Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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खाते समय यह भी ध्यान रखें
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पाचन संस्थान की गड़बड़ी से उत्पन्न मल-विकार को ही विश्व के सभी स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने रोग और स्वास्थ्य की खराबी का प्रमुख कारण माना है। शरीर की आन्तरिक शक्ति का स्रोत भी पेट है। जैसे रेलगाड़ी के इंजन से उत्पन्न भाप ही सारी गाड़ी को खींचती है वैसे ही शरीर की सभी गतिविधियों के लिए पेट ही शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति उसे बाहरी साधनों से प्राप्त करनी पड़ती है। इस शक्ति को यदि भली भाँति नियन्त्रित न करें, एक तरफ विजातीय द्रव्य बढ़ता रहे और दूसरी ओर से अन्धाधुन्ध आहार पहुँचाते रहें तो शरीर में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है।
आहार के संबंध में सादगी और सरलता का ध्यान रखा जाय तो स्वास्थ्य और जीवन रक्षा का प्रश्न उतना जटिल नहीं रह सकता। विटामिन्स, क्षार लवण चर्बी, शकर, प्रोटीन आदि की दृष्टि से आहार सन्तुलित है अथवा नहीं, इस बात पर अधिक विचार की आवश्यकता नहीं। थाली में सजाई गई कटोरियों में यह सारे तत्व आ गये या नहीं इस पर अधिक परेशान होने की अपेक्षा यह जान लेना अधिक बुद्धिमानी की बात है कि किस प्रकार खायें जिससे स्वास्थ्य स्थिर बना रहे। प्रकृति ने खाद्य-पदार्थों का निर्माण करते समय यह चतुरता बरती है कि कम से कम आहार और उसमें थोड़े से फेर परिवर्तन से भी काम चल सकता है। वन के जीव−जंतु अपने एक प्रकार के चारे से ही सारे पोषण तत्व प्राप्त कर लेते हैं। सूखा भूसा और रूखे पत्ते चबा कर जब गाय, बैल,भैंस और दूसरे पशु बलिष्ठ हो सकते हैं तो अन्न जैसी शक्तिदायक वस्तु खाकर मनुष्य स्वस्थ क्यों नहीं बन सकता?
आहार लेने से मुख्यतया शरीर के दो उद्देश्य पूरे होते हैं (1) शारीरिक अवयवों का संवर्द्धन और पोषण। (2) श्रम से खोयी हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करना। इस दृष्टि से आहार में चटोरेपन की कहीं भी उपयोगिता नजर नहीं आती। एक बार में कई प्रकार का मिश्रित आहार लेने से ही उक्त आवश्यकताएं पूरी होती हों सो बात भी नहीं। इनसे तो लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक सम्भावना रहती है। यह जानने के लिए आहार की रासायनिक प्रतिक्रिया पर एक क्षण विचार कर लेना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है।
खाद्य को मुँह में ले जाने पर दाँत और जीभ के कार्य प्रारम्भ होते हैं। दाँत उसे चबाकर पतला बनाते और जीभ लार स्रवित कर उस अन्न को तरल बनाकर गले से नीचे उतार देते हैं, जहाँ उसका पाचन प्रारम्भ होता, खून बनता और अवशेष मल के रूप में बाहर निकल जाता है। आहार में अधिक तीखे, मीठे, नमकीन और कसैले पदार्थ लेने से जीभ से स्रावित होने वाली अमूल्य लार व्यर्थ ही अनावश्यक मात्रा में क्षरित हो जाती है, जिससे पूरी तरह कुचले बिना ही आहार गले से नीचे उतर जाता है। यहाँ पाचक अम्ल मिलते तो हैं किन्तु उनकी सारी शक्ति अधकुचले आहार को ही तरल बनाने में समाप्त हो जाती है फिर आंतें भी अत्यन्त सुकुमार होती हैं वे भी इसमें से बहुत थोड़ा अंश ग्रहण कर पाती हैं और अधिकाँश आहार मल में परिवर्तित हो जाता है जो अपनी स्वाभाविक क्रिया के अभाव के कारण और छोटी आँतों की अशक्तता के कारण पूरी तौर पर बाहर नहीं निकल पाता। भीतर ही