति का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगेगा।
अविवेक का अवरोध
जिस प्रकार आत्मकल्याण और युग निर्माण के दोनों कार्यक्रम परस्पर इतने संबद्ध हैं कि एक को छोड़कर दूसरे की उपलब्धि नहीं हो सकती, उसी प्रकार युग निर्माण के तीन आधार भी एकदूसरे से जुड़े हुए है। शरीर को रोगी, मन को मलीन और समाज को कुसंस्कारी होने का एक ही कारण है— ‛अविवेक’। यों हम स्कूली शिक्षा ऊँचे दर्जे तक प्राप्त किए रहते हैं और अपने ढंग की चतुरता भी खूब होती है, पर जीवन की मूलभूत समस्याओं को गहराई तक समझने में प्रायः असमर्थ ही रहते हैं। बाहरी बातों पर खूब बहस करते और सोचते-समझते हैं, पर जिस आधार पर हमारा जीवनोद्देश्य निर्भर है, उसकी ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं देते। इसी का नाम है— ‛अविवेक’। विचारशीलता का, विवेकशीलता का यदि अभाव न हो और गुण−दोष की दृष्टि से अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक समस्याओं पर सोचना-समझना आरंभ करें, तो प्रतीत होगा कि बुद्धिमत्ता का दावा करते हुए भी हम कितनी अधिक मूर्खता में ग्रसित हो रहें हैं। सीधी−सादी विचारधारा को अपनाकर मनुष्य अपनी सर्वतोमुखी सुख-शांति को सुरक्षित रख सकता था और इस पृथ्वी पर स्वर्ग का आनंद उपलब्ध कर सकता था, पर औंधी, टेढ़ी, अनुचित, अनुपयुक्त इच्छा-आकांक्षाएँ एवं आदतें अपनाकर उसने अपना सर्वनाश कर लिया।
अपनी गुत्थी आप सुलझावें
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। जिस प्रकार वह अनुपयुक्त विचारों एवं आदतों का गुलाम बनकर अपनी स्थिति दयनीय बनाता है, उसी प्रकार यदि वह चाहे तो विवेक को अपनाकर अपनी गतिविधियों को बदल एवं सुधार भी सकता है और उसके फलस्वरूप नरक के दृश्य को देखते−देखते स्वर्ग में परिणत कर सकता है। यह मानसिक परिवर्तन ही युगनिर्माण योजना का प्रधान आधार है। इसे मोटे रूप से ‘विचार-क्रांति’ भी कह सकते हैं। हमारे सामने अगणित कठिनाइयाँ, गुत्थियाँ, कमियाँ और परेशानियाँ आज उपस्थित हैं। उनका कारण एक ही है— ‛अविवेक’ और उनके समाधान का उपाय भी एक ही है— 'विवेक।, जिस प्रकार सूर्य का उदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जिस दिन हमारे अंतः करण में विवेक का उदय होगा, उस दिन न तो व्यक्तिगत कठिनाइयाँ रहेंगी और न सामूहिक समस्याएँ उलझी दिखाई देंगी। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में फँसी बैठी रहती है, पर जब उसके मन में तरंग आती है तो उस सारे जाले को निगलकर पूर्ण स्वतंत्रता भी अनुभव करने लगती है। हमारी सभी समस्याएँ और सभी कठिनाइयाँ हमारी स्वयं की बनाई हुई हैं, बुनी हुई हैं। इन्हें सुलझा देना बाँए हाथ का काम है। आज गाँठ खुल नहीं रही है, पर जब विवेक का दीपक जलेगा और रस्सी के मोड़−तोड़ साफ दीखने लगेंगे तो गाँठ खुलने में कितनी देर लगेगी?
आत्मनियंत्रण की आवश्यकता
असंयम को अपनाकर हमने अपना स्वास्थ्य खोया है। चटोरेपन और काम-वासना पर नियंत्रण करने का जिस दिन निश्चय कर लिया, उसी दिन बिगड़ी बनने लगेगी। आहार और विहार का संयम रखकर जब सृष्टि के एकोएक प्राणी गेंद की तरह उछलते-कूदते, निरोगिता और दीर्घजीवन का लाभ उठाते हैं तो हम क्यों न उठा सकेंगे? बंदरिया मरे बच्चे को जैसे छाती से चिपटाए फिरती है, उसी प्रकार असंयम की भुजाओं में कसकर हम भी अस्वस्थता को छाती से चिपटाए फिर रहे हैं। जहाँ यह कसकर पकड़ने की प्रक्रिया ढीली हुई नहीं कि अस्वस्थता और अकालमृत्यु से पीछा छूटा नहीं।
तुच्छ स्वार्थों की संकीर्णता ने हमारे मनःक्षेत्र को गंदा कर रखा है। उदार और विशाल दृष्टि से न सोचकर हर बात को हम अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति की दृष्टि से सोचते हैं, अपना लाभ ही हमें लाभ प्रतीत होता है। दूसरों का लाभ, दूसरों का हित, दूसरों का दृष्टिकोण, दूसरों का स्वार्थ भी यदि ध्यान में रखा जा सके, अपने स्वार्थ में दूसरों का स्वार्थ भी जोड़कर सोचा जा सके, अपने सुख-दुःख में दूसरों का सुख-दुःख भी सम्मिलित किया जा सके, तो निश्चय ही विशाल और उदार दृष्टिकोण हमें प्राप्त होगा और फिर उसके आधार पर जो कुछ सोचा या किया जाएगा, सब कुछ पुण्य और परमार्थ ही होगा। वासना और तृष्णा ने हमें अंधा बना दिया है, संयम और सेवा की रोशनी यदि अपनी आँखों में चमकने लगे तो पिछले क्षण तक जो सर्वत्र नरक जैसा अंधकार फैला दीखता था, वह स्वर्गीय प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। तुच्छता को महानता में, स्वार्थ को परमार्थ में, संकीर्णता को उदारता में परिणत करते ही मनुष्य तुच्छ प्राणी न रहकर महामानव बन जाता है— देवताओं की श्रेणी में जा पहुँचता है। मन स्फटिक मणि के समान स्वच्छ है। हमारा अविवेक ही उसे मलीन बनाए हुए हैं। दृष्टिकोण का परिवर्तन होते ही उसकी मलीनता दूर हो जाती है और स्वाभाविक स्वच्छता निखर पड़ती है। स्वच्छ मन वाला व्यक्ति आनंद की प्रतिमूर्ति ही तो है। वह अपने आपको तो हर घड़ी आनंद में सराबोर रखता ही है, उसके समीपवर्त्ती लोग भी चंदन के वृक्ष के समीप रहने वालों की तरह सुवासित होते रहते हैं। अपने मन का, अपने दृष्टिकोण का परिवर्तन भी क्या हमारे लिए कठिन है? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, पर आपको क्यों नहीं सुधारा जा सकेगा? विचारों की पूँजी का अभाव ही सारी मानसिक कठिनाइयों का कारण है। विवेकशीलता का अंतःकरण में प्रादुर्भाव होते ही कुविचार कहाँ टिकेंगे? और कुविचारों के हटते ही अपना पशु−जीवन देव−जीवन में परिवर्तित क्यों न हो जायेगा?
