Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रद्धा और सद्भावना के केन्द्र—देवालय
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देवत्व के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा और सम्मान की भावना भारतीय संस्कृति की प्राचीन परम्परा है। देवत्व का अर्थ है विश्व कल्याण की कामना। जो सबके हित में अपने हितों का होम कर दें वह देव-पुरुष हैं, ऐसे माननीय पुरुषों को सम्मान देना योग्य बात है। समाज को सुखी और समुन्नत बनने की कला सिखाने वाले और उस संकल्प की पूर्ति के लिये जीवन-दान देने वालों की जितनी पूजा की जाय, वह कम ही है। महान् सेवा के लिये महान् श्रद्धा व्यक्त होनी ही चाहिये।
देवत्व के प्रति श्रद्धा और पारस्परिक सद्भावना के प्रतीक के रूप में देव-मन्दिरों के निर्माण का विधान है। सद्भावना का लोक-जीवन की सम्पन्नता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामाजिक आचरण में जब दुर्भावनायें, अनाचरण, व्यामोह, विक्षिप्तता, पारस्परिक वैमनस्य तथा आध्यात्मिक विकृति पैदा हो जाती है तो जन जीवन में दुःख क्षोभ और असन्तोष उमड़ पड़ता है। आज का लोक जीवन इन आसुरी प्रभावों से पूर्णतया सराबोर है। इसी से लोकतान्त्रिक ढाँचा लड़खड़ाता हुआ नजर आता है। इस मूढ़ता का कारण लोगों का भौतिकतावादी दृष्टिकोण है। विवेक या विचार शक्ति की न्यूनता के कारण लोग अपने मूल लक्ष्य से भटकते हैं। देव मूर्तियाँ लोगों के सद्भाव को जागृत करने में अलौकिक शक्ति रखती हैं, किन्तु उनके पीछे यदि किसी महान् व्यक्तित्त्व का हाथ न रहा तो केवल प्रतीक से किसी प्रकार के बचाव की संभावना न की जानी चाहिये। यह भूल यहाँ हुई है पर आगे इससे सबक लेना है।
मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया। सोमनाथ के साथ करोड़ों रुपये की जागीरें थी। बड़े-बड़े सन्त महात्मा वहाँ निवास करते थे, किन्तु मूर्तिवाद के नाम पर फैले आडम्बर के कारण वह स्थान लोगों की श्रद्धा बनाये न रख सका। बेचारी मूर्ति कैसे प्रतिवाद करती? उसे तोड़ कर मोहम्मद गजनवी हीरे जवाहरातों के जखीरे भर ले गया। धन गया यह इतनी दुःखद घटना नहीं जितनी आस्थाओं पर आघात हुआ, यह हृदय छेदने वाली बात है। हिन्दुत्व के प्रति जिन्हें भी थोड़ी बहुत प्रीति होगी उनके दिलों में इस प्रकार की कसक उठना स्वाभाविक है।
इस में एक बात सीखने को मिलती है कि देवालय बनें किन्तु उनके साथ व्यक्तित्व का भी शिलान्यास हो। मूर्तियाँ भी उनके साथ जोड़ी जायें। विचार और व्यवहार में शिक्षा से पूर्णता आती है। भावना के साथ कर्म की शक्ति भी चाहिये। देवालय शरीर का काम करते हैं, सद्भावनायें जागृत करने वाली प्रवृत्तियाँ उनमें “प्राण” का काम करती हैं। देह और प्राण के सम्मिश्रण से चैतन्यता आती है। अकेली देह निर्जीव है। हम देवालयों के महत्व को अस्वीकार नहीं करते, पर यह प्राण विहीन भी न हों।
इन दिनों देव मन्दिरों में दिखावट और ढोंग बनाकर लोगों की श्रद्धा और उनके विश्वास छीन लेने की जो चोरबाजारी चल रही है उसे किस तरह दूर किया जाय, यह एक विकट समस्या है। अधार्मिक लोगों का अन्ध श्रद्धा वालों के साथ गठबन्धन जो चल रहा है इसे कैसे दूर किया जाय? समाज में सौमनस्य साँस्कृतिक उन्नयन और सदाचार जगाने की विवेकपूर्ण प्रवृत्तियाँ किस तरह जागरुक हों? न समस्याओं का समाधान न हुआ तो भारतीय अध्यात्म की जड़ें निरन्तर खोखली होती चली जायेंगी और जो धर्म के बचे खुचे अंकुर शेष हैं उन्हें भी नष्ट होने में कितनी देर लगेगी।
अब यह तथ्य लोगों को समझ ही लेना चाहिये कि तीर्थ-यात्रा और देवमन्दिरों के दर्शन का जो प्रयोजन लोग लेकर चलते हैं वह वास्तव में सिद्ध नहीं होता। तीर्थ-यात्रा के बाद भी लोगों को नैतिकता का, अच्छे रहन-सहन और व्यावहारिक आध्यात्म का विकास न हो तो कौन कह सकता है कि आपका भ्रमण सफल रहा। इससे तो यही समझा जायगा कि लोगों ने समय, श्रम और धन का ही अपव्यय किया है। इस जीवन में देवत्व को प्राप्त न कर सके तो कौन जाने मृत्यु के बाद कोई पारलौकिक सुख मिलेगा भी या नहीं। कोई भी विचारवान् व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा ऐसा समझना कठिन है।
