Magazine - Year 1967 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
राजनीतिज्ञों की दृष्टि में भी विश्वयुद्ध अनिवार्य है।द्म॥द्मद्धस्र;द्म;स्रह्यद्म;स्रद्म॥द्मस्रह्य;द्मश॥द्म॥
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
योगियों और सन्तों के कथनानुसार बीसवीं शताब्दी (सन् 2000 तक ) मानवजाति के परस्पर विरोधी समुदायों में महा भयंकर घमासान युद्ध होकर नवयुग की स्थापना हो जाना एक निश्चित तथ्य है। इन कथनों में एक महत्व की बात यह भी है कि ये प्रायः विभिन्न समयों में और देशों में कहे गये हैं जैसे- पैलेस्टाइन, बुखारा (रूस), फ्राँस, भारत आदि, तो भी सबमें इनके घटित होने का समय बीसवीं शताब्दी ही बतलाया गया है। वैसे तो इस शताब्दी के आरम्भ से ही युग-परिवर्तनकारी घटनाओं का सिलसिला लग गया है और जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनकी तीव्रता बढ़ती जाती है। अब इस शताब्दी का चतुर्थ चरण समीप आ चला है, तो हमारा विश्वास है कि अन्तिम संघर्ष होकर नवयुग का कार्य प्रत्यक्ष रूप से आरम्भ हो आयेगा। इस दृष्टि से ‘अखण्ड ज्योति’ का युग निर्माण आन्दोलन भी विशेष महत्व रखता है। यह भारतीय जनता को नवयुग आगमन तथा उसके उपयुक्त बनने की प्रेरणा दे रहा है। क्योंकि अगर नवयुग आ गया और हम पुराने दोषों, समय के विपरीत मान्यताओं में ही ग्रस्त रहे तो उससे कुछ भी लाभ उठा सकेंगे। इतना ही नहीं वरन् जैसा एक महिला सन्त ने कहा है-’उस अवसर पर ऐसे लोगों का अस्तित्व कायम रह सकना कठिन होगा जिनमें आध्यात्मिक शक्ति की कमी या अभाव होगा। इसलिये युग परिवर्तन के इस संदेश को जान लेने के पश्चात हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य यही है कि हम अपनी कर्तृत्व-शक्ति को बढ़ायें, उसे सुमार्ग पर लगायें और स्वार्थ-भाव को सीमित करके सेवा और सहयोग की वृत्तियों को जागृत करें।
जिस प्रकार अध्यात्मवादियों के कथनों से वर्तमान समय में विश्वव्यापी संघर्ष के अंतिम शिखर तक पहुँचने की बात प्रकट होती है वहीं राजनीतिज्ञों के वक्तव्यों से भी स्पष्ट मालूम पड़ता है कि अब निर्माण की घड़ी निकट ही आ पहुंची है। यद्यपि अनेक लोग अब भी तीसरे विश्वयुद्ध में सन्देह प्रकट करते रहते हैं, पर इस विषय का गम्भीरतापूर्वक मनन करने वाले विद्वान 30-40 वर्ष पहले ही इस युग की समाप्ति होकर नया युग आने की घोषणा कर चुके थे। इस सम्बन्ध में एक वक्तव्य जो अब से लगभग 25 वर्ष पूर्व पं॰ जवाहरलाल ने दिया था, जब कि वे भारत के प्रधान मन्त्री नहीं वरन् एक आन्दोलनकारी ही थे, उनके दृष्टिकोण को बड़े स्पष्ट रूप में उपस्थित करता है-
“इस समय दुनिया में बड़े जोरदार परिवर्तन हो रहे हैं तो भी दिन पर दिन यही दिखलाई पड़ता है कि वे आने वाली घटाओं के लक्षण मात्र हैं। हम इस समय एक ऐसे महान क्राँतिकारी युग में जीवित हैं जिसकी तुलना का युग शायद ही अब तक के इतिहास में मिल सके। यह क्राँति अपना नियत कार्यक्रम पूरा करके ही रहेगी। जब तक इसका कार्यक्रम पूरा नहीं होता तब तक हमारी पृथ्वी पर शान्ति या समझौते की कोई आशा नहीं है। हमें समझ रखना चाहिए कि पुरानी दुनिया अवश्य मरेगी, चाहे यह बात हमको पसन्द हो या नापसन्द। जो लोग इस पुरानी दुनिया के सबसे बड़े प्रतिनिधि थे, वे नष्ट होकर भूतकाल की चीजें बन चुके हैं।
“हमको यह समझ लेना चाहिए कि एक युग समाप्त हो चुका है और इस खून-खराबे (द्वितीय विश्वयुद्ध में) होकर हम नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह नया युग अवश्य ही बहुत अच्छा होगा, पर मैं इतना जानता हूँ कि वह बिल्कुल भिन्न प्रकार का होगा।”
