Magazine - Year 1966 - Version 2
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शरीर ही नहीं अन्तःकरण निरोग रखें-
मनुष्य जितना शरीर का ध्यान रखता है, उसके पालन-पोषण में लगा रहता है, यदि उसका आधा ध्यान अपने अन्तःकरण की ओर दे तो उसका कल्याण होते देर न लगे। मनुष्य-जीवन का सुख शरीर में नहीं अन्तःकरण में है। शरीर के माध्यम से भी जो सुख की अनुभूति होती है वह भी अन्तःकरण से ही उत्पन्न होती है।
शरीर में जरा सी चोट लग जाने पर या कोई रोग हो जाने पर मनुष्य उसके उपचार में दिन-रात लगा रहता है। किन्तु सारी अनुभूतियों के केन्द्र अपने अन्तःकरण की जरा भी परवाह नहीं करता।
अन्तःकरण के रोगी होने अथवा आहत होने पर उसकी उपेक्षा कर देता है। अन्तःकरण का राजरोग उसकी दूषित प्रवृत्तियाँ हैं। इनका निराकरण कर देने से वह निरोग होकर एक स्थायी सुख का कारण बन जाये, ऐसा सुख जिसे किसी बाह्य साधन अथवा उपादान की आवश्यकता नहीं रहती।
—सेनेका
खर्च कर सकना संभव नहीं। जितने में तीन-चार बच्चों का पेट पलता है उतना ही एक बूढ़े बैल को चाहिए। यह साधन कैसे जुटे?
कसाई के हाथों बूढ़े गाय-बैल बेचने की आवश्यकता नदी की तरह उफनती नहीं वरन् वह अपना रास्ता खार-खंदकों से होकर आप बनाती चलती है। वैसे ही पशु वध और माँस विक्रय के अनेक मार्ग और सरंजाम गुप्त एवं प्रकट रूप से बन कर खड़े हो जाते हैं। जिन प्रान्तों में गौ वध पर प्रतिबन्ध है वहाँ भी कुछ छिप कर खूब गौ हत्या होती है। कानून की खामियां दूर करने बहुत आवश्यकता है। साथ ही यह भी सोचना होगा कि आखिर ऐसा होता क्यों है? हत्यारे काटने के लिए उन पशुओं को ले कहाँ से आते हैं? बात घूम-फिर कर फिर वहीं आ जाती है कि पशु वाले उन्हें अनुपयोगी रहने पर अपने आश्रय में नहीं रख पाते और वे अन्ततः छुरों के नीचे ही जा पहुँचते हैं। समस्या का हल करना उतना ही आवश्यक है जितना सरकार द्वारा गौवध पर प्रतिबन्ध लगाना। दोनों पहलू सँभालने से ही गौ संरक्षण और संवर्धन की समस्या हल होगी।
गाँधी जी ने स्वराज्य आन्दोलन आरम्भ किया था तब अंग्रेजों को हटाने पर उनने जितना जोर दिया था उतना ही जोर इस बात पर दिया था कि वे कारण मिटाये जायँ जिनके कारण सात समुद्र पार करके अंग्रेजों को भारत आने और यहाँ अपना शासन जमाने का अवसर मिला।
भारतीय जनता में प्रचलित अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ इसका कारण थीं। उसने उनके विरुद्ध भी जहाद बोली। उन्होंने हरिजन उत्थान, ग्रामोद्योग, सफाई, मद्य निषेध जैसी रचनात्मक प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया। वे कहते थे यदि देश आन्तरिक दृष्टि से समर्थ न बन सका तो अंग्रेजों के चले जाने पर भी स्वराज्य का लाभ न मिल पाएगा।
