Magazine - Year 1965 - Version 2
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VigyapanSuchana
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पट बन्द हों ऐश्वर्यता के अब सदा को आज से।
भगवान अब बाहर न होगा लोक और समाज से॥
मैं चाहती अनगित स्वरों में विश्व को दूँ, बता!
इन्सान मेरा देवता!!
रवि के प्रबलतम ताप ने श्रम को पसीना कर दिया,
प्रत्येक जिसकी बूँद ने जीवन धरा पर भर दिया,
वह मूर्ति पौरुष की बने चिर अर्चिता॥1॥
घनघोर तीव्र प्रहार से जब बज्र-सा लोहा कटा,
तब आग की चिनगी उठी व्यापक युगों का तन कटा,
इस साधना की है नियम भी अनुगता ॥ 2 ॥
पट बन्द हों ऐश्वर्यता के अब सदा को आज से,
भगवान अब बाहर न होगा लोक और समाज से,
देवत्व का ही नाम होगा मनुजता ॥ 3 ॥
इन्सान मेरा देवता!!
-विद्यावती मिश्र
अगम जल-धार है नाविक! सम्हल कर नाव ले जाना!
तरंगों के थपेड़ों से बचा लाना, बचा लाना!
भँवर से तीव्र फेरे हैं,
कहीं जल जन्तु घेरे हैं,
अन्धेरी शून्य बेला में,
न संगी—संग तेरे हैं।
किसी भी यत्न से होगा न तट पर लौट कर आना।
अगम जल-धार है नाविक! सम्हल कर नाव ले जाना।
करो फिर भी न मन में भय,
सफलता है निकट, निश्चय
तेरी दृढ़ता और, लगन पर,
कहेगा विश्व भर जय-जय
शिलाओं से तुम्हारा व्यर्थ जायेगा न टकराना।
अगम जल-धार है नाविक। सम्हल कर नाव ले जाना।
—प्रमुदरंजन मिश्र “प्रमुद”
सब सूरत है तुम दर्शन हो,
सब पवित्र है तुम पावन हो,
ऋतुओं में जैसे सावन हो,
दर्शन विमल तुम्हारा इतना, मैं मन्दिर तक चला गया।
बूंद-बूंद में बहते-बहते मैं सागर तक चला गया।
—महेन्द्र मधुकर
कितना रूप संवारो सब ढक जायेगा,
दर्पण का प्रतिबिम्ब सिर्फ छल पायेगा,
मन की घाटी में कितना कोलाहल है।
साँसों का सौदागर सब ले जायेगा।
क्षण भर का यह कोलाहल, यह चहल पहल;
कितने सूने लगते, उजड़े राजमहल;
कितना तेज निशाना समय शिकारी का
मनशा उतर जाता है प्रणय-पुजारी का।
—प्रो0 प्रकाश आतुर
जीवन में सुख-दुख का समान डेरा है;
यों हर्ष विषादों ने यह जग घेरा है।
अज्ञानी व्याकुल होते घबराते हैं,
ज्ञानी जन कष्टों में भी सुख पाते हैं।
है वीर वही जो द्वन्द्व सहर्ष सहेगा।
सुख नहीं रहा तो दुःख भी नहीं रहेगा॥
—श्याम कुमारी गुप्ता
टिमटिमाती रोशनी क्या रास्ते रोशन करेगी?
और कृत्रिम मुसकराहट भार जीवन का हरेगी?
यदि जलाने दीप हैं तो हृदय-कुटिया में जलाओ,
और अपना आचरण इतना अधिक ऊँचा उठाओ,
अप्सरा बनकर गिरावट लाख दे तुमको प्रलोभन,
पर न तुमको डिगा पाए स्वयं ही हो जाय अर्पण,
एकता का तेल डालो विश्व के सूखे दिए में,
बैर का गुल झाड़ कर देखो भगा जाता अन्धेरा।
—शान्ति सहाय ‘नलिनी’