Magazine - Year 1967 - Version 2
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बीसवीं शताब्दी में युग-परिवर्तन
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“वाशिंगटन, 18 जून। बीसवीं सदी में हुई लड़ाइयों में मरने वाले व्यक्तियों में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या उससे पूर्व की सदियों में लड़ी गयी लड़ाइयों में मरने वालों की संख्या से कहीं अधिक है। 1967 वर्ष के शुरू होने से पूर्व ही यह अनुमान था कि सन् 1900 से लेकर अब तक हुई लड़ाइयों में दस करोड़ से भी अधिक व्यक्ति मारे गये हैं। इस संख्या में दो विश्व युद्धों में मरने वाले व्यक्तियों की भी संख्या शामिल है।”
(नव भारत टाइम्स, 19 जून 67)
इस समाचार से एक बहुत बड़ी बात जो प्रकट होती है वह यह है कि मनुष्य ने अपनी संहारक शक्ति को पिछले सौ वर्षों में इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसका हिसाब लगा सकना भी कठिन है। गत अठारह शताब्दियों में रोम साम्राज्य का प्रसार, इस्लाम द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के एक बड़े भाग की विजय, ‘क्रुसेडों’ का सौ वर्ष व्यापी युद्ध, नैपोलियन के योरोपीय संग्राम, अमरीका का स्वाधीनता संग्राम, भारतवर्ष का गदर आदि अनेकों इतिहास प्रसिद्ध संग्राम हुये और छोटी-बड़ी स्थानीय तथा प्रादेशिक लड़ाइयाँ तो कई सहस्र की संख्या में लड़ी गयीं, पर उन सब में मिल कर इतने मनुष्य नहीं मारे गये जितने बीसवीं सदी के इन 66 वर्षों में।
इस समाचार पर अविश्वास करने या इसका कारण ढूँढ़ने के लिये अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं। 18 वीं शताब्दी तक युद्ध का सबसे बड़ा हथियार बन्दूक था और वह भी ऐसी कि एक मिनट में एक गोली चला देना भी बड़ा काम समझा जाता था। फिर यह बन्दूक भी पिछले दो डेढ़ सौ वर्षों से ही किसी काम लायक बन पाई थी। उसके पहले के मुख्य हथियार थे तलवार, भाला और तीर-कमान। इन सबकी मार बहुत सीमित है। तलवार केवल सामने खड़े व्यक्ति को ही मार सकती है, भाले से दस-पाँच गज की दूरी पर वार किया जा सकता है और तीर-कमान सामान्यतः सौ-दो सौ गज तक काम कर सकती है।
पर 19 वीं शताब्दी में जब विज्ञान का नियमबद्ध अध्ययन तथा खोज का कार्य आरम्भ हो गया और उससे प्राप्त ज्ञान को भौतिक लाभ के पदार्थ बनाने में खर्च किया जाने लगा तो स्थिति बदल गई। स्वार्थी और लालची लोगों ने विज्ञान का गठबन्धन व्यापार (कमर्शलिज्म) के साथ कर दिया। इससे वे विज्ञान की उसी शाखा को प्रोत्साहन और बढ़ावा देने लगे जिसका व्यापारिक उपयोग करके रुपया कमाया जा सकता था। चूँकि हथियार और युद्ध-सामग्री बना कर बेचना भी एक बहुत बड़ा व्यापार या पेशा था इसलिये लोग वैज्ञानिक प्रयोगों की सहायता से उस क्षेत्र में भी तरक्की करने में जुट गये। साधारण बंदूकों से ऑटोमेटिक रायफलें, मशीनगनें, हथगोला आदि तैयार किये जाने लगे जो एक से बढ़ एक शक्तिशाली थे। फिर जब हवाई जहाज का आविष्कार हो गया और लोगों ने देखा कि इससे चाहे जहाँ अचानक आक्रमण किया जा सकता है तो उसमें प्रयोग करने के लिये बड़े-बड़े बम बनाए जाने लगे जो दस-बीस मन से बढ़ते-बढ़ते सौ-पचास मन तक पहुँच गये।