हमें रीति-नीति के साथ हमें गौरक्षा की ओर ध्यान देना होगा। गौ रक्षा पर प्रतिबन्ध ही आवश्यक नहीं वरन् उससे भी अधिक आवश्यक उसकी उपयोगिता की जानकारी को और अधिक बढ़ाया जाय, उसे आर्थिक दृष्टि से भी अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाय। विदेशों में यहाँ पर कानूनी प्रतिबन्ध नहीं है वहाँ कोई गाय काटने की कल्पना भी नहीं करता। किसी कसाई की हिम्मत नहीं होती कि वह काटने के लिये गाय खरीदने की बात सोचे। क्योंकि वहाँ आर्थिक दृष्टि से गाएँ इतनी उपयोगी हैं। कि उनको माँस के लिए खरीदा ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति हमें भी अपने देश में पैदा करनी होगी। अन्यथा कानूनी प्रतिबन्ध भी उसी तरह निरर्थक हो जाएगा जिस प्रकार सभी अपराधों के विरुद्ध कानून रहते हुए भी वे लुक-छिप कर व्यापक रूप से फलते-फूलते रहते हैं।
गौरक्षा आन्दोलन का एक-एक महत्वपूर्ण पहलू रचनात्मक भी होना चाहिये। दस-पाँच लंगड़ी-लूली गायें इकट्ठी करके उनके नाम पर चंदा उगाहने वाली गौशालाएँ खोल देना इसके लिए पर्याप्त न होगा। वरन् इस आन्दोलन को उतना ही व्यापक रूप देना होगा जैसा कि इन दिनों सूखाग्रस्त क्षेत्र में कच्चे कुएं खोदने आदि के तात्कालिक कार्यक्रम सोचे और चलाये जाते हैं। गौ की उपयोगिता बढ़ाना ही गौरक्षा की सबसे बड़ी गारंटी हो सकती है।
इस संदर्भ में एक बड़ा आवश्यक कार्य यह है कि जनसाधारण को गौ दुग्ध की उपयोगिता और महत्ता समझाई जाय। आज लोग गाय के दूध की तुलना में भैंस का दूध पसन्द करते हैं। गाय के दूध में चिकनाई कम होती है, स्वाद कम होता है, इससे मरीजों को छोड़कर न तो पीने वाले उसे खरीदते हैं और न दूध विक्रेता। ग्वाले गाय के बकरी के दूधों को या तो सस्ता बेचते हैं या फिर भैंस के में मिला कर किसी प्रकार उस बला को सिर से उतारते हैं। गाय उन्हें भैंस की तुलना में दूध की दृष्टि से कम उपयोगी सिद्ध होती है। फलस्वरूप वे उसे पालने का झंझट भी छोड़ देते हैं। किसान को भी गौ पालन की तुलना में भैंस पालन लाभदायक दीखता है। अतएव उसके खूँटे पर गाय नहीं भैंस दिखाई देती है।
इस स्थिति को बदलना होगा। अच्छी दुधारु गायें खरीदने और पालने की व्यवस्था बनाने से गौ दूध की मात्रा तो बढ़ सकती है फिर भी यदि उसका उचित मूल्य नहीं मिला उचित खपत न हुई तो समस्या फिर भी बनी ही रहेगी। अतएव जनमानस में बैठी हुई मान्यता को बदलने के लिए व्यापक आन्दोलन किया जाना चाहिए कि ‘गाय के दूध से भैंस का दूध अच्छा होता है।’ सच्चाई यह है कि शरीर पोषण और मानसिक विकास के लिए जिन जीवन तत्वों की नितान्त आवश्यकता है वे गाय के दूध में है, भैंस के में नहीं। चिकनाई के लिए ही दूध नहीं पिया जाता, उसकी वास्तविकता उपयोगिता तो उन तत्वों में है जो चिकनाई के अतिरिक्त अनेक क्षारों और विटामिनों के रूप में पाये जाते हैं। लोग उनकी उपयोगिता समझते ही नहीं। स्वाद और चिकनाई की कसौटी पर ही दूध की परख करते हैं। चिकनाई तो तेलों से भी मिल सकती है। इसके लिऐ जो दूध खरीदते हैं वे भ्रम में हैं। दूध में जो पोषण तत्व हैं, उनका चिकनाई से कोई सम्बन्ध नहीं। यदि शारीरिक और मानसिक लाभ लेना है तो उसकी वास्तविक आवश्यकता गौ दूग्ध से ही पूरी हो सकती है और यदि वह अपनी इस विशेषता के कारण भैंस के दूध से महंगा मिलता है तो भी उसे खरीदा जाना चाहिए। यह मान्यता जिस दिन जनमानस में मजबूती से जड़ जमा लेगी, उस दिन गौ पालन एक उपयोगी धन्धा बन जायगा और लोग उस ओर दिलचस्पी लेंगे और दुधारु गायों का बाहुल्य कुछ ही दिनों में दीखने लगेगा।
