Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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परिवार भी हमारा एक शरीर ही है
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शारीरिक समस्या के बाद पारिवारिक एवं आर्थिक समस्याओं का नम्बर आता है। परिवार भी एक प्रकार का सामाजिक शरीर ही है। मनुष्य अपनी देह तक ही सीमित नहीं रहता, वरन् उसे अपनी स्त्री, बच्चे, भाई बहिन, माता−पिता आदि को मिलाकर एक कुटुम्ब बनाना पड़ता है। एक घर में एक साथ रहने वाला कुटुम्ब भी एक प्रकार से एक शरीर ही होता है। जिस प्रकार अपनी देह के पालन−पोषण की, दुख−सुख की चिन्ता करनी पड़ती है वैसे ही परिवार के प्रत्येक सदस्य के बारे में हमें सोचना समझना और विचार करना पड़ता है। उनका उत्तरदायित्व सिर पर लेना पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से भी अपनी देह की ही भाँति उन सबका भरण पोषण करना स्वस्थ एवं प्रसन्न रखना, प्रगतिशील बनाना आवश्यक होता है। घर के लोगों का सुखी या दुखी होना, अच्छा या बुरा होना अपने शरीर के किसी अंश का पीड़ित या प्रसन्न रहना है।
परिवार की सुव्यवस्था
हर कोई चाहता है कि उसका परिवार उसकी इच्छानुकूल अच्छे स्वभाव का, अच्छे गुण और चरित्र का हो। पड़ौस का कोई परिवार दुखी, अस्त−व्यस्त या क्लेश−कलह में डूबा हुआ हो तो लोग उसका उपहास करते हुए मजा ले सकते हैं, पर अपने परिवार का एक भी सदस्य यदि बुरे स्वभाव का दिखाई देता है या न करने योग्य काम करता है तो उसका सीधा प्रभाव अपनी आर्थिक स्थिति पर, प्रतिष्ठा पर, संगठन एवं व्यवस्था पर पड़ता है। इस गड़बड़ी से अपने को वैसा ही कष्ट होता है जैसा शरीर के किसी अंग के ठीक तरह काम न करने पर होता है इसलिए हर किसी की आकाँक्षा यह रहती है कि परिवार की भीतरी व्यवस्था क्रिया, प्रेम, सचाई, सेवा, सद्गुण, पुरुषार्थ, मितव्ययिता के आधार पर चले। घर का कोई सदस्य बाहर वालों को धोखा देकर कमाई कर लावे, चोरी चालाकी करे, झूठ बोले ठगे इसे तो प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लिया जाता है पर घर के भीतर परिवार के सदस्य एक दूसरे के प्रति ऐसा ही व्यवहार करने लगें तो अव्यवस्था और क्लेश का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। कोई यह नहीं चाहता कि मेरी स्त्री व्यभिचारिणी बने और मेरा पुत्र घर में चोरी करके ले जाया करे, बच्चे आपस में लड़ा करें, एक भाई दूसरे भाई से सहानुभूति न रखे। कारण स्पष्ट है कि मानव स्वभाव के दुर्गुण निश्चित रूप से कष्टकारक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं।
दुर्गुणों का विशाल क्षेत्र
जो दुर्गुण घर के भीतर किसी सदस्य में प्रवेश पाकर घर की सारी व्यवस्था को अस्त−व्यस्त कर देते हैं, वे ही दुर्गुण समाज के व्यापक क्षेत्र में अशान्ति उत्पन्न करते हैं। यदि आपके घर का कोई सदस्य बाजार से सौदा मँगाने पर उसमें से पैसे बचा लेता है, गलत हिसाब बता देता है तो उसका प्रभाव घर की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है और व्यक्ति घर के अन्य लोगों का अविश्वासी बन जाता है एवं बड़ा आर्थिक उत्तरदायित्व सौंपे जाने के अयोग्य माना जाता है। यही बात जब बढ़ती है तो वह पैसे चुराने वाला लड़का बड़े होने पर यदि व्यापारी बनता है तो अपने साझी से चोरी करता है, ग्राहकों को कम नापता−तोलता है, अथवा यदि नौकर है तो रिश्वतखोरी, समय की चोरी आदि