प्रथम महायुद्ध (सन् 1914) में तो हवाई जहाजों का विकास बहुत कम हो सका था और इसलिये उनके द्वारा युद्ध में काम भी थोड़ा ही लिया गया, पर दूसरे महायुद्ध (1939) को तो मुख्यतः हवाई जहाजों द्वारा ही लड़ा गया। हिटलर ने दो-दो हजार हवाई जहाज एक साथ लगा कर इंग्लैंड पर लगातार चौबीस घण्टे बम वर्षा कराई जिससे वह घबरा कर हार मान ले। उसने पैराशूट द्वारा सैनिक उतार कर विभिन्न देशों के कई स्थानों पर अधिकार भी कर लिया। पचासों नगरों को कल कारखानों सहित मटियामेट कर दिया। पर लोगों का मन इतने नाशकारी हथियारों से भी नहीं भरा और वे ऐसा हथियार ढूंढ़ने के लिए विज्ञान का सहारा लेने लगे जिससे किसी देश का नाश करने का उद्देश्य हफ्तों और महीनों के बजाय घन्टों और दिनों में ही पूरा हो जाय। विज्ञान भी औघड़ दानी महादेव से कम नहीं है। उसने भक्तों की यह आकाँक्षा भी पूर्ण की, पर इस बार ऐसा भयंकर अस्त्र दिया कि जिससे दूर के साथ अपना भी नाश हो जाय। जब वैज्ञानिकों ने सन 1945 में अणु-बम बना कर तैयार किया तो उसका परीक्षण बड़े डरते-डरते किया कि कहीं उससे अपना देश ही खत्म न हो जाय। फिर जब उसका प्रयोग किया गया तो हिरोशिमा और नागासाकी ऐसे स्थान चुने गये जिनका प्रभाव यथासम्भव वहीं पर सीमित रह जाय, वहाँ से बाहर उसका प्रभाव कम से कम पड़े।
पर जब युद्धोन्मादियों के हाथ में अणु-शक्ति की कुँजी आ गई तो वे उसका अधिकाधिक विकास करने लगे और उन्होंने कुछ ही समय में ‘एटम बम’ से बढ़ कर ‘हाइड्रोजन’ बम का आविष्कार कर डाला। अब मनुष्य के हाथ में ऐसी शक्ति आ गई कि वह चाहे तो दस-पाँच करोड़ के देश को कुछ घण्टों में ही पूरी तरह नष्ट कर दे, पर साथ ही यह भी खतरा पैदा हो गया कि वह स्वयं भी उसके प्रभाव से नहीं बच सकता। अगर वह किसी देश को दस-बीस घण्टे में नष्ट करेगा तो दस-बीस दिन बाद उसका देश भी बम के घातक प्रभाव को अनुभव करने लगेगा।
जब लोगों को अणु-शक्ति के इस नाशकारी प्रभाव का पता चल गया तो अन्य देश भी उसकी तैयारी में लग गये और कम से कम पाँच देश इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ चुके हैं। अब इस बात का पूरा निश्चय हो चुका है कि यदि दो देशों में अणु-युद्ध हुआ तो उनका सर्वनाश तो तत्काल ही हो जायगा पर अन्य देश भी उससे नहीं बचेंगे। बमों से उड़ने वाली रेडियोधर्मी धूल आकाश मार्ग से समस्त संसार में फैल जायगी और उतने ही अधिक परिमाण में बिना लड़ाई-भिड़ाई के लोगों का मरना आरम्भ हो जायगा। अणुबम का यह प्रभाव दस-पाँच दिन या चार-छः महीने ही नहीं रहेगा वरन् वह बीसियों वर्ष तक इसी प्रकार अपना संहार-कार्य करता रहेगा और लोगों को ऐसे-ऐसे कष्ट देकर तथा विकृतियाँ पैदा करके मारेगा कि उस समय पृथ्वी पर साक्षात् नर्क का दृश्य ही दिखलाई पड़ने लगेगा।
जैसा इस लेख के आरम्भ में उद्धृत किये गये समाचार में कहा गया है कि इस शताब्दी के 66 वर्षों में जितने व्यक्ति युद्धों में मारे गये हैं उतने पिछली 19 शताब्दियों में सब मिला कर भी नहीं मारे गये थे। उसी प्रकार हम भी यह कह सकते हैं कि जितने मनुष्य इन 66 वर्षों में मारे गये हैं उससे दस गुने मनुष्य अगले दस-पन्द्रह वर्षों में (1980 तक) मारे जायेंगे।
स्त्रियों और मजदूरों का उत्कर्ष-