गौ पालन का कार्य सुव्यवस्थापूर्वक करने के लिए इसी तरह के कुटीर उद्योग तथा संगठित बड़े उद्योग चलाये जायँ जिस तरह तेल आदि के उत्पादन की छोटी-बड़ी योजनाएँ चलती हैं। गौ दुग्ध और गौ घृत बेचने की ऐसे विश्वस्त दुकानें खुले जहाँ विश्वास की और प्रामाणिक वस्तु मिल सकें। जिस तरह चाय वाले और बीड़ी वाले अपने उत्पादन की खपत बढ़ाने के लिए विविध प्रकार से विज्ञापन करते हैं, गौ रस की महत्ता जन साधारण को समझाने के लिए वे गौ रस उत्पादन केन्द्र प्रयत्न करें। सार्वजनिक संस्थाएँ और गौरक्षा समितियाँ भी इस कार्य को हाथ में लें और लोग-मानस में गौ दुग्ध की उपयोगिता की मान्यता स्तर तक हृदयंगम कराने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें।
जिस प्रकार स्वराज्य आन्दोलन के दिनों में सभी काँग्रेस नेता चरखा कातने और खादी पहनने का कार्य इसलिए करते थे कि स्वदेशी को प्रवृत्ति जनमानस में उतरे और उनके अनुयायी अनुकरण करें, उसी प्रकार धार्मिक एवं सामाजिक नेताओं तथा गौरक्षा प्रेमियों को गौ दुग्ध ही सेवन करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। इसका प्रभाव उनके अनुयायियों पर पड़ेगा और गौ दुग्ध की खपत के साथ-साथ गौ पालन का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
गौ हत्या के कारणों में एक बड़ा कारण चमड़े का व्यापक उपयोग भी है। चमड़े की खपत दिन-दिन बढ़ती जाती है। फलस्वरूप माँस और चमड़ा दोनों की कीमत मिला कर कसाई काफी नफे में रहते हैं। चमड़े की खपत घट जाय तो वह स्वभावतः सस्ता होगा और तब हत्या व्यवसाय आज का जितना लाभदायक न रहेगा ऐसी दशा में गौवध स्वतः काफी घट जायगा।
वृद्ध गोवंश की रक्षा के लिए गोचर भूमियों की व्यवस्था की जानी चाहिए। उनके गोबर का भी यदि ठीक तरह उपयोग होने लगे तो उस कीमती खाद से उतना मूल्य प्राप्त किया जा सकता है जिससे उनकी जीवन रक्षा का खर्च चलाया जा सके। गोचर के लिए हर गाँव में बड़ी भूमि छोड़ी जा सके तो उस गोबर का जो खाद मिलेगा उससे वहाँ की अन्नोत्पादन क्षमता बढ़ेगी, घटेगी नहीं। यह वृद्ध पशु यदि थोड़ा बहुत शारीरिक श्रम कर सकते हों तो भार ढोने में जैसे गधे थोड़ा-थोड़ा काम कर लेते हैं, वैसा उनसे भी लिया जा सकता है। उसी प्रकार बूढ़े और अनुपयोगी गोवंश को भी एक सीमा तक उपयोगी बनाया जा सकता है। मरने पर चमड़ा, हड्डी, सींग तथा माँस से खाद जैसे जो लाभ मिलते हैं उनको भी जीवन काल में पेशगी खर्च किया जा सकता है। प्रयत्न करने पर वृद्ध पशु भी अपने जीवन के कुछ दिन बिना किसी मुश्किल शाँतिपूर्वक व्यतीत कर सकने की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।
गौरक्षा के लिए रचनात्मक कार्यों के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। गोवध बन्द करवाने का यह दूसरा पहलू भी आँख से ओझल हो जाता है। गौ रक्षण के साथ-साथ गौ प्रबंधन भी आवश्यक है।
अपनों से अपनी बात—