बुराइयाँ पैदा करता है। ऐसे दुश्चरित्र लोगों की बात आखिर खुलती ही है। लोगों की आँखों में वह घृणा−पात्र बनता चला जाता है, अविश्वासी बनता है और फिर उसे सच्चे मन से प्यार करने वाला कोई नहीं रह जाता। शिष्टाचारवश उससे मीठी बातें लोग कर सकते हैं पर जब भी सच्ची सहायता का वक्त आता है तब सभी मुँह छिपा जाते हैं। भीतर दबी हुई ऐसे समय में आमतौर से असहयोग के रूप में प्रकट होती हैं। कभी तो उसके मित्र ही उसके प्रति दबी हुई घृणा का अप्रत्यक्ष प्रतिरोध करते हैं और मुसीबत के समय सहायता करने की अपेक्षा अनुकूल अवसर आया जान कर चोट भी करते हैं।
दूसरों के दुर्व्यवहार का कारण
जिस पर मित्रों ने कुसमय में चोट की है वह समझता है मेरे साथ दुर्व्यवहार किया गया, अनीति बरती गई, मित्र शत्रु बन गये। पर सच बात यह है कि वे उसके मित्र थे ही नहीं, केवल ऊपरी शिष्टाचार बरतने वाले चापलूस लोग थे जो परीक्षा के समय असली रूप में प्रकट हो गये। सच बात यह है कि किसी बेईमान का कोई सच्चा मित्र नहीं होता। स्वार्थ, लाभ या मजबूरी जब तक एक रस्सी में बाँधे रहती है तब तक लोग बेईमान के साथ बँधे रहते हैं और जब भी अवसर मिलता है तब रस्सी तोड़कर भागते हैं। चोर भी नहीं चाहते कि उसका साथी चोरी के माल में हिस्सा बाँटते समय चोरी बेईमानी करे। डाकू भी यह नहीं चाहते कि उनके साथी उन्हीं के घर पर डाका मारें। व्यभिचारी व्यक्ति इस कुकर्म में अपने दिन−रात साथ रहने वाले लोगों से भी यह आशा नहीं करते कि वे उसी की बहिन, बेटी या पत्नी को कुमार्गगामी बनावें। जब कभी इसमें व्यक्तिक्रम होता है तभी मित्रता शत्रुता में बदल जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि ईमानदारी ही एकमात्र ऐसा तत्व है जिसके ऊपर मित्रता टिकी रह सकती है, सहानुभूति उपलब्ध होती रह सकती है और समय पर दूसरे लोग उस श्रद्धा से प्रेरित होकर बड़ी से बड़ी सहायता कर सकते हैं। यह स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति यदि इस संसार में बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं तो उसका सर्वोपरि कारण उसके मित्रों की सहायता से ही हुआ है। जिसे यह नहीं मिल सकी वह कितनी ही बड़ी योग्यता या क्षमता सम्पन्न क्यों न रहा है कभी कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं कर सका है। झूठे और चोर प्रकृति के मनुष्य कभी−कभी कुछ सफलता प्राप्त कर तो लेते हैं पर वह होती बहुत ही क्षणिक एवं स्वल्प है। जैसे−जैसे लोग उससे सावधान होते जाते हैं, बचने की कोशिश करते हैं वैसे ही वैसे उसकी सफलता का क्षेत्र सिकुड़ता चला जाता है। और अन्ततः उसके असफलता एवं दुर्गति ही हाथ रह जाती है।
अपनी ही दुर्गति के निमित्त कारण
कोई यह न चाहेगा कि उसका लड़का इस प्रकार लोगों का घृणास्पद, मित्र−हीन एवं अन्ततः दुर्गति का अधिकारी बनें। पर अपने बच्चे का भविष्य अन्धकारमय बनाने की प्रक्रिया हम उसी दिन से चालू कर देते हैं जिस दिन कि बाजार से साग भाजी खरीदने में पैसे बचाने की भद्दी आदत को हम उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं और उसे एक हलकी−सी बात मानते हैं। बचपन में यह आदत दो−चार पैसों से शुरू होती है पीछे स्कूल जाते समय वह कापी, किताब के नाम पर बैठती है और अन्ततः जेवर-रुपये चुराने या लड़−झगड़ कर आवश्यकता से अधिक पैसे ले लेने की बात तक जा पहुँचती है। अपव्यय करने की आदत आरंभ में छोटी होती है। बच्चे