दूसरी बड़ी उल्लेखनीय विशेषता इस शताब्दी की यह होगी कि अभी तक मानव-समाज के दो बड़े भाग-स्त्रियों और मजदूर-तरह-तरह के बन्धनों और हीनावस्था में रखे गये हैं, वे अब ऊपर उठेंगे और जो पूँजीपति, जमीन जायदाद वाले आदि अभी तक ‘मालिक’ बन कर शान दिखलाते रहे हैं वे नीचे गिरते चले जायेंगे। सच पूछा जाय तो वर्तमान समय में जो क्राँति मची है, संसार में एक अभूतपूर्व हलचल व्याप्त है उसका मूल कारण इन दो दबे वर्गों का बन्धनमुक्त होकर उच्चस्थिति की तरफ अग्रसर होना ही है। कुम्भ-युग अथवा ‘ऐक्वेरियन एज’ का मुख्य लक्षण ऐसे पददलित समुदायों को उठा कर स्वामित्व प्रदान करना ही है। इसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं कि जब कभी कोई ऐसी घटना होगी, अर्थात् समाज का शासन-सूत्र एक समुदाय या वर्ग के हाथ से निकल कर दूसरे वर्ग के अधिकार में जायगा, तो अवश्य ही ऐसा संघर्ष छिड़ेगा जिससे मानव-समाज की जड़ तक हिल जायगी। जिस व्यक्ति या समुदाय के हाथ में एक बार शासन सत्ता अथवा संचालन का अधिकार आ जाता है वह उसे राजी से कदाचित् ही छोड़ता है।
आज यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि बड़े-बड़े पूँजीपतियों, कल-कारखानों के स्वामियों, बैंकरों, जमीन जायदाद के मालिकों, व्यापार-व्यवसाय पर एकाधिकार रखने वालों का जमाना समाप्त हो चुका। समाज की वर्तमान स्थिति में उनकी आवश्यकता नहीं है। यदि वे बने रहेंगे तो उनके कार्य समय तथा परिस्थिति के प्रतिकूल सिद्ध होंगे और उनसे समाज का अहित ही होगा। फिर भी मोह−माया वश वे अपने पद से हटने को तैयार नहीं और जो उनसे ऐसी बात कहता है उसे दुश्मन समझ कर लड़ने को तैयार होते हैं। यद्यपि उनके निष्कासन की प्रक्रिया आरंभ हो गई है और कितने ही देशों में उनके हाथों से सत्ता छीनी जा चुकी है, पर अब भी आंखें नहीं खुलतीं। वे इसे एक प्राकृतिक नियम तथा विकास का सिद्धाँत समझने के बजाय अन्य दल वालों का षडयन्त्र, अनुचित हस्तक्षेप मानते हैं और पुराने कानूनों अथवा किसी गुजरे जमाने और भिन्न परिस्थितियों में लिखे गये ‘धर्मग्रन्थों’ का सहारा लेकर ‘आत्म-रक्षा’ के लिये हाथ-पैर मारते हैं।
यद्यपि इन सिद्धाँतों का प्रचार योरोप में दो-तीन सौ वर्ष से हो रहा है और गिल्ड सोशलिज्म, सिण्डीकैलिज्म, स्टेट सोशलिज्म, एनारकिज्म, कम्यूनिज्म के नाम से भिन्न-भिन्न देशों में इस उद्देश्य की पूर्ति के प्रयत्न किये जाते रहे है, पर बीसवीं शताब्दी से पहले कार्य रूप में उनको अधिक सफलता नहीं मिल सकी। बहुत से मजदूर कभी-कभी हड़ताल कर देते थे, पर तब तक उनकी शक्ति अपर्याप्त होने से उन्हें बहुत थोड़ी सफलता मिल पाती थी। पर बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से मजदूरों ने अपनी अनेक हड़तालों के असफल होने से अनुभव प्राप्त करके अपना संगठन मजबूत करने का निश्चय किया जो ‘ट्रेड यूनियन’ आँदोलन के रूप में कुछ समय में संसार के सब देशों में फैल गया। धीरे-धीरे इन संगठनों ने अपने प्रतिनिधि शासन सभाओं में भेजने और वहाँ अपने हितों की रक्षा करने वाले कानून बनवाने की तरफ ध्यान दिया। जब सन् 1917 में रूस के मजदूरों ने शासन-सत्ता अपने हाथ में ले ली और वहाँ श्रमजीवियों का मजबूत राज्य कायम कर दिया तो संसार के अन्य देशों के मजदूरों का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ और धीर-धीरे कई देशों में साम्यवादी शासन स्थापित हो गये।
