Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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आर्थिक परिस्थितियाँ और उनका सुधार
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जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य और पारिवारिक सुसंबंध का प्रधान आधार मानसिक सन्तुलन ठीक रहना है उसी प्रकार जीवन की तीसरी आवश्यकता अर्थ व्यवस्था का ठीक रहना या बिगड़ जाना बहुत कुछ हमारी मनोदशा पर निर्भर रहता है। आज अधिकाँश लोग आर्थिक तंगी का अनुभव करते हैं। जिनकी आजीविका कम है उनको कठिनाई अनुभव करना तो स्वाभाविक ही है, पर जो लोग काफी उपार्जन करते हैं वे भी जब परेशान दिखते हैं तब उसका कारण उनकी खर्च करने संबंधी नीति में भूल होना ही होता है।
आजीविका बढ़ाने के लिए जहाँ शिक्षा, पूँजी, एवं परिस्थिति कारण होती हैं वहाँ मनुष्य का व्यक्तित्व भी बहुत कुछ काम करता है। चाहे नौकरी हो चाहे व्यापार या कृषि सभी कार्यों में उन्नति के लिए प्रभावशाली एवं सुगठित व्यक्तित्व की आवश्यकता रहती है। अकेला मनुष्य केवल अपने बलबूते पर कुछ भी नहीं कर सकता। चिड़ियाँ और पशु−पक्षी जन्म के बहुत थोड़े समय बाद ही अपने बलबूते पर अपना जीवन क्रम स्वयं चलाने लगते हैं उन्हें किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती। पर मनुष्य के लिए यह बात जीवन भर सम्भव नहीं। उसे पग−पग पर दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है। जिसे दूसरों का जितना अधिक सहयोग मिल जाता है वह उतना ही उन्नति कर सकने में सफल होता है।
विरोध और असहयोग
नौकरी करने वाले के साथी या सहायक यदि विरोधी न रह कर सहयोगी रहें और मालिक की आँखों में उसकी अच्छाई जम जावे तो ही उसकी उन्नति हो सकना संभव है। जिसके साथी हर घड़ी लड़ते रहते हैं, नुकसान पहुँचाते और शिकायत करने पर तुले रहते हैं, जिसके अफसर असंतुष्ट रहते हैं उसकी अधिक उन्नति कैसे हो सकेगी? जिस व्यापारी के ग्राहक उसके यहाँ से असंतुष्ट होकर जाते हैं, वे स्वयं तो दुबारा उसके यहाँ आते ही नहीं अपने प्रभाव के दूसरों लोगों को भी उसकी बुराई करके बरगला देते हैं। जिसके यहाँ ग्राहक घटेंगे उसकी आमदनी कैसे न घटेगी? जिस किसान के पड़ौसी असंतुष्ट हैं वे यदि सीधा नुकसान न पहुँचावें तो भी चिड़ियों या जानवरों द्वारा जब किसी प्रकार उसका नुकसान हो रहा होगा तो उसे रोकने में उपेक्षा बरतेंगे। मजदूरों की आजकल कमी है जो वे पहले भले स्वभाव वाले के यहाँ काम करने के लिए जाना चाहते हैं। नहर के पानी से लेकर सहकारी बैंकों तक के कार्य में बुरे स्वभाव के व्यक्ति को सदा पीछे रहना और असहयोग का सामना करना पड़ता है।
व्यक्तित्व का आकर्षण
यह एक तथ्य है कि जिसके सहयोगी समर्थक एवं प्रशंसक अधिक होते हैं उसे ही आर्थिक क्षेत्र में भी सफलता मिलती है। जिसके प्रति द्वेष, विरोध एवं निन्दा का वातावरण फैला रहेगा वह दिन−दिन अधिक अकेला पड़ता जायेगा और उपेक्षा, असहयोग एवं तिरस्कार का मानसिक आघात सहते रहने के साथ−साथ अपना आर्थिक सन्तुलन भी खोता चला जायेगा। आमदनी बढ़ाने के लिए जहाँ ऊँची शिक्षा, अनुभव, विशेषज्ञता, पूँजी, स्वास्थ्य एवं परिस्थितियों की आवश्यकता है वहाँ यह भी नितान्त आवश्यक है कि मनुष्य का व्यक्तित्व आकर्षक, प्रभावशाली एवं मधुर हो। अन्य बातें प्राप्त करने में कारणवश कुछ कठिनाई भी हो सकती है पर अपने स्वभाव को बदल कर हम समस्या का बहुत बढ़ा अंश बड़ी आसानी से हल कर सकते हैं। जिसे सहयोगी बढ़ाने की विद्या का ज्ञान है उसे पूँजी, ज्ञान एवं अनुकूलता प्राप्त करने में भी ज्यादा देर नहीं लगती।
