Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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हमें तू दुःख दे दयानिधान!
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शरीर में विजातीय द्रव्य जमा हो जाता है तो उसकी विकृति बीमारी के रूप में फूट पड़ती है। रोग शरीर की एक आवश्यकता है, जिससे अपनी जीवनी शक्ति का आभास होता है। यह ज्ञान मनुष्य को न मिले और विजातीय तत्व भीतर ही बढ़ते रहें तो अकाल मृत्यु सुनिश्चित हो जाती है। मनुष्य जीवन का ऐसा ही संकेत है, जो मनुष्य को इस बात के लिए सचेत करता रहता है कि उसका लक्ष्य कुछ और है। मनुष्य शरीर रूप में एक आत्मा है, इस आत्म तत्व की ओर संकेत का भाव मात्र है दुःख। इसलिए वह ग्रहणीय है। दुःख के बिना इस जीवन का महत्व भी कुछ नहीं रह जाता है।
महाभारत में कहा है—
विपदः सन्तु न शाश्वत् तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतौ दर्शनं यत्स्यादपुनर्भव दर्शनम्॥
हे जगद्गुरो! विपत्तियाँ हमारे जीवन में पग-पग पर आती रहें क्योंकि आपके दर्शन विपदाओं में ही होते हैं। आपके दर्शन मिल जाते हैं तो मनुष्य जन्म-मरण के बन्धनों से विमुक्त हो जाता है।
इस दृष्टिकोण को समझने के लिए दुःख और उसके प्रभाव पर, आइये विचार करें। कामनाओं की पूर्ति न होना, दुःख का कारण है और इससे विकल होना ही दुःख का प्रभाव है। दीन-हीन की तरह दुःख को केवल भोगते रहना यह अभिशाप है, किन्तु उसके प्रभाव से प्रभावित होकर सचेत होना निश्चय ही जीवन का वरदान है। सच मानिये यदि विपदायें मनुष्य के जीवन में न आयें तो उसकी अन्तर्मुखी चेष्टायें कभी भी जागृत न हों और जिस लक्ष्य को लेकर उसे यह मानव देह मिलती है, वह साध्य सदैव अधूरा ही बना रहे। धन पाकर उसका उपयोग न करे तो उस धन और मिट्टी के ठीकरे में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। मनुष्य का जीवन पाकर भी आत्म-ज्ञान से विमुख होना मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। दुःख जीवन निर्माण का सन्देश-वाहक है, उसका सत्कार होना ही चाहिए। सुख और दुःख दोनों समान रूप से इसीलिए परमात्मा की ओर से मिले हैं कि इससे मनुष्य का जीवन एकाँगी न हो।
प्राकृतिक नियमानुसार आँशिक सुख और दुःख सबके जीवन में हैं। पर जो मनुष्य कामनाओं की पूर्ति से आसक्त अर्थात् सुख को ही साध्य मान लेते हैं, उनके लिए सुख ही दुःख स्वरूप हो जाता है क्योंकि परिस्थितियों की विपरीतता के कारण सदैव कामनाओं की पूर्ति होते रहना निश्चित नहीं है। सभी कामनायें पूरी नहीं होतीं इसलिए दुःख पैदा होना स्वाभाविक है। एक बात यह भी है कि प्रत्येक कामना की पूर्ति एक नई कामना पैदा कर जाती है, इससे सारी चेष्टायें साँसारिक गोरख-धन्धों में ही लगी रह जाती हैं और जीवन ध्येय की ओर मनुष्य का बिल्कुल भी ध्यान नहीं आकृष्ट हो पाता।
दुःखों से भी केवल प्रभावित होते रहना—इससे भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता जब तक उसके मूल कारण पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार नहीं करते। धन के अभाव में कितने ही व्यक्ति इतने विकल रहते हैं कि सिवाय धन के और कुछ भी आँखों के आगे दिखाई नहीं देता। एक दृष्टिकोण यह भी है कि हमसे भी दयनीय स्थिति के दूसरे व्यक्ति हैं। हम रूखी ही सही, दो वक्त खाते तो भी हैं, किन्तु कितने लोग ऐसे हैं जो एक समय आधा पेट भोजन और वह भी मुश्किल से प्राप्त करते हैं। यह चिन्तन अपने आत्मविकास का साधन है। संसार इससे और उसकी परिस्थितियों पर विचार करने की शक्ति आती है। भौतिकता से हट कर संसार की सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं की ओर ध्यान जाता है। एक बार जैसे ही आत्म-ज्ञान के लिए असंतोष पैदा हुआ कि यों समझिये आपके आध्यात्मिक जीवन का सूत्रपात हुआ। यह परिस्थिति बन जाय तो जीवन लक्ष्य की ओर उन्मुख होना निश्चय ही समझिये।
दुःख के समय सुख की भावी सम्भावना मात्र से दुःख सहते रहते हैं। सुख के समय भी ऐसी ही चेतना जागृत हो कि सुख और दुःख दोनों धूप-छाँह की तरह आने-जाने वाले हैं, ऐसी जागृति आने पर आपका जीवन सुख और दुःख दोनों से अतीत हो जायगा और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की निर्द्वन्दता आ जायगी।
विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है। इससे हृदय में जो पीड़ा, आकुलता और छटपटाहट उत्पन्न होती है, उससे चाहें तो अपना सद्ज्ञान जागृत कर सकते हैं। भगवान को प्राप्त करने के लिए जिस साहस और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, दुःख उसकी कसौटी मात्र है। विपत्तियों की तुला पर जो अपनी सहन-शक्तियों को तौलते रहते हैं, वही अन्त में विजयी होते हैं, उन्हीं को इस संसार में कोई सफलता प्राप्त होती है।
दुःख का प्रभाव सच्चे सुख की अनुभूति कराता है। एक बार जब सुख के सही स्वरूप का बोध हो जाता है तो सुख-लोलुपता मिट जाती है। दुःख को अनिवार्य और आवश्यकता बताने का यह अर्थ नहीं कि सुख-प्राप्ति के उपाय त्याग दें। जीवन को ऊँचा उठाने का प्रयत्न तो हो ही, किन्तु निष्काम-कर्म से गिरा देने वाली जो सुख की तृष्णा होती है उससे बचना मानव-जीवन की शुद्धता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। इसका आभास दुःख के क्षणों में सरलता से प्राप्त कर लेते हैं इसलिए दुःख सापेक्ष है, किन्तु सुख उचित होते हुए भी साध्य नहीं है।
मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता कामनाओं की पूर्ति का सुख नहीं है क्योंकि सुखी अवस्था में भी भय का अन्त नहीं होता। और नहीं तो मृत्यु के भय से तो कोई बच भी नहीं सकता। इससे यह प्रतीत होता है कि निर्भयता सुख प्राप्ति से बढ़कर है। दुख निवृत्ति, चिर-विश्राम, पूर्ण स्वाधीनता और प्रेमस्वरूप की प्राप्ति—ये चार वस्तुयें जीवन की चतुर्मुखी आवश्यकतायें हैं। इन चारों की उपलब्धि उसे होती है जो परमात्मा की प्राप्ति के लिए, उसके आदेशों का पालन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक, प्रसन्नतापूर्वक तत्पर होते हैं। तपश्चर्या इसी स्थिति का नाम है। परमपिता को हमारी किसी वस्तु की आकाँक्षा नहीं है। वे हमसे प्यार चाहते हैं, हमारी आकुल प्रार्थना पर ही वे रीझते हैं। विषयों में आसक्त जीवात्मा से वैसी प्रार्थना के उद्गार बन नहीं पाते, इसलिए तप का महत्व है। तप का एक ही अर्थ दुःख पैदा करना है। दुःख इसलिए अभीष्ट है कि इससे अन्तःकरण का सत्य प्रतिभासित होता है। मनुष्य जीवन का विराम इसी सत्य को पाता है। अपने आन्तरिक उद्गारों को सतत् प्रार्थनाशील रखने के लिए दुःख चाहिए, कष्ट चाहिए, निरन्तर हृदय में उमड़ने वाली वेदना चाहिए। यह दुःख जिसे मिले उसे यही समझना चाहिए कि उस पर परमात्मा का असीम अनुग्रह है। जिससे वे मिलना चाहते हैं, उसे पहले दुःख का दूत भेजकर मिलने की स्वीकृति माँगते हैं। धन्य हैं वे लोग जो दुःख को परमात्मा का प्रसाद समझ कर उसे अपने शीश पर धारण कर लेते हैं।
दुःख हमारे पुरुषार्थ को जगाने आता है। सुखी मनुष्य विलासी और व्यसनी, आलसी और प्रमादी बन जाता है। अहंकार उसे घेर लेता है और तृष्णाओं के पर्वत सामने आकर खड़े हो जाते हैं, किन्तु जब दुःख सामने आते हैं तो मनुष्य को उनका प्रतिरोध करने के लिए अपनी प्रसुप्त शक्तियों को जागृत करना पड़ता है। पौरुष का निखार इन्हीं परिस्थितियों में होता है। सोने को अग्नि में तपाकर उसके मल विकार जलाये जाते हैं। इसी प्रकार दुःखों की अग्नि में तपा हुआ मनुष्य अपने अनेक दोष दुर्गुणों से सहज ही छुटकारा पा जाता है।
सुखों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहना मनुष्य का स्वभाव है। वह अन्तःप्रकृति की प्रेरणा से हर एक को करना ही होता है। करना भी चाहिए, पर जब दुःख के अवसर आवें तब घबराना तनिक भी नहीं चाहिए वरन् अपने व्यक्तित्व को विकसित करने का एक सुअवसर आया जानकर उसे भी शिरोधार्य करना चाहिए। दुःखों की हानि तभी है जब मनुष्य उनका अभ्यस्त बन कर दीन−हीन बन जाय और अकर्मण्य बन उनसे छुटकारा पाने का प्रयास ही छोड़ बैठे। यह स्थिति न आने पावे तो दुःखों से परिस्थितियाँ मनुष्य को अधिक सुदृढ़, अधिक पुरुषार्थी अधिक सहिष्णु एवं अधिक पवित्र बनाने में बड़ी उपयोगी एवं आवश्यक सिद्ध होती हैं। परमार्थ के लिए किये गये तप, त्याग में जो दुःख स्वेच्छा से वरण किया जाता है, वह तो आत्मा के लिए अमृत की तरह मंगलमय सिद्ध होता है। ऐसे दुःख की याचना यदि परमात्मा से की जाय तो इस में जीव का कल्याण ही है।