Magazine - Year 1964 - Version 2
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सजातो भूतान्य व्यैख्यत् किमिहा-
न्यं वावदिषदिति स एतमेव
पुरुषं ब्रह्म ततमम पश्यत् इदम्
मदर्शमिति। 3।
ऐतरेयोपनिषद् 1। 3। 13
जीवन ने मनुष्य रूप में जन्म लेकर इस समस्त विश्व को चारों ओर से देखा और कहा—यह विश्व ही सर्वव्यापी ब्रह्म है। अहो! अत्यन्त प्रसन्नता और आश्चर्य की बात है कि मैंने इस परब्रह्म को आँखों से देख लिया।
होने पर उसने सारे धन पर कब्जा कर लिया और पिता को बीमारी में तड़पकर प्राण छोड़ने पड़े लेकिन उसके हृदय पर कोई प्रभाव नहीं हुआ।
उस बहू की कहावत प्रसिद्ध है जो अपने अन्धे श्वसुर को मिट्टी के पात्र में भोजन देती थी। एक दिन मिट्टी का पात्र फूट गया तो बहू बहुत झल्लाई कई गालियाँ दीं। उसने लकड़ी का पात्र मँगवा दिया और चौके से बाहर भोजन दे दिया। उसका अबोध बालक यह सब देख रहा था। दूसरे दिन ही बालक एक लकड़ी के तख्ते को पत्थर से ठोक पीट रहा था। माँ ने पूछा बेटा क्या कर रहा है? बालक ने अपनी बालसुलभ भाषा में कहा—”अम्मा मैं लकड़ी की थाली बना रहा हूँ। जब तू बूढ़ी हो जायेगी तो इसी में भोजन परसा करूंगा। वह स्त्री हक्की-बक्की रह गई और उसे दिन से वृद्ध श्वसुर को अच्छे पात्रों में आदर सहित भोजन देने लगी।
माता-पिता द्वारा नौकर, पड़ौसी, संबंधी, दुकानदार, जन-साधारण से किया जाने वाला व्यवहार बच्चे के कोमल मस्तिष्क पर बहुत बड़ा प्रभाव डालता है। आवश्यकता इस बात की है कि हमें अपने सम्पूर्ण जीवनक्रम में, व्यवहार में पर्याप्त सुधार करना होगा। कोई ऐसा दुर्व्यवहार न बन पड़े जिससे बच्चे पर विपरीत असर पड़े, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा, यदि हमें अपने बच्चों के चरित्र स्वभाव व्यक्तित्व को उत्तम बनाना है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बच्चे पैदा होने पर माँ-बाप के ऊपर एक बहुत बड़ी जिम्मेदार आ जाती है, वह है बच्चों को उत्कृष्ट व्यक्तित्व प्रदान करना, उनके स्वभाव और चरित्र को उत्तम बनाना और वह सब घर की पाठशाला में व्यवहारिक शिक्षा से ही सम्भव है।
बहुत से माता-पिता अपने बच्चे को किसी बोर्डिंग हाउस या अपने से दूर किसी प्रसिद्ध स्कूल में भेजते हैं इसलिए कि बच्चा घर पर भली प्रकार नहीं पढ़ता। समय पर स्कूल नहीं पहुँचता। अपनी पढ़ने की पुस्तकें तथा अन्य वस्तुयें खो देता है। आवारा लड़कों में घूमता है। घर वालों की आज्ञा का पालन नहीं करता। कई लोग तो बच्चे के हित की दृष्टि से नहीं वरन् उससे पीछा छुड़ाने, उसकी आदतों से परेशान होकर अपना सर-दर्द दूर करने की दृष्टि से बालक को अन्यत्र भेज देते हैं। कई अभिभावक अपने पास अधिक धन होने के कारण बच्चे को बहुत छोटी उम्र में ही अपने से दूर पढ़ने और योग्य बनने के लिए भेज देते हैं। कुछ भी कारण हों लेकिन बच्चों को कच्ची उम्र में जब तक वह समझने-बूझने लायक नहीं हो पाता है अपनी छत्रछाया से दूर करना अभिभावकों की बड़ी भारी भूल है। किसी भी संस्था स्कूल, विद्यालय बोर्डिंग आदि में बच्चों के पढ़ने लिखने, नियमित जीवन बिताने तथा सदाचार की बाह्य शिक्षा व्यवस्था भले ही हो किन्तु उन्हें उत्कृष्ट व्यक्तित्व प्रदान करने, सफल जीवन बिताने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए माता-पिता अभिभावकगण जो कुछ कर सकते हैं वह कहीं भी नहीं हो सकता। सचमुच अपने परिवार के सदस्यों से अधिक बच्चों के भविष्य की चिन्ता और उस दिशा में आवश्यक प्रयत्न अन्य कोई भी नहीं कर सकता अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि बच्चे को एक निश्चित आयु तक, जब तक उसका मस्तिष्क, प्रौढ़ और परिपक्व न हो जाय, घर की सीमा से बाहर नहीं भेजना चाहिए।
बच्चों के जीवन को उत्कृष्ट बनाने की जिम्मेदारी जिस तरह माता-पिता निभा सकते हैं उससे अधिक दूसरा नहीं निभा सकता। इसके अतिरिक्त बाह्य वातावरण में बच्चे को भले ही कितनी ही अच्छी शिक्षा क्यों न मिले वह मौखिक होने से अस्थायी होती है। स्थायी और सच्ची शिक्षा तो बच्चा अभिभावकों के संरक्षण में, उनके व्यावहारिक जीवन में ही सीख पाता है। वैसे स्कूल, बोर्डिंग, शिक्षा, संस्थायें उपयोगी होती हैं किन्तु बच्चों के जीवन निर्माण का पूरा-पूरा उत्तरदायित्व इन पर नहीं छोड़ा जा सकता। वस्तुतः बच्चों के चरित्र निर्माण में माता-पिता के स्नेह से युक्त शान्त सुखदायी घरेलू वातावरण का बहुत बड़ा महत्व है।