मानवीय सदाशयता का लाभ
मानत जाति में से उदारता और भलमनसाहत का लोप अभी नहीं हुआ है। माना कि सज्जनता घट रही है, स्वार्थ बढ़ रहा है और लोग एक दूसरे के सहायक न होकर ईर्ष्या और शत्रुता का परिचय देने में अग्रणी रहते हैं, इतना होने पर भी अभी इस संसार में मानवता बहुत कुछ बाकी है। और उसका लाभ उन लोगों को सदा मिलता ही रहेगा जो इसके अधिकारी हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम उनके स्वभाव को ऐसा ढाले जिससे दूसरों की सहानुभूति अनायास ही उपलब्ध हो सके। चालाक आदमी लच्छेदार बातें बनाकर एक बार किसी को ठग सकते हैं पर बार-बार ऐसा कर सकना उसके लिए कदापि संभव न होगा। मनुष्य में भले−बुरे की परख करने का विवेक मौजूद है और वह बदमाशों तथा बदमाशियों को देर तक पनपने नहीं दे सकता। चालाकी और बेईमानी से कमाई हो सकती है यह बात उतनी ही देर के लिए ठीक है जब तक कि भंडाफोड़ नहीं हो जाता और यह एक सनातन सत्य है कि बुराई या भलाई देर तक छिपी नहीं रह सकती। भलाई का विस्तार मंदगति से होता है पर बुराई तो अत्यन्त द्रुतगति से आकाश−पाताल तक जा पहुँचती है। इसलिए आमतौर से चालाकी और बेईमानी के आधार पर चलने वाले काम कुछ ही दिन में नष्ट हो जाते हैं। उपभोक्ता और सहकर्मी ही उनके सबसे बड़े शत्रु बन जाते हैं।
अनीति की कमाई
चोर और बेईमान, दुष्ट और दुर्गुणी व्यक्ति घात लगाकर कभी कुछ कमाई कर लें तो भी वह देर तक ठहरती नहीं। पहले तो उपार्जनकर्ता के दुर्गुण ही उस कमाई को स्वाहा कर देते हैं यदि उससे भी बची रहे तो दैवी प्रकोप की तरह बीमारी, राजदण्ड, चोरी, फिजूलखर्ची आदि में उसका अन्त होता है। दुर्गुणी अन्ततः निर्धन होकर ही रहता है। चालाकों में से अधिकाँश को उपेक्षित एवं तिरस्कृत जीवन बिताना पड़ता है। ऐसे लोग दूसरे के लिए भय, संदेह और आशंका के कारण ही बने रहते हैं उन्हें सहयोग से अभाव में चारों ओर असफलता का ही मुँह देखना पड़ता है। ऐसे लोगों की आर्थिक उन्नति कैसे संभव होगी? उन्हें अपने निम्न स्वभाव के कारण निम्न परिस्थितियों में ही पड़ा रहना पड़ेगा। उन्नतिशील व्यक्ति इस संसार में बहुत हुए हैं पर वे सभी उदार मन और दूरदर्शी रहे हैं। जिनका अन्तःकरण विशाल है उन्हीं के प्रति लोगों की सद्भावना एकत्रित होती है और केवल वे ही अनुपयुक्त परिस्थितियों को परास्त करते हुए स्थायी प्रगति की ओर अग्रसर होते है। कुछ दिन के लिए अस्थाई लाभ उचक्के लोग भी दूसरों को धोखे में डाल कर प्राप्त कर सकते हैं पर यह स्मरण रखने की बात है कि उसमें कभी स्थायित्व न होगा, ऐसी उन्नति देर तक ठहर न सकेगी।
अच्छाइयाँ ही लाभकर हैं
जिन्होंने छोटी स्थिति से ऊँचे उठ कर कोई बड़ी और स्थायी सफलता प्राप्त की है उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी आदतों और अच्छाइयों की मात्रा अधिक न रही हो। चोर और ठगों में भी कुछ अच्छाइयाँ होती है वे बहुत सतर्क, एकाग्र बुद्धि, मधुर भाषी, स्फूर्तिवान एवं साहसी होते हैं। इस प्रकार के सद्गुणों के आधार पर ही वे अपनी बुराई को देर तक छिपाये रह सकते हैं। यदि इस प्रकार का एक भी सद्गुण उनमें न हो तो उनकी बुरी, ठगी को एक कदम भी सफलता नहीं मिल सकती। चोरों की सफलता का श्रेय उनकी दुष्प्रवृत्तियों से नहीं वरन् उन सत्प्रवृत्तियों को दिया जायेगा जो कुछ समय के लिए ही सही अपने आवरण में बदमाशी को छिपा लेती है। जब चोर इन सद्गुणों का थोड़ा और दिखावटी प्रयोग करके इतना लाभ उठा लेते है तो जिनके मन में वस्तुतः उनकी जड़ जमी हुई है वे कितना लाभ उठा सकेंगे?