समाज सुधार का आधार
व्यक्तियों के समूह का नाम ही तो समाज है। हम सब अपने आपको सुधारें तो समाज का सुधार हुआ ही रखा है। कुछ मूढ़ताएँ, अंधपरंपराएँ, अनैतिकताएँ, संकीर्णताएँ, हमारे सामूहिक जीवन में प्रवेश पा गई हैं। दुर्बल मन से सोचने पर वे बड़ी कठिन, बड़ी दुस्तर, बड़ी गहरी जमी हुई दीखती हैं, पर वस्तुतः वे कागज के बने रावण की तरह डरावनी दीखते हुए भी भीतर-ही-भीतर खोखली हैं। हर विचारशील उनसे घृणा करता है, पर अपने को एकाकी अनुभव करके आस−पास घिरे लोगों की भावुकता से डरकर कुछ कर नहीं पाता। कठिनाई इतनी-सी है। इसे कुछ ही थोड़े-से विवेकशील लोग, यदि संगठित होकर उठ खड़े हों और जमकर विरोध करने लगें तो उन कुरीतियों को मामूली से संघर्ष के बाद चकनाचूर कर सकते हैं, तोड़-मरोड़कर फेंक सकते हैं। गोवा की जनता ने जिस प्रकार भारतीय फौजों का स्वागत किया, वैसा ही स्वागत इन कुरीतियों से सताई हुई जनता उनका करे, जो इन अंधपरंपराओं को तोड़−मरोड़कर रख देने के लिए कटिबद्ध सैनिकों की तरह मार्च करते हुए आगे बढ़ेंगे।
हत्यारा दहेज कागज के रावण की तरह बड़ा वीभत्स−नृशंस एवं डरावना लगता है। हर कोई भीतर-ही-भीतर उससे घृणा करता है, पर पास जाने से डरता है। कुछ साहसी लोग उसमें पलीता लगाने को दौड़ पड़ें तो उसका जड़-मूल से उन्मूलन होने में देर न लगेगी। दासप्रथा, देवदासी प्रथा, वेश्या नृत्य, बहुविवाह, जन्मते ही कन्यावध, भूत पूजा, पशुबलि आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ किसी समय बड़ी प्रबल लगती थीं, अब देखते−देखते उनका नाम-निशान मिटता चला जा रहा है। आज जो कुरीतियाँ, अनैतिकताएँ एवं संकीर्णताएँ मजबूती से जड़ जमाए दीखती हैं, विवेकशीलों के संगठित प्रतिरोध के सामने देर तक न ठहर सकेंगी। बालू की दीवार की तरह वे एक ही धक्के में भरभरा का गिर पड़ेंगी। विचारों की क्रांति का एक ही तूफान इस तिनकों के ढेर को उड़ाकर बात की बात में छितरा देगा। जिस नए समाज की रचना आज स्वप्न-सी लगती है, विचारशीलता के जाग्रत होते ही वह मूर्तिमान होकर सामने खड़ी दीखेगी।
विचार-क्रान्ति का सुसंबद्ध प्रयास
यों अखण्ड ज्योति का अब तक का सारा जीवन ही धर्म और अध्यात्म की विचारधारा प्रवाहित करने में व्यतीत हुआ है, पर अब इस वसंत पंचमी से— अष्टग्रही योग के पुण्यपर्व के साथ उसका विचार-क्रांति अभियान, पूर्ण तत्परता एवं सुव्यवस्थित योजना के साथ आरंभ होता है। युग निर्माण के लिए हमें पहले जनमानस को बदलना होगा, कार्यों में परिवर्तन तो उसके बाद ही संभव होगा। जैसे−जैसे हमारी विचारधारा प्रबुद्ध होगी, विवेकशीलता जगेगी, वैसे ही वैसे अनुपयुक्त को त्याग और उपयुक्त को ग्रहण करने की प्रवृत्ति सक्रिय होती जाएगी। अब आस्तिकता और धार्मिकता की, संयम और सेवा की, प्रेम और पवित्रता की, विवेकशीलता और दूरदर्शिता की भावनाएँ हमें जनमानस में सजीव करनी हैं, आत्मकल्याण और युग निर्माण का लक्ष्य तभी तो पूरा होगा।