Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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क्षमता का विस्तार (Kavita)
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है, असीम क्षमता मनुष्य में जो चाहे वह ही बन जाए।
पौरुष जागे पार्थ बने नर, मन का अँधियारा मिट जाए॥
भरी अथक संघर्ष-शक्ति है, सहिष्णुता-विश्वास वहाँ है।
और कहो, सन्तुलित-समन्वित जीवन का आवास कहाँ है॥
धरती के कुल भोग वीर हो, निश्चयतः भोगा करते हैं।
दुर्बल दीन-हीन रोने में, ही जीवन खोया करते हैं॥
नहीं वीर; जो शस्त्र उठा लेता है निःशस्त्रों पर कर में।
वह कायर है जो हथियारों को लखकर घुस जाता घर में॥
बात-बात पर आपस में ही, कट-मरने वालो—ठहरो तो!
मूल्याँकन कुछ करो प्राण का, प्रेम-सरोवर में—लहरो तो!!
निर्मल मानस से निकली, मुसकान शत्रुता से बढ़कर है।
जिसके आगे विश्व पराजित, वश हो जाता जगदीश्वर है॥
निस्सन्देह उजागर, शाश्वत-सत्य सदा अविचल रहता है।
मानव क्यों, विषमय विषयों की, धारा में अविरल बहता है॥
युवकों, अब सारा भारत ही, प्रभु का मन्दिर बना जा रहा।
नये-नये तीर्थों-पर्वों का, नित नूतन उल्लास छा-रहा॥
जाग रहा है कर्म देश में, कण-कण है श्रमगीत गा रहा।
जन-जन में भगवान जग रहे, नव जीवन सुविकास पा रहा॥
लो, कृतित्व उभराया फिर से, प्रज्ञावादी भगे जा रहे।
सार्व-भौम निर्माण कार्य में, भारतवासी लगे जा रहे॥
उठो, बढ़-चलो ज्योति मार्ग-पर, भारत माता है पुकारती।
प्राणों के निर्मल कुसुमों से, एक बार फिर सजे आरती॥
सखे, शौर्य भाव से भर कर, नव शंख-ध्वनि गुँजित कर दो।
मातृ भूमि को रक्त दान दो, पुण्य-धरा अनुरंजित कर दो॥
—आचार्य सर्वे
*समाप्त*