संसार में जितने भी बड़े व्यापार चल रहे हैं उनमें सच्चाई और सदाशयता का बहुत बड़ा अंश मिला हुआ है। भले ही वे लोग अपना काफी नफा निकालते हों पर ग्राहक के हित का पूरा−पूरा ध्यान रखते हैं। बढ़िया किस्म की घड़ियाँ, साइकिलें, मोटरें, साबुन, दवाएँ कपड़े आदि बनाने वाले कारखाने आज भी अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाते हुए अधिकाधिक उन्नति करते चले जाते हैं। इसके विपरीत जिनने नकली, अनुपयोगी, रद्दी−सद्दी चीजें बनाकर सस्ते भाव में ग्राहकों को बेच देने की नीति अपनाई वे दिवालिया हो गये। घाटा देकर बरबाद हो गये। ग्राहक एक बार कुछ अधिक पैसे खुशी−खुशी दे सकता है यदि उसे मजबूत और अच्छी चीज मिले। अधिक मूल्य देने की बात दो−चार दिन ही खटकेगी पर चीज की खराबी तो उसे तब तक क्षुब्ध करती रहेगी जब तक कि वह उसके सामने है। लोग सस्ती देशी चीजों की अपेक्षा विलायती महँगे दाम की चीजें खरीदना पसंद करते हैं, उसका कारण यही है कि देशी निर्माता अपने ग्राहक के स्थायी हित को ध्यान में नहीं रखते, उसे सस्तेपन के प्रलोभन में फँसाना चाहते हैं। यह नीति अन्ततः असफल ही होती है। हमारे देशी उद्योगों को इस नीति के कारण भारी हानि पहुँच रही है।
धोखेबाजी का दुखद अंत
नकली शहद, नकली घी, पानी मिला दूध, नकली दवाएँ, मिलावटी खाद्य पदार्थ, जेवरों में नकली धातुओं का सम्मिश्रण, जूतों के तले में कागज भर देना, कम तोलना, कम नापना, ठीक कीमत न बताकर मोलभाव करने में वक्त गँवाना आदि नकली कामों के पीछे जो मनोवृत्ति काम करती है उससे हमारे राष्ट्रीय व्यापार को भारी क्षति पहुँची है। ग्राहक दुकानदार के पास मजबूरी में जाता तो है पर उसे ठग और चोर समझ कर हर बात में सशंकित रहता है। दस जगह इसी संदेह और भ्रम में मारा−मारा फिरता है कि कहीं उसे खराब चीज महँगे दाम में न भेड़ दी जाय। यह परिस्थितियाँ बहुत दुःखदायी हैं, इससे हमारे राष्ट्रीय चरित्र के साथ−साथ व्यापारिक क्षति भी होती है। इन परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाले लोग व्यापार की प्रतिष्ठा एवं मर्यादा को ही नष्ट नहीं करते वरन् अपने आर्थिक लाभ को भी भारी क्षति पहुँचाते हैं।
ईमानदारी को सुदृढ़ आधार मानकर जिनने अपना कारोबार आरंभ किया उन्हें आरंभिक दिनों में बेईमानों की प्रतिस्पर्धा में हानि रहती है। दूध के जले छाछ को भी फूँक कर पीते हैं। पर जब उन्हें यह विश्वास हो जाता है कि यह जलता दूध नहीं, ठंडी छाछ है तो उसे प्रसन्नता पूर्वक पीने लगते हैं। बढ़िया मिठाई बेचने वाले, आज भी मालामाल हैं दूर−दूर से आकर लोग उनकी दुकान पर मँडराते रहते हैं। इस नीति को जो कोई भी अपनायेगा वह जरूर सफलता प्राप्त करेगा। ईमानदारी का जहाँ व्यवहार होगा वहाँ ग्राहक गुलाब के फूल पर उड़ने वाले भौंरों की तरह घिरे रहेंगे और वहाँ आर्थिक