यही स्थिति स्त्रियों के दर्जा के विषय में भी दिखलाई पड़ रही है। 19 वीं सदी में भारतवर्ष ही नहीं योरोप तक में स्त्रियों को किसी प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। वहाँ यद्यपि पर्दा प्रथा नहीं थी और शिक्षा के संबंध में भी कोई प्रत्यक्ष प्रतिबन्ध नहीं था, तो भी स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बहुत सीमित था और वे सार्वजनिक आँदोलनों में खुल कर कदाचित् ही कहीं भाग लेती थीं। सन् 1900 के बाद भी इंग्लैण्ड और योरोप के अन्य देशों में स्त्रियों को शासन सभा के लिये ‘वोट’ देने का अधिकार नहीं था। जब सन् 1910 के आस-पास मिसेज पैंखर्स्ट ने इसके लिये आँदोलन उठाया और सैंकड़ों स्त्रियों ने जेल और जुर्माने की सजा सही तथा एक-दो मर भी गई तब जाकर 1920-21 में उन्हें कुछ अधिकार मिले। पर अब भी अनेक देशों में उन्हें वोट का अधिकार नहीं मिला है। सदस्य होने और शासनाधिकार की तो बात ही दूर रही।
पर अब हवा का रख बदला है। भारत जैसे सबसे अधिक रूढ़िवादी देश में, जहाँ के प्राचीन मनीषी स्पष्ट कह गये थे कि- “न स्त्रिया स्वतन्त्र मर्हति” इस समय कई साल से एक स्त्री ही देश की सबसे मुख्य शासनाधिकारी है और अन्य सैकड़ों स्त्रियाँ केन्द्रीय और प्राँतीय शासन-सभाओं की सदस्या हैं। स्त्री-गवर्नर, स्त्री-मैजिस्ट्रेट, स्त्री-वकील, स्त्री-प्रोफेसर, स्त्री-राजदूत आदि का भी अभाव नहीं है। लड़कों की तरह लड़कियों का भी ‘गर्ल्स गाइड’ बनाया गया है, जिसमें भाग लेने वाली लड़कियों की संख्या कई लाख तक पहुँच चुकी है। विदेशों की स्त्रियाँ तो विद्या, कार्य कुशलता में बहुत आगे बढ़ चुकी हैं। वे पुरुषों के समझे जाने वाले कितने ही कामों को बड़ी योग्यता से कर रही हैं और अनेक क्षेत्रों में पुरुषों से आगे भी निकल जाती हैं।
आज हम कभी-कभी यह बात सुना करते हैं कि- “संसार के शासन-संचालन में पुरुष असफल सिद्ध हुये हैं, इसलिये अब यह कार्य स्त्रियों को दे दिया जाय।” हम अच्छी तरह समझते हैं कि जो ऐसी बात कहते हैं, उनमें से थोड़े ही ऐसे होते हैं जो इस पर हृदय से विश्वास करते हों, अन्यथा अधिकाँश मनोविनोद के भाव से ही ऐसा कहते हैं। सुनने वाले भी इस पर प्रायः विरक्ति अथवा व्यंग विद्रूप के स्वर में अपनी सम्मति प्रकट करते हैं। ये लोग इस बात को सम्भव नहीं समझते हैं कि स्त्रियाँ समाज-संचालन का कार्य ठीक तरह सम्पन्न कर सकती हैं। हम भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि वर्तमान समय में स्त्रियाँ जिस वातावरण में रह रही हैं और हजारों वर्षों से उनको जिस प्रकार बन्धनों में ‘अबला’ बना कर रखा गया है उससे उनके स्वभाव में अनेक त्रुटियाँ उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। जब स्त्रियों को प्रायः घर की चहार-दीवारी के भीतर ही रखा जायगा और जब वे बाहर निकलेंगी तो उनकी इस प्रकार देख-भाल और चौकीदारी की जायगी मानो वे एक जीवधारी, स्वावलम्बी प्राणी के बजाय एक बहुमूल्य जायदाद हों, तो ऐसी दशा में उनके विचारों और मस्तिष्क का विकास हो सकना कैसे संभव हो सकता है? जो व्यक्ति पीढ़ियों से ऐसा ही जीवन बिता रहा हो और जिसे जन्म-काल से ही पराधीनता को शिरोधार्य करने की शिक्षा दी गई हो, उससे किसी बड़े काम की आशा कैसे की जा सकती है?
