Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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असफलता को देखकर निराश न हों।
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संसार में प्रायः लोग विजय-पराजय, सफलता-असफलता को स्थूल उपलब्धियों से ही नापते हैं। जिसने किसी प्रकार से धन-दौलत, मान-सम्मान अथवा नाम-धाम पा लिया है स्थूल बुद्धि वाले उसे सफल ही मान लेते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि इसने जो यह वैभव-विभूति प्राप्त की है उसमें उपायों एवं साधनों के औचित्य पर ध्यान नहीं रखा। जब कि उपायों का अनौचित्य उसकी बहुत बड़ी नैतिक पराजय है।
इसके विपरीत जो व्यक्ति ईमानदारी से प्रयत्न करते हुए भी स्थूल उपलब्धियों को संयोग अथवा अन्य हेतुओं वश नहीं पा सकते। उन्हें सामान्य बुद्धि वाले लोग असफल ही मानते हैं, जबकि अनुपलब्धि को स्वीकार करके भी ईमानदार प्रयत्नों में लगे रहने की सफलता उसकी बहुत बड़ी विजय है।
सफलता-असफलता तथा विजय-पराजय के विषय में इस प्रकार की धारणा रखने वाले व्यक्ति स्थूल दृष्टि से स्थूल उपलब्धियों को ही देख पाते हैं और उनसे ही प्रसन्न एवं प्रभावित हुआ करते हैं। ऐसे लोग पुरुषार्थ एवं कर्म-शीलता का मान-सम्मान करना नहीं जानते। निश्चय ही ऐसे लोग भौतिक विभूतियों के अविवेकशील भक्त होते हैं। उनकी दृष्टि में भौतिक उपलब्धियों के सिवाय मनुष्य के प्रयत्न एवं पुरुषार्थ का कोई मूल्य-महत्व नहीं होता।
तत्वदर्शी बुद्धिमानों का दृष्टिकोण इन स्थूल वादियों से सहमत नहीं होता। वे सफलता एवं विजय का मानदण्ड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न को ही मानते हैं। बिना परिश्रम अथवा पुरुषार्थ के विरासत, संयोग अथवा प्रारब्धवश नाम-धाम अथवा धन-दौलत पा जाने वालों को वे सफल व्यक्तियों की श्रेणी में नहीं रखते और गर्हित उपायों का अवलम्बन लेकर सफल होने वालों की ओर तो वे उतना भी ध्यान नहीं देते, जितना कि प्रारब्ध-प्रसन्न व्यक्तियों की ओर। उनका विश्वास होता है कि सफलता अथवा विजय का सम्बन्ध मनुष्य के पुरुषार्थ एवं परिश्रम से ही होता है उपलब्धियों से नहीं। जिनको किन्हीं उपलब्धियों के लिये परिश्रम, प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं संघर्ष न करना पड़ा हो तो सफलता का श्रेय उनकी किस विशेषता से, किस गुण से जोड़ा जायेगा। उपलब्धियाँ स्वयं में कोई सफलता नहीं हैं। यह तो सफलता के परिचायक प्रतीक मात्र होती हैं। प्रतिद्वन्द्वी के ‘पस्त-हिम्मत’ होने के कारण को पहलवान अखाड़े में उतरे बिना ही विजयी घोषित कर दिये जाने से ही विजयी नहीं माना जा सकता। उसकी विजय की घोषणा तो वास्तव में प्रतिद्वन्द्वी की साहसहीनता की सूचना होती है। इस प्रकार की घटना में यह घोषणा प्रस्तुत पक्ष की विजय की नहीं, निरस्त पक्ष के पराजय की होनी चाहिये।
पुरुषार्थ में विश्वास रखने वाले सच्चे कर्मवीर जीवन में कभी असफल अथवा परास्त नहीं होते। उनकी पराजय तो तब ही कही जा सकती है जब वे एक बार की असफलता से निराश होकर निष्क्रिय हो जायें और प्रयत्न के प्रति उदासीन होकर हथियार डाल दें। सच्चा कर्म योगी एक क्या हजार बार की असफलता से भी पराजय स्वीकार नहीं करता। जीवन के अन्तिम क्षण तक उपलब्धियों का मुख न देख सकने वाले प्रयन्त निरत कर्मवीरों को असफल अथवा पराजित कौन—किस मुँह से —कहने का साहस कर सकता है?