घाटे का कोई कारण न रह जायेगा। बरगद के पेड़ की तरह ईमानदारी देर में पनपती है पर वह दृढ़तापूर्वक दीर्घकाल तक अपनी महत्ता से लाभान्वित करती है। इसके विपरीत बेईमानी हथेली पर सरसों जमाने वाले बाजीगरी तमाशे की तरह है जो कुछ देर आश्चर्यचकित करने के बाद रद्दी कूड़े में फेंके जाने के ही काम आता है। यदि हम अपने निर्धारित कार्यक्रम में इस नीति का समावेश कर लें तो हमारी आमदनी में निश्चय ही बहुत सुधार हो सकता है।
पूरा श्रम, पूरा लाभ
पूरे मन से, पूरे उत्साह से काम को एक विनोद, मनोरंजन या खेल समझ कर किया जाय तो उससे कितनी ही विशेषताऐं प्रकट होंगी और शरीर पर उसका अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। किन्तु यदि काम को भार समझ कर रोते-झींकते, अधूरे मन से बेगार भुगतने की तरह किया गया है तो काम का प्रतिफल घटिया दर्जे का तो होना ही है साथ ही उसका शरीर पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा, थकान आवेगी। उद्विग्नता बढ़ेगी और समय भी बहुत बर्बाद होगा। स्फूर्ति और उत्साह के वातावरण में किया हुआ काम जितना एक घंटे में हँसते−खेलते हो जाता है उतना रोते झींकते, चुन−मुन चुन−मुन करते, आधा करना- आधा छोड़ना को नीति अपनाते हुए करने से चार घंटे में भी नहीं हो सकता । आजीविका बढ़ाने के लिए अधिक काम अधिक श्रम करना जरूरी है। इसे उमंग और उत्साह की मनोदशा के साथ करने पर ही आशाजनक फलदायक बनाया जा सकता है। काम को देखकर जिनका जी रोता है, जिन्हें आलस हर घड़ी घेरे रहता है उन्हें दरिद्रता से पीछा छूटने की आशा न करनी चाहिए। लक्ष्मी सदा से प्रयत्नशील, उद्योगी स्फूर्तिवान और निरन्तर कार्य संलग्न रहने वाले पुरुषार्थियों की ही अनुगामिनी रही है।
आर्थिक उन्नति के मूलभूत तथ्य
आमदनी कैसे बढ़े, इसका व्यापारिक एवं व्यवहारिक रूप व्यक्ति की अपनी योग्यता क्षमता एवं परिस्थितियों पर निर्भर है इनमें अनुकूलता उत्पन्न करना मनुष्य की दूरदर्शिता और सूझबूझ पर निर्भर है पर यह एक मान्य सिद्धान्त हर व्यक्ति पर हर परिस्थिति में लागू रहेगा कि उसे अपने में सज्जनता, मधुरता, उदारता और ईमानदारी की मात्रा बड़े परिमाण में बढ़ानी चाहिए। पुरुषार्थी और कार्य संलग्न बनना चाहिए। आशा उत्साह और और विश्वास के साथ जो काम किया जायेगा वह अपनी प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा का कारण भी रहेगा और साथ ही आर्थिक उन्नति का निमित्त भी बनेगा। सदाचारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और मेहनत के साथ जो कर्मचारी काम करते हैं वे अधिकारियों के प्राणप्रिय बनते हैं और उन्नति का द्वार भी प्रशस्त करते हैं। हरामखोरों को बातूनी, चापलूस और तिकड़मी बनकर काम चलाना पड़ता है पर ईमानदारी अपने में सबसे बड़ी तिकड़म है जिसे कोई चालाक कभी भी प्राप्त न कर सकेगा।