दो−चार आना पाकर उसकी बेकार चीजें खरीदते है पीछे उन्हें शौक-मौज की चीजें खरीदना अच्छा लगने लगता है चाहे वह बेकार ही क्यों न हों। कई अच्छी आमदनी के लोग भी सदा कर्जदार और आर्थिक तंगी में बने रहते हैं क्योंकि उन्हें अनावश्यक खर्च करने की, फिजूलखर्ची की बुरी लत लगी होती है यह लत उनने बचपन में उस समय सीखी होती है जब घर से उन्हें खर्च करने के लिए किसी प्रकार पैसे मिल जाते थे और पैसे का मूल्य उनकी दृष्टि में तुच्छ प्रतीत होता था। यदि उन्हें आरंभ में ही यह समझा दिया गया होता कि पैसा कितने कठोर श्रम से कमाया जाता है और उसके सदुपयोग-दुरुपयोग के परिणामों में क्या अन्तर है तो सम्भवतः बच्चा अपव्यय की बुरी आदतों से बच जाता और उसे कर्जदारी, आर्थिक तंगी से ग्रसित एवं इसी के लिए चोरी, बेईमानी करने के लिए विवश न होना पड़ता।
उज्ज्वल भविष्य की योजना
हम अपने भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं। अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की योजना बनाते रहते है पर वह योजना तब तक अधूरी ही है जब तक कि हम अपने सारे परिवार के भविष्य को उज्ज्वल बनाने की बात न सोचें। क्योंकि अकेले अपनी उन्नति होती रहने पर भी पिछड़े हुए कुटुम्बी त्रासदायक ही बने रहते हैं। कोई व्यक्ति कितनी ही आर्थिक, पद, सत्ता या विद्या, बुद्धि के क्षेत्र में उन्नति क्यों न कर ले जब तक उसका परिवार भी उन्नति के क्षेत्र में कदम-कदम बढ़ाकर न चलेगा तब तक प्रगति सर्वथा अधूरी ही रहेगी। स्त्री-बच्चे चाहे कितने ही छोटे या कम महत्व के क्यों न दीखते हों वे अपने जीवन के एक अंग होने के कारण निरन्तर हमारी मानसिक शान्ति या अशान्ति के कारण बने रहेंगे। इसलिए उनकी ओर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए जितना कि हम अपने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में रख सकते हैं।
आमतौर से लोग अपने स्त्री-बच्चों को प्रसन्न रखने या उन्नतिशील बनाने के सम्बन्ध में इतना ही सोच पाते हैं कि समुचित आर्थिक प्रबन्ध हो जाये तो उनकी प्रगति एवं सन्तुष्टि के लिए पर्याप्त है। बच्चों की फीस, पढ़ाई, कपड़ा, जेब-खर्च आदि का प्रबन्ध होता रहे तो बस बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। इसी प्रकार धर्मपत्नी के बारे में सोचते हैं कि यदि उन्हें जेवर, कपड़ा, नौकर, आराम आदि का समुचित प्रबन्ध मिल जाय तो फिर उनके सुखी रहने का पर्याप्त साधन बन जायेगा। इस प्रकार की मान्यता सब प्रकार अधूरी एवं निरर्थक है। किसी भी मनुष्य की प्रसन्नता एवं प्रगति उसे प्राप्त होने वाली भौतिक सुविधाओं एवं वस्तुओं पर निर्भर नहीं वरन् उसके गुण, कर्म और स्वभाव पर निर्भर है।
गरीबी अभिशाप नहीं
गरीबी में भी कई परिवार स्वर्ग का आनंद उठाते है और कई के यहाँ प्रचुर लक्ष्मी होते हुए भी नरक का वातावरण बना रहता है। कितने ही लोग गरीब घर में जन्म लेकर प्रगति के पथ पर अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचे हैं। इसके विपरीत कितने ही व्यक्ति अमीरों में पाले−पोसे और सब कुछ प्राप्त होने पर भी पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार की प्रचुर सम्पदा को गँवा बैठे हैं। उन्नति के सब साधन मिलने पर भी आगे बढ़ना तो दूर उलटे अवनति के गर्त में गिरे हैं। इसलिए यह सोचना भूल है कि आर्थिक प्रबंध ठीक होने पर सारा प्रबंध सुखी एवं सन्तुष्ट रह सकता है। तथ्य यह है