इतिहास ऐसे न जाने कितने कर्मवीरों की गौरव-गाथा से भरा पड़ा है, जो जीवन-संग्राम में अनेक बार हार के भी नहीं हारे, और ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं कि विजयी होने पर भी जिनका नाम पराजितों की श्रेणी में ही लिखा गया। राणा प्रताप, पोरस तथा पृथ्वी चौहान ऐसे ही कर्मवीरों में से हैं जो स्थूल रूप से हार कर भी नैतिक रूप से पराजित नहीं हुए। शृंखलाओं के संकटों के बीच भी उन्होंने अपने को पराजित स्वीकार नहीं किया। जीवन का अन्तिम अणु-कण संघर्ष के क्षेत्र पर लगा देने के बाद भी विजय न पा सकने वाले वीर आज भी विजयी व्यक्तियों के साथ ही गिने जा सकते हैं। उनकी परिस्थितियां अवश्य हारी किन्तु उनके प्रयत्न पराजित न हुए। यही उनकी विजय है जिसे यशस्वी कर्मवीरों के अतिरिक्त साधन सम्पन्नता के बल पर संयोगिक विजय पाने वाले कर्महीन कायर कभी नहीं पा सकते।
अकबर, अशोक और उलाउद्दीन खिलजी जैसे विजयी उन व्यक्तियों में से हैं जिनकी जीत भी आज तक हार के साथ ही लिखी जाती है। कलिंग का श्मशान बन जाना एक विजय थी और अशोक का नगर पर अधिकार कर लेना एक पराजय। पद्मिनी का जल जाना, भीमसिंह और गोरा बादल का जौहर कर डालना एक विजय थी और चित्तौड़ पर खिलजी का अधिकार एक पराजय थी। वन-वन फिर कर घास की रोटी खाने वाले प्रताप की आपत्ति एक विजय और मेवाड़ पर अकबर का झंडा फहराना एक पराजय। ऐसी पराजय थी जिसे अकबर ने स्वयं स्वीकार किया था। जय-पराजय की इन गाथाओं में हार-जीत का मानदण्ड आदर्श पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, धैर्य एवं प्रयत्न ही रहा है। राज्य अथवा नगरों पर अधिकार नहीं।
परिस्थितियों के सम्मुख घुटने टेकने और असफलता के बाद दूने उत्साह से उठने वाले कभी भी परास्त नहीं कहे जा सकते फिर चाहे वे कभी स्थूल विजय के अधिकारी भले ही न बने हों। हारना वास्तव में वह है, असफल उसे ही कहा जा सकता है, जो एक बार गिर कर उठने की हिम्मत खो देता है। एक बार की असफलता से निराश होकर मैदान से हट जाता है। पिछली पराजय से पस्त हिम्मत न होकर अगली सफलता के लिये प्रयत्न करने वालों की पिछली असफलताओं का सारा अपवाद स्वयं ही मिट जाया करता है। इसीलिये विजय का यशस्वी श्रेय लेने वाले फल के प्रति उत्सुक न रह कर प्रयत्न एवं पुरुषार्थ में ही लगे रहते हैं।
असफलताओं के आघात से निराश होकर बैठ रहना सबसे बड़ी कायरता है। असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशीलता की परख होती है। जो इस कसौटी पर खरा उतरता है वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी और अपने ध्येय का धनी होता है और ऐसे ही कर्मवीरों को विचारवान लोग असफल होने पर भी सफल ही मानते हैं। जीवन में निर्विरोध अथवा निरन्तर सफलताओं की परम्परा गर्व-गौरव अथवा हर्षातिरेक का विषय नहीं है। असफलता का आघात पाये बिना मनुष्य पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाता। उसके मन, बुद्धि तथा आत्मा में कच्चापन बना रहता है। उसकी एकांगी विजय न तो सरस हो पाती है और न संतोषप्रद। परिश्रम के बाद विश्राम और कष्टों के बाद सुविधा की तरह ही सफलता का आनन्द असफलता के बाद ही आता है। असफलता के अभाव में अनुभवों से रहित व्यक्ति दुनिया को ठीक से नहीं समझ पाता।