सड़न, दुर्गन्ध उत्पन्न करता रहता है। यह मल दुर्बल व्यक्तियों के शरीर में 3 सेर से 5 सेर तक जमा हो जाता है। धीरे-धीरे इसमें विषैले कृमि पैदा होकर शरीर के दूसरे अवयवों में चले जाते और रोग पैदा कर देते हैं। अनिद्रा, दुःस्वप्न, जी मिचलाना आदि इसी कारण से होते हैं। धीरे-धीरे यह मल भी सूखने लगता है और कठोर होकर आँतों में चिपक कर रह जाता है। पेट जिसे शरीर को शक्ति प्रदान करना था एक तरह से मल-विकारों का खलिहान और रोगों का मुहाना बन कर रह जाता है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से रूखी रोटियों का अत्यधिक महत्व है। भोजन मुँह में डालते ही पेट में सीधा नहीं चला जाता। जब तक वह पूरी तरह से तरल नहीं हो जाता उसमें लार मिलती रहती है और दाँतों को श्रम करते रहना पड़ता है। पूरी तरह रस बन जाने के बाद आहार में दूसरे अम्ल मिलकर उसे और भी हल्का बना देते हैं। आँतें बिना किसी असुविधा के सार-तत्व ग्रहण कर मल को बाहर निकाल देती हैं। इस क्रिया में अधिक खा जाने का भी उतना भय नहीं रहता क्योंकि थोड़े से ही आहार में मुँह और कनपटी के रुधिर संस्थानों का पूरा श्रम हो जाता है और ये अपने आप अधिक चबाने की असमर्थता प्रकट कर देते हैं। फलतः थोड़े आहार से पाचन संस्थान का भी काम सरलता से पूरा हो जाता है।
यह कहना भी भूल है कि ऐसा आहार खाने में असुविधाजनक होता है और किसी प्रकार का आनन्द नहीं आता। ऐसा वे ही कहते हैं जिन्होंने इसे कभी प्रयोग में नहीं लाया होता। बार-बार ठूँसा-ठूँसी करने की बात और है। अन्यथा परिपक्व भूख में खाने बैठिए ओर खूब ध्यानपूर्वक देखिए कि सूखी रोटियों में कैसा अभूतपूर्व स्वाद आता है। पकाये हुए आहार का स्वाद सिर्फ मुँह में डालने के क्षण होता है, पीछे उसका स्वाद बिल्कुल नीरस हो जाता है और उसे नीचे उतारने की ही जल्दी पड़ती है। कई व्यक्तियों को इसके लिए बीच-बीच में पानी की भी सहायता लेनी पड़ती है किन्तु रूखी रोटियों में विलक्षण स्वाद होता है। मुँह में कौर डालने के बाद आप जितना अधिक उसे चबाइये उतना ही मिठास और आकर्षण बढ़ता जाता है। कुछ दिन यह प्रयोग करने पर तो दूसरी प्रकार का आहार लेने की इच्छा ही नहीं होती।
इसमें एक विशेषता यह भी होती है कि रुधिर के आगे जो शरीर को अन्न की विद्युत या तेजस् शक्ति प्राप्त होती है वह एक ही प्रकार के अणुओं से विनिर्मित होने के कारण अधिक सशक्त होती है। खून नितान्त लाल होता है, जिससे शरीर में कान्ति व स्फूर्ति बढ़ती है। रुधिर के तापमान और दबाव में हलचल नहीं होती। ये सामान्य बने रहते हैं, जिससे चित्त प्रसन्न रहता है, आनन्द, उत्साह और उल्लासपूर्ण भावनायें मस्तिष्क में उठती रहती हैं।
अधिकाँश बीमारियों तथा पेट की खराबी में ऊपर से मिले हुए नमक का बड़ा हाथ रहता है। प्रकृति ने यह पदार्थ अन्न, सब्जी और फलों में इतनी सूक्ष्मता से पहले ही रख दिया है कि ऊपर से नमक खाने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वज कन्द-मूल-फल खाकर भी शतायु होते थे। तब इन वस्तुओं का आविष्कार भी नहीं हुआ था। आज भी यह स्थिति ऐसी ही है। ऊपर से नमक न लें तो इससे स्वास्थ्य अच्छा रह सकता है। रक्त संबंधी समस्त विकार शरीर में नमक की अधिक मात्रा हो जाने से ही होता है, इसलिए भी इसकी उपयोगिता समझ में नहीं आती।