पर यह ख्याल करना कि यह दशा बदल नहीं सकती और स्त्रियाँ समाज-संचालन के अयोग्य हैं, एक प्रकार की विचारहीनता है। स्त्रियों में भी पुरुष के समान विवेक, बुद्धि, भावुकता, प्रेम, क्रोध आदि सब बातें मौजूद हैं। उनको जिस वातावरण में रहना पड़ेगा वैसा ही उनका शारीरिक और मानसिक गठन हो जायगा। यह ख्याल रखना कि स्त्रियाँ कोमल हृदय, प्रेमी, भावुक, चंचल स्वभाव की होती है इसलिये वे दृढ़ता के साथ देश तथा समाज का शासन नहीं कर सकतीं, एक भूल है। समय पड़ने पर अब भी स्त्रियाँ पुरुषों की तरह वीरता के कार्य कर दिखाती हैं और भिन्न प्रकार के वातावरण में रह कर तो उनकी बिल्कुल कायापलट हो जाती है। उदाहरण के लिये स्त्रियों के लिये यह ख्याल किया जाता है कि वे बड़ी ममतामयी और दयालु चित्त वाली होती हैं, इसलिये शासन कार्य में कठोरता का व्यवहार करना, दुष्टों का दमन करना, शत्रुओं का संहार करना आदि कार्य उनसे ठीक ढंग से नहीं हो सकते। पर लगभग दो-तीन हजार वर्ष पहले पश्चिमी एशिया के एक प्रदेश में ‘अमेजन’ नाम की स्त्रियों का राज्य था जो किसी पुरुष को अपने यहाँ नहीं आने देती थीं। वे बड़ी लड़ाका थीं और युद्ध में अच्छी तरह बाण चला सकें इसके लिये अपने दाहिनी तरफ के स्तन को आरम्भ से ही काट डालती थीं। प्रति वर्ष आसपास के अन्य राज्यों पर आक्रमण करके वहाँ से कुछ पुरुषों को पकड़ लाती थीं और उनसे समागम कर के संतानोत्पत्ति करती थीं। बच्चों में जितनी लड़कियाँ होतीं उनको पाल लिया जाता और लड़कों को मार देती थीं। उन पुरुषों को भी गर्भ धारण के बाद मार दिया जाता था। यूनानी इतिहासकारों ने इस ‘अमेजन’ जाति की स्त्रियों का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है। वर्तमान समय में भी हम देखते हैं कि पहाड़ी और जंगली इलाकों में खेती का काम करने वाली ग्रामीण स्त्रियाँ अवसर आने पर बघेर, तेंदुआ आदि भयंकर जंगली जानवरों को दरातों से मार देती हैं जब कि शहरों के अच्छे ताकतवर व्यक्ति भी उनका नाम सुन कर घबड़ाते हैं। गत वर्षों में कितने ही स्थानों में युवती स्त्रियों और लड़कियों ने समय पड़ जाने पर डाकुओं का सामना किया है और उनको मार दिया है। इसलिये यह विचार करना कि स्त्रियाँ सदा आज के समान भीरु और चंचल स्वभाव ही बनी रहेंगी और शासन के योग्य नहीं बन सकतीं, वास्तविकता से अनजान होना है। जहाँ स्त्रियों को पूरी आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त हुई और समाज संचालन का भार उनके कन्धों पर पड़ा कि सौ पचास वर्ष में वे बहुत कुछ बदल जायेंगी और दो-चार सौ वर्ष बाद तो उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस तथ्य को ज्योतिर्विज्ञान के महान ज्ञाता ‘कीरो’ ने निम्नलिखित जोरदार शब्दों में प्रकट किया है-
“संसार के समस्त देशों की स्त्रियों ने इन दिनों बड़ी प्रगति की है और घोर प्रतिगामी व्यक्तियों और संस्थाओं के विरोध का मुकाबला करते हुए ऊँचा दर्जा प्राप्त कर लिया है। इन बातों को ध्यान में रखते हुये और साथ ही यह जानते हुये कि ‘नव युग’ जिसमें हम लोग प्रवेश कर रहे हैं, दैवी-विधान के अनुसार एक ऐसा समय है जिसमें स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक विभाग में अग्रगामी होंगी, मुझे यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि कोई भी मानवीय संस्था अधिक समय तक स्त्रियों को शक्ति प्राप्त करने से नहीं रोक सकती, फिर चाहे इनका परिणाम अच्छा निकले या बुरा।”
इस प्रकार यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि बीसवीं सदी निश्चय रूप से युग-परिवर्तन के लिये निर्णायक सिद्ध होगी और इसके अन्त तक एक नये समाज की रचना होकर मानव-जाति एक नवीन युग में प्रवेश करेगी।