Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सत्साहित्य से शक्ति और समुन्नति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वर्तमान अवस्था से ऊँचे उठकर समुन्नत बनने की, शक्ति शाली बनने की भावना एक आध्यात्मिक तथ्य है। उत्थान ही जीवात्मा का मूलभूत उद्देश्य है इसी की पूर्ति में लोग लगे भी रहते हैं। यह एक दूसरी बात है कि वास्तविक प्रगति का सच्चा स्वरूप हम न समझ पायें, किन्तु आगे बढ़ने, उन्नत होने की आकाँक्षा सभी में होती है।
विचारकों का कथन है कि संसार में निर्बल प्राणियों के लिये कोई स्थान नहीं है। प्रकृति के सारे आघात भी निर्बलों पर ही होते हैं। संसार के संघर्ष में योग्य व्यक्ति साहसी और शूरमा ही ठहर सकते हैं। जीवन के लिये शक्ति अवश्य चाहिये। शास्त्रकार का कथन है—
या विभर्ति जगर्त्सवमीश्वरेच्छाह्यलौकिकी।
सैव धर्मो हि सुभगे! नेह कश्चन संशयः।
योग्यता वच्छिन्ना धर्मिणः शक्ति रेव धर्मः॥
अर्थात्- इस संसार को परमात्मा ने अपनी अलौकिक शक्ति से धारण किया है। मनुष्य के लिये भी योग्यता बढ़ा कर शक्ति सम्पन्न होना यही सबसे बड़ा धर्म है।
शक्ति उस साधन को कहते हैं जिससे विजय मिलती है। यों धन, जन, पशु आदि का होना भी लौकिक दृष्टि से शक्तिवान् होने का सबूत है, शारीरिक बल को भी मनुष्य की योग्यता ही मानते हैं, किन्तु यह देख चुके हैं कि समुन्नति के मार्ग में धन-जन का न होना अवरोधक नहीं है। गौतम बुद्ध तब शक्तिवंत बन सके, जब उन्होंने लौकिक शक्तियों का परित्याग कर दिया। करोड़ों धनी, सत्तावानों की तुलना में उनकी महत्ता सर्वश्रेष्ठ घोषित हुई। उस समय के सम्राट अशोक तक ने उनके समक्ष अपने घुटने टेके थे। गान्धी जी शरीर से बड़े दुबले-पतले और निर्बल थे। कुल 96 पौंड वजन के गाँधीजी ने उस ब्रिटिश साम्राज्य को परास्त कर दिखाया जिसके शासन में कभी सूर्यास्त नहीं होता था। अतः धन की शक्ति, जन और शारीरिक शक्तियाँ अल्प हैं, अपूर्ण हैं, इनसे शक्तिशाली कहलाने का गौरव कभी भी नहीं मिल सकता।
संसार की सर्वश्रेष्ठ शक्ति का नाम है विचार। जैसे हमारे विचार होते हैं वैसी ही हमारी शारीरिक स्थिति होती है। आँतरिक स्थिति का निर्माण भी विचारों के ही अनुरूप होता है। गुण, कर्म और स्वभाव की त्रिवेणी में भी विचारों का यही जल बहता है। कोई व्यक्ति चाहे कि हमारी स्थिति इसके विपरीत हो तो यह असंभव है। निश्चयात्मक विचारों से ही निर्माण शक्ति का विकास होता है। स्वस्थ बनने को विचार न उठे, तो व्यायाम करने, मालिश करने और पुष्टिकारक आहार जुटाने का कष्ट-साध्य, श्रम और समयसाध्य कर्म मनुष्य क्यों करे। सत्याग्रह के दृढ़ विचारों से प्रभावित होकर ही महात्मागान्धी स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूदे थे। विचारों की आवश्यकता पर ही सम्पूर्ण राष्ट्र ने उनके इस महान् कार्य में हाथ बंटाया था।
विचारों का बल निःसन्देह बहुत बढ़-चढ़ कर है। दार्शनिक एमर्सन का कथन है—”आध्यात्मिक शक्ति भौतिक शक्तियों से बड़ी है, विचार ही संसार पर शासन करते हैं।” अच्छे विचारों और प्रयासों का परिणाम भी श्रेष्ठतर होता है। भविष्य का निर्माण भी विचारों के अनुरूप ही होता है। विचार ही शक्ति का स्रोत है, इस बात को संसार के सभी मनीषियों ने स्वीकार किया है। किसी भी उच्च साधना की सफलता के लिये विचारों की आवश्यकता प्रमुख है। विचार संचालन करते हैं इसलिये वे श्रेष्ठ हैं इस बात से इनकार करने का कोई कारण भी खोज में नहीं आया।
विचारों की शक्ति अलौकिक है यह निर्विवाद सत्य है, किन्तु यह न भूलना चाहिये कि व्यक्ति के पतन का कारण भी उसके विचार ही होते हैं। हीन विचारों के कारण मनुष्य दुष्कर्म करता है। शक्ति का अपव्यय करता है जिस से उसकी योग्यता फीकी पड़ जाती है। अतः उत्थान के लिये शक्तिशाली विचार चाहिये, ऊर्ध्वगामी विचार चाहिये।
विचार की योग्यता मनुष्य में साहित्य के द्वारा आती है। साहित्य में वह शक्ति होती है कि समाज की रूप-रेखा बदलने में उसका महत्व सर्वोपरि है। यह कथन असत्य नहीं कि “साहित्य ही समाज का दर्पण है” अर्थात् किसी भी समाज की शक्ति और योग्यता की परख उसके साहित्य से होती है। विचारों को ऊँचा उठाने वाला साहित्य यदि उपलब्ध हो सके तो आत्मोन्नति का प्रथम प्रयास सफल ही समझना है।