कि शान्ति, प्रगति और समृद्धि मनुष्यों के स्वभाव पर निर्भर रहती है। दृष्टिकोण के गलत या सही होने के कारण ही द्वेष बढ़ता है या प्रेम पनपता है। अच्छी आदतें जहाँ होती है वहाँ पराये अपने बन जाते हैं। परायों को अपना बना लेने के सद्गुण जिनके पास हैं सचमुच इस संसार में वे ही अमीर हैं वे जहाँ कही भी रहेंगे वहीं उनके मित्र और सहयोगी पर्याप्त मात्रा में पैदा होने और बढ़ने लगेंगे। गुलाब की खुशबू अपने चारों ओर भौंरे और मधुमक्खी जमा कर लेती है। अच्छी आदतें मनुष्य रूपी फूल में खुशबू का काम करती है उनके कारण दूसरे असंख्य लोग मधुमक्खी और भौंरे के रूप में सहायक एवं प्रशंसक बनकर मंडराने लगते हैं। इसके विपरीत बुरी आदतें वह दुर्गन्ध है जिनसे हर किसी की नाक फूटती है और हर कोई वहाँ से दूर भागना चाहता है।
क्या अर्थ व्यवस्था ही पर्याप्त है?
हम यदि सचमुच ही अपने परिवार को सुखी बनाना चाहते हैं तो उनकी आर्थिक व्यवस्था ठीक रखने तक की ही बात सोचकर सन्तोष न कर लें वरन् उनके स्वभाव को अच्छाई की दिशा में ढालने का प्रयत्न भी उतनी ही तत्परता से करें जितना कि आर्थिक सुविधा जुटाने के लिए करते हैं। माना कि आर्थिक सुविधा के बिना प्रगति रुक जाती है और असुविधा एवं असन्तोष का जन्म होता है, माना कि हममें से हर एक को अपना आर्थिक संतुलन ठीक बनाये रखने के लिए शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए पर यह भी मान लेने की ही बात है कि इतने मात्र से किसी का जीवन न तो प्रगतिशील बन सकता है। आदतें यों देखने में बहुत ही छोटी वस्तुऐं दिखाई पड़ती है कई बार तो उनका कुछ मूल्य और महत्व भी समझ में नहीं आता पर सच बात यही है कि उन्हीं के ऊपर जीवन की सारी आधारशिला रखी होती है। छोटा सा बीज ही अनुकूल परिस्थितियों में पाले−पोसे जाने पर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है। छोटी−छोटी आदतें ही मनुष्य के जीवन का विकास या विनाश का एकमात्र आधार होती हैं। विष वृक्ष और अमरफल के जैसे परस्पर विरोधी गुण हैं वैसे ही प्रतिफल बुरी और अच्छी आदतों के होते हैं। यदि हमें अपने परिवार को सुखी और समुन्नत बनाना हो तो अपने प्रत्येक परिजन में अच्छी आदतें उत्पन्न करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करना चाहिये।
आरम्भ छोटा अन्त बड़ा
जिस प्रकार साग खरीदकर लाते समय बच्चे को पैसे बचा लेने की आदत आगे बढ़कर उसे चोर, बेईमान, मित्रहीन, बन्दीग्रहवासी एवं दुर्गतिग्रस्त बना सकती है उसी प्रकार अन्य बुरी आदतें भी उनके पतन का कारण बन सकती हैं। आलस्य, आवेश, उद्दंडता, कटुभाषण, अशिष्टता, शौकीनी, मटरगस्ती, सिनेमाबाजी, बुरी संगति, फिजूलखर्ची, फैशन−परस्ती, चटोरापन, बहानेबाजी, समय का दुरुपयोग आदि−आदि दुर्गुणों के विषवृक्ष धीरे−धीरे बढ़ते रहने पर एक दिन ऐसे भयानक प्रतिफल उत्पन्न कर सकते हैं जिनके कारण जीवन में सफलता, दुर्दशा, पीड़ा और पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही न दे। यदि कोई पिता अपने स्त्री, बच्चे के लिए आर्थिक सुविधाऐं तो जुटाता है पर उनकी अच्छी आदतों को बढ़ाने एवं बुरी आदतों को हटाने के लिए प्रयत्न नहीं करता तो उसका परिवार कभी भी शान्तिपूर्ण परिस्थितियों में नहीं रह सकता। जिसके घर में क्लेश रहेगा, अनुपयुक्त घटनाऐं और परिस्थितियाँ बनी रहेंगी वहाँ शान्ति कहाँ रहेगी और जहाँ शान्ति नहीं वहाँ समृद्धि का अर्थ ही क्या रह जाता है?