मनुष्य का निरन्तर सफल होते जाना बहुत अधिक हितकर नहीं होता। ऐसी ही स्थिति में वह अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करने के बजाय प्रारब्ध पर भरोसा करने लगता है। उसे अपने प्रारब्ध पर अन्धविश्वास हो जाता है और अपने को एक चमत्कारी व्यक्ति समझने लगता है। उसे सफलताओं में अति विश्वास हो जाने से अभिमान हो जाता है। प्रयत्न के प्रति उदासीन और अवरोधों के प्रति असावधान हो जाता है। एक साथ सफलताओं को पाते जाने से मनुष्य अन्दर से इतना कमजोर हो जाता है कि जब कभी उसको सहसा असफलता का सामना करना पड़ जाता है तो वह एकदम इतना निराश, निरापद तथा निष्क्रिय होता है कि फिर उठ ही नहीं पाता। निरन्तर सफल होते रहने वाले व्यक्ति कभी ही आई हुई असफलता से इतने घबरा जाते हैं कि आत्महत्या तक कर बैठते हैं। असफलता से शून्य सफलता कभी भी निरापद नहीं होती।
असफलता अथवा पराजय से निराश एवं निष्क्रिय न होना तो एक नैतिक विजय है ही, साथ ही आगे चल कर उसकी असफलता निरन्तर प्रयत्नशीलता एवं एकनिष्ठ लगन के बल पर स्थूल विजय में भी बदल जाती है जो व्यक्ति अपने उद्देश्य के लिये यथासाध्य उद्योग में कमी नहीं रखता वह अवश्य ही अपने ध्येय में सफल हो जाता है। अब्राहम लिंकन अपने जीवन में सैकड़ों बार असफल हुए, महात्मा गाँधी ने सैकड़ों बार असफलताओं का मुँह देखा, वैज्ञानिक अपनी खोजों के प्रयत्नों में न जाने कितनी बार असफल होते रहते हैं किन्तु तब भी वे अपनी एकनिष्ठ लगन एवं अखिल प्रयत्नरत रहने से अन्ततः अपने उद्देश्य में सफल ही हुए और होते जाते हैं। हुमायूँ अपना राज्य वापस लेने के प्रयत्न में इक्कीस बार हारा किन्तु अन्त में अपनी लगनशीलता एवं पुरुषार्थ के पुरस्कार स्वरूप उसने दिल्ली का राज सिंहासन पठानों से छीन ही लिया। सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।
मुमुक्षु साधक अपनी आत्मा की मुक्ति के लिये अबाध प्रयत्न ही नहीं तप भी किया करते हैं। वे एक दो वर्ष तक ही नहीं जन्म−जन्मांतरों तक अपने प्रयास में लगे रहते हैं और अन्त में अपने पावन ध्येय को पा ही लेते हैं। जरा-जरा सी असफलताओं से निराश होकर विरत प्रयत्न हो जाने वाले सुकुमार व्यक्तियों को तपस्वी मुमुक्षुओं की दृढ़ता से शिक्षा लेनी चाहिये कि अपनी ध्येय पूर्ति के लिये किये जाने प्रयत्नों में एक क्या अनेक जन्मों की असफलताओं को कोई महत्व नहीं देते।
संसार में ईसा, सुकरात, तुलसी, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि न जाने कितने महात्मा एवं महापुरुष ऐसे हुए हैं जिनको जीवन भर असफलताओं, संकटों तथा विरोधों का सामना ही करना पड़ा। किन्तु वे एक क्षण को भी न तो अपने ध्येय से विचलित हुए और न निराश ही। वे तन-मन से अपने प्रयत्न में निरन्तर लगे ही रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि अपने जीवन के बाद संसार ने उन्हें परमात्मा के रूप में पूजा, उन्हें जीवन का आदर्श बनाया और उनके स्मारक स्थापित किये। उनके जीवन की पराजय जीवनोपरान्त महान विजय में बदल गई।
किन्तु पराजय से विजय और असफलता से सफलता का जन्म होता तभी है जब मनुष्य उनसे नई शिक्षा, नई स्फूर्ति, नया साहस और नया अनुभव लेकर आगे बढ़ता रहता है। जिसने असफलता को केवल असफलता समझ कर छोड़ दिया उसकी उपेक्षा कर दी और उससे किसी शिक्षा का लाभ नहीं उठाया तो उसकी मूल्यवान असफलता मात्र असफलता बन कर ही रह जाती है और तब ऐसी असफलता का सफलता अथवा पराजय का विजय में बदलना कठिन हो जाता है।