साहित्य का अर्थ यहाँ उस साहित्य से है जिससे मनुष्य का चरित्र ऊंचा उठ सके और उसमें उच्च नैतिक सद्गुणों का समावेश हो। जीवन निर्माण के लिये ऐसे साहित्य की आवश्यकता होती है जो हमारी भावनाओं को ऊँचा उठाने की क्षमता रखता हो। स्कूली किताबें, नाटक भजन या धर्म की लकीर पीटने वाली पुस्तकें ही इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं, एक ऐसे साहित्य की आवश्यकता होती है जो वैज्ञानिक हो और सन्मार्ग प्रेरक हो। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि नहीं जागती, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति नहीं मिलती उसे साहित्य कहने में संकोच होता है। जो साहित्य व्यक्ति और समाज में गति और शक्ति न पैदा कर सके, सौंदर्य-प्रेम समुन्नत न कर सके वह साहित्य नहीं प्रवंचना है। हमारा तात्पर्य उस साहित्य से है जो सच्चा संकल्प और कठिनाईयों पर विजय पाने की दृढ़ता उत्पन्न करे। सच्चा साहित्य उसे कहते हैं जिसके पढ़ने से पाठक का अन्तःकरण फूल की तरह सुविकसित हो जाय और उसके हृदय-मन में आध्यात्मिक सुवास छा जाय।
पतनकारी साहित्य से व्यक्ति और राष्ट्र की शक्ति नष्ट होती है। आज इस बात के प्रमाण चारों तरफ फैले दिखाई दे रहे हैं। विलासिता, कामुकता और अनाचार फैलाने वाले साहित्य की जो बाढ़ आई हुई है, उससे सामाजिक सामर्थ्यों का कितना विनाश हो रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। लोगों का चरित्र इतनी तेजी से गिरता जा रहा है कि विचारवान् लोगों के हृदय इस आशंका से काँपने लगे हैं कि कहीं सामाजिक विद्रोह की ज्वाला न भड़क उठे। आज का अश्लील साहित्य भी बहुत कुछ इसके लिये जिम्मेदार है। ऐसे साहित्य से जितना ही बच सकें उतना ही अपना परम सौभाग्य समझना चाहिए।
सत्साहित्य से सद्विचार ग्रहण करते रहने की परम्परा चल पड़े तो मानसिक उत्थान होता रहेगा और दुर्गुणों से बचते रहेंगे। आज के युग में जब कि सन्त-जनों और सहृदय पुरुषों का नितान्त अभाव है प्रेरणाप्रद विचार प्राप्त करने के लिये साहित्य का ही आश्रय लेना पड़ेगा किन्तु यह ध्यान बना रहे कि साहित्य वही उपयोगी हो सकता है जो हमें ऊँचा उठा सके। हमारे अन्तःकरण में प्रकाश उत्पन्न कर सके। जहाँ कोई अन्य साधन न हों वहाँ नियमित रूप से सद्ग्रन्थों, आत्मनिर्माण करने वाली पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहना चाहिये। इससे भी मन बुरे विचारों से बचा रहता है और सद्भावनायें उत्पन्न होती हैं।
साहित्य की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए विद्वान सिसरो ने लिखा है—”साहित्य का अध्ययन युवकों का पालन पोषण करता है, वृद्धों का मनोरंजन करता है, उन्नति का द्वार खोलता है, विपत्ति में धैर्य बँधाता है, घर में प्रमुदित रखना और बाहर विनीत रखना साहित्य का ही काम है।”
उस सारे वाङ्मय को ऐसे साहित्य की श्रेणी में ले लेते हैं जिससे अर्थ बोध के साथ भावनाओं का परिष्कार भी होता हो और प्रत्येक तथ्य की समीक्षात्मक व्याख्या भी होती हो। केवल गूढ़ शब्दों को रट लेना मात्र पर्याप्त नहीं है। पढ़ना और उसे समझना, समझकर उसके सत्यासत्य पर विचार करना तथा जीवन शोधक व्यावहारिकता का अनुसरण करना —इतना कर सकें तो यह समझें कि साहित्य की आवश्यकता को हमने समझ लिया है। रामायण पढ़ने का लाभ तब है जब हम भी राम, भरत या लक्ष्मण के सदृश बनने का प्रयत्न करें और रामायण का महत्व इसलिए है कि उससे आँतरिक मलिनताओं पर द्वन्द्व उत्पन्न होता है और सदाचार की प्रेरणा मिलती है। इस तरह का तालमेल यदि बन सके तो विचार-दृष्टि से शक्ति शाली बनने में कोई कठिनाई न रहेगी।
बुरे संयोग से बचने के लिये और अपनी महानता जगाने के लिये हमें भी विचारवान् बनना है। इसके लिये दूसरे साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं है जितना कि ज्ञान-साधना की जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करना है तो साहित्य की शरण लेनी ही पड़ेगी। ऐसा साहित्य खोजना पड़ेगा जिससे ज्ञान संवर्द्धन हो और आत्मा का परिष्कार हो। साहित्य हमारी शक्ति का उद्रेक है हमें साहित्य के द्वारा अपनी प्रतिभा जगाने का कार्य अविलम्ब शुरू कर देना चाहिये।