शरीर के प्रत्येक अंग को पर्याप्त रस व रक्त मिलता रहे इसके लिए शुद्ध जल की आवश्यकता होती है। जल की मात्रा को शरीरस्थ कोशिकायें चूस-चूस कर शरीर में धारण करती रहती हैं। सौंदर्य का हेतु प्रधानतया जल को ही माना गया है। जैसे फलों का प्राकृतिक सौंदर्य उनमें पर्याप्त मात्रा में जल बने रहने से होता है, वैसे ही शरीर में जल की पर्याप्त मात्रा होने से ही शरीर सौंदर्ययुक्त, कान्तिवान तथा प्राणवान लगता है। बिना जलतत्व के जिस प्रकार खीरे, खरबूजे, सन्तरे, मौसम्मियाँ सूखी निर्जीव दिखाई देती हैं, वैसे ही इसके अभाव में शरीर शुष्क बना रहता है।
आहार में नमक या शक्कर की मात्रा बढ़ा देने से कोशिकायें एक विशेष प्रकार के तत्व से आच्छादित हो जाती हैं, जिससे जल चूसने की क्रिया में शिथिलता पड़ जाती है और ये पर्याप्त मात्रा में दूसरे अवयवों को जल प्रदान नहीं कर पातीं। देखा गया है कि नमक की तीव्रता से लिया हुआ जल शरीर में भारीपन पैदा करता है जब कि स्वाभाविक तौर पर लिया हुआ पानी सरलता से पहुँच कर उक्त क्रिया उत्पन्न कर देता है।
रूखी रोटियों के साथ लार की पर्याप्त मात्रा मिल जाने के कारण जल चूसने वाला तन्तु-जाल बिना किसी रुकावट के अपना काम पूरा कर देता है। जिससे खून की सफाई में बड़ी सुविधा हो जाती है। सशक्त जीवाणुओं से सम्पन्न खून उन्हीं व्यक्तियों का होता है, जो आहार में नमक, शक्कर आदि की मात्रा को बिलकुल घटा देते हैं। आज की स्थिति में यह कहा जा सकता है कि नमक की आवश्यकता पूरी करने वाली साग-सब्जियाँ महँगी पड़ती हैं इसलिए ऊपर से नमक लिया जाना चाहिए। ऐसी अवस्था में सेंधा नमक अल्प मात्रा में ले लें तो भी हानि नहीं। पर अस्वाद व्रत करते समय अकेले रोटी ही खायें तो इससे अधिक लाभ की आशा की जा सकती है।
जिन्हें इसमें विशेष असुविधा समझ पड़ती हो वे ऐसा भी कर सकते हैं कि रोटी के साथ कोई एक ही वस्तु लगा लें किन्तु उसमें नमक शक्कर कोई वस्तु मिली न हो। नींबू, टमाटर, दही या हल्की आँच में उबाले हुए शाक जैसे पालक, बथुआ या लौकी तोरई आदि से भी काम चल सकता है। रूखे का अर्थ है जो सरलता से गले के नीचे न चला जाय, जिसे गले से नीचे उतारने में मुँह, दाँत आदि को पर्याप्त श्रम करना पड़े। अतः किसी एक ही लगावन से लिये हुए आहार के द्वारा बिगड़े हुए पाचन संस्थान को सुधारा और सुधरी पाचन क्रिया को मजबूत बनाया जा सकता है। पर इसके लिये सर्वप्रथम ऐसे आहार के प्रति अपनी रुचि जरूर जागृत करनी पड़ेगी। इच्छा शक्ति के अभाव में तो अनेक बहाने ही बनाये जा सकते हैं।
ऐसे आहार का संबंध मानसिक स्वास्थ्य से भी है। अनेकों आरोग्य-विद्या-विशारदों का तो यह मत है कि स्वास्थ्य की खराबी का 70 प्रतिशत कारण मानसिक स्वास्थ्य का गिर जाना होता है। केवल स्वादप्रियता को ही प्रमुख स्थान देने से आहार के प्रति आसक्ति हो जाना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में स्वास्थ्य संतुलन की बात सोची भी नहीं जाती। इसलिए अपनी जिह्वेन्द्रिय पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। एक बार में ही रोटी सब्जी, दाल, मिर्च मसालों से भरे पकवान, चाट-पकौड़े, अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ करते रहें तो बेचारा पेट भी कब तक भार को स्वीकार करता रहेगा। तीखे पदार्थों के बार-बार सेवन से सभी पाचक रसों का अनावश्यक स्राव हो जाय—पीछे पाचन क्रिया में शिथिलता आ जाय तो इसमें पेट का क्या कसूर? अपने स्वास्थ्य को स्थिर रखना हो तो आहार के संबंध में संयम करना पड़ेगा। चटोरेपन की आदत को छोड़कर रूखे भोजन में रुचि उत्पन्न करनी होगी। तभी स्वास्थ्य की समस्या में किसी प्रकार के सुधार की आशा की जा सकती है।