शरीर की उपेक्षा करने वाले को रोगग्रस्त होकर पछताना पड़ जाता है। अकाल मृत्यु में मरते समय उसे अपनी भूलों पर भारी दुःख होता है। देह का विकसित रूप ही परिवार है। कर्तव्य, उत्तरदायित्व, आवश्यकता, व्यवस्था और स्नेह के स्वाभाविक बन्धनों ने परिवार को मनुष्य के साथ ईश्वर ने इतनी मजबूती से बाँध दिया है कि उससे छुटकारा मिल सकना कठिन है। देह के सभी अंग−प्रत्यंगों को जिस प्रकार हमें अपने साथ ही रखना और सँभालना होता है उसी प्रकार परिवार के सदस्यों को भी साथ लेकर चलना होता है। साथियों का सज्जन होना ही स्वर्ग और दुर्जन होना ही नरक माना जाता है। यदि अपने परिजनों की दुर्जनता छुटाने और सज्जनता बनाने में हम सफल न तो हो सकें तो इसका दण्ड हमारी आत्मा हर घड़ी जलन, कुढ़न, खेद, पश्चाताप आदि के रूप में हमें देती रहेगी और एक प्रकार से नरक की आग में हम सदा जलते रहेंगे।
एक राष्ट्रीय अपराध
परिवार के सदस्यों को दुर्गुणी बनने देना समाज एवं राष्ट्र के साथ अपराध करने के समान है। समाज में अगणित चोर, डाकू, बेईमान, व्यभिचारी भरे पड़े हैं, इन कलाओं को सीखने का कोई विधिवत विद्यालय कहीं खुला नहीं है। हमारे ही बच्चे चुपके−चुपके यहाँ से सब कुछ सीखते हैं और यहीं से प्राप्त हुई आदतें उन भयंकर अपराधों का रूप धारण कर लेती हैं। शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है। बेचारा अध्यापक गणित, भूगोल, इतिहास आदि को ही पढ़ा सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव को उत्तम बनाने की दीक्षा देने का उत्तरदायित्व घर वालों पर है, माता−पिता पर है। जिन माता−पिता ने जाने या अनजाने में बुरी आदतें सिखाकर अपने बालकों को एक दुष्ट नागरिक के रूप में राष्ट्र के सामने उपस्थित किया उसने सचमुच समाज की एक बड़ी कुसेवा की है। बच्चों का भविष्य बनाने एवं अपने लिए जीवन भर कुढ़न का सरंजाम जमा कर लेने का उत्तरदायित्व भी उनका ही मानना पड़ेगा।
हमारा पूर्ण शरीर परिवार के सभी सदस्यों से मिलकर बना है। इसे स्वस्थ रखना भी हमारा कर्तव्य है। जिस प्रकार अनुपयुक्त विचारों से हमारी देह रोगग्रस्त होती है उसी प्रकार अपने कर्तव्य को भुला देने से, परिवार के प्रति अपना दृष्टिकोण सही न रखने से हमारा यह कुटुम्ब, शरीर रोगग्रस्त होता है पारिवारिक स्वास्थ्य का सुधार भी शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने की तरह पूर्णतया संभव है पर इसके लिए हमें अपने को ही सुधारना पड़ेगा। अपने को सुधारने से दूसरे स्वतः ही सुधरने लगते हैं।