देव-स्थानों का निर्माण लोगों में श्रेष्ठ संस्कार जागृत करने की दृष्टि से किया जाता है। यह आशा की जाती है कि महापुरुषों का सत्संग लाभ लोगों को अधिक मिले इसलिये सत्संग, स्वाध्याय, ठीक संगठन आदि का अखण्ड यज्ञ देवालयों में चलता रहे। पर व्यवहार में यह सब कुछ नहीं होता। लोग आते हैं, चन्दन, अक्षत पुष्प, पाई पैसा की सस्ती भेंट चढ़ाकर अपनी अन्ध श्रद्धा व्यक्त करके चले जाते हैं। उनके लौकिक जीवन में किसी प्रकार का प्रकाश उत्पन्न नहीं होता। वही आसक्ति , वही वासना, क्रोध, मोह, सब कुछ वहीं। न पारिवारिक जीवन में किसी तरह का उल्लास आया न गन्दी आदतें छूटीं। अन्तः करण में अच्छे संस्कार न बढ़े और आप यह मान्यता बनाये बैठे हों कि परलोक में आपको स्वर्ग मिलेगा तो इस पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा। आत्मबल, उत्सर्ग, संयम त्याग और सद्भावना की प्रामाणिकता इस जीवन में न मिली तो परमात्मा की अकृपा ही समझना चाहिये। इसके बिना जीव का किसी प्रकार कल्याण सम्भव नहीं है।
लोक जीवन में जिस निवृत्ति की कामना करते हैं उसका आधार है विवेक, जो आत्म-ज्ञान पैदा करता है। इस जीवन में आत्म-ज्ञान का संपादन न हो और परलोक की जीवन मुक्ति पर विश्वास करें तो इसे हास्यास्पद ही माना जायगा। निवृत्ति या मोक्ष—मनुष्य के आत्मज्ञान और सद्प्रवृत्तियों के रूप में दिखाई देता है। इन्हीं के आधार पर पारलौकिक मुक्ति पर विश्वास किया जा सकता है।
देवालयों का महत्व इसलिये नहीं होता कि उनमें परमात्मा की मूर्ति स्थापित होती है। प्रतिमा परमात्मा का प्रतीक मात्र है। अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिये ईश्वर के बाह्य कलेवर को मूर्ति रूप में मान लेते हैं किन्तु उसकी आत्मा सद्-भावनाओं में सन्निहित है। देवालय का अर्थ- जहाँ देवपुरुषों का निवास हो। उनके सत्संग से ही परमात्मा के आन्तरिक कलेवर को प्राप्त करते हैं, इसी दृष्टि से देव-स्थानों का महत्व होता है।
जड़ में भी परमात्मा का अस्तित्व मानने की अपूर्व श्रद्धा और देवालयों की भावनात्मक विशेषता के परिणामस्वरूप दर्शक में जो संस्कारों की सूक्ष्म प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है उसी से लोक कल्याण का पथ प्रशस्त होता है। अखिल विश्व में परमात्मा की व्याप्ति, भावनाओं की शुद्धि और गार्हस्थ्य जीवन की सफलता के लिए विवेकपूर्ण प्रवृत्तियों का संचालन हो तो देव-मन्दिरों की सार्थकता है।
शिक्षा, सद्भावना और जीवन दिशा का प्रशिक्षण देने का उत्तरदायित्व वहन करने वाले देवालय के पुजारी हैं, उन्हीं से कुछ लोकोपकार की कामना, की जा सकती है। चरित्र, प्रेम, मैत्री, करुणा, दया प्रतिमा मेधा और मनस्विता की शिक्षा देने का गुरुतर कार्य देव मन्दिरों की जिम्मेदारी है। लोक जीवन में समृद्धि संस्कारों की प्रशस्ति का उत्तरदायित्व देवालयों का है। इन्हीं के आधार पर उनको इतना महत्वपूर्ण स्थान मिला है। आध्यात्मिक प्रशिक्षण के, ब्रह्मकर्म के निर्वाह कारण ही उनका महत्व-सर्वोपरि है। इस गौरव को प्राप्त न कर सके तो देव-मन्दिर की अपेक्षा किसी ऐसे सद्गृहस्थ के घर को ही अच्छा मान लेना चाहिये, जिसमें पारस्परिक प्रेम, इन्साफ , दया और धर्म भर रहा हो। उन घरों को ही उपासनालय मानलें तो कहीं अधिक लाभ की गुँजाइश रहेगी।
बाह्य कलेवर की अपेक्षा आन्तरिक भावनाओं की उपासना अधिक फलवती होगी। हमें पाषाण नहीं देवत्व की आत्मा को मूर्ति रूप में पूजना है और उन पर अपनी सद्भावनाओं की अर्घ्य चढ़ाना है। इतना कर सकें तो अनैतिकता और भ्रष्टाचार दूर करने में अपना बहुत बड़ा योगदान समझा जायेगा। मन्दिरों की सार्थकता इन्हीं सत्यप्रवृत्तियों के विकसित करने में है।