जो लोग ऐसे परिवर्तन के लिये किसी अवतार की ही राह देखते रहते हैं उनसे नेहरू जी ने कहा - “मनुष्य समाज के उद्धार के लिए समय-समय पर इस देश में और अन्य देशों में भी महापुरुष पैदा होते रहते हैं। पर ऐसे किसी महापुरुष की अपेक्षा वह भावना कहीं बड़ी है, जिसको वह अपने जीवन-व्यवहार में पूरी कर बताता है। ऐसे महापुरुषों को लोग अवतार कहते हैं। इस युग का अवतार वह भावनायें ही हैं, जो कि मनुष्य समाज के सुधार के लिए प्रकट हो रही हैं। आज की वह भावना जिसको अवतार कहा जा सकता है, सामाजिक समानता है। आइये, इस अवतार रूपी भावना के संदेश को हम सुनें और उसके द्वारा पैदा होने वाली सामाजिक क्राँति के हम उपयुक्त साधक बनें। इससे मनुष्य का जीवन बदल जायगा और यह संसार मनुष्यों के निवास के लिए अधिक उपयुक्त बन जायगा।
दो सौ वर्ष बाद की दुनिया कैसी होगी-
श्री एच. जी. वेल्स इंग्लैंड के बहुत बड़े लेखक थे। वे संसार और मनुष्य जाति के भविष्य पर सदैव अपने विचार प्रकट किया करते थे। World set free (संसार कैसे बन्धन से मुक्त हुआ?) Sleeper awakes (सोने वाला जाग गया) Time machine (समय यन्त्र, आदि पुस्तकों में उन्होंने भावी संसार का चित्र खींचा है। The first man in the moon (चन्द्रमा में पहला मनुष्य )भी उनकी एक अद्भुत पुस्तक है जिसमें आज से 50-60 वर्ष पहले चन्द्रमा तक यात्रा करने की कल्पना की गई थी, जो अब पूरी होने के समीप आ गई है। अपने विशाल ज्ञान और आन्तरिक अनुभव के कारण उनको भविष्य में होने वाले परिवर्तन ऐसे ही प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते थे जैसे कोई वैज्ञानिक बड़ी भारी दूरबीन से आकाश के गूढ़ रहस्यों को देख लेता है अथवा कोई योगी समाधि-अवस्था में विश्व के अज्ञात प्रदेशों का दर्शन करता रहता है। अब से 35 वर्ष पूर्व 'The shape of things to come' (आगामी घटनाओं का स्वरूप) नामक पुस्तक लिखी थी जिसमें सन् 1939 के महायुद्ध की स्पष्ट शब्दों में सूचना देते हुए आगामी सौ डेढ़ सौ वर्षों के भीतर होने वाली संसार की कायापलट का वर्णन किया था।
इस 5-6 सौ पृष्ठों के ग्रन्थ में श्री वेल्स ने वर्तमान जगत की दुर्दशा के कारणों का विवेचना करते हुए नये संसार की नई मानव-जाति का चित्र बड़े विस्तार और स्पष्टता से खींचा है। उन्होंने कहा कि अभी पच्चीस-तीस साल संसार में भयंकर नाश, बर्बादी और सामाजिक क्राँति होकर सन् 2000 से कुछ पहले ही नये संसार का पुनर्गठन होने लगेगा। इसके फल से वर्तमान समय में दिखलाई पड़ने वाली राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक आदि सब प्रकार की प्रथाओं में पूर्ण रूप से परिवर्तन हो जायगा और समस्त संसार का शासन एक ही स्थान से समता और न्याय के सिद्धाँतानुसार किया जायगा। आरम्भ में उन लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए, जो पुराने विचारों के कारण नये सामाजिक विधान का विरोध करेंगे, शासन-परिषद् जल और वायु शक्ति को अपने अधिकार में रखेगी और जो पुराना शासक विद्रोह करने की चेष्टा करेगा उसे सामान्य वायुयानों द्वारा फैंके गये बेहोश करने वाले बमों से वश में कर लिया जायगा। इस प्रकार उस युग में वर्तमान समय में दिखाई पड़ने वाले अनावश्यक और निकम्मे भेदभावों का पूर्णतः अन्त कर दिया जायगा। प्रत्येक बालक को आदर्श शिक्षा दी जायगी। उसे अपनी शक्तियों को विकसित करने का हर तरह का अवसर दिया जायगा, अपनी रुचि और मनोवृत्ति के अनुसार सब प्रकार के साधन प्राप्त होंगे, जिससे कुछ ही समय में ऐसी मानव जाति का आविर्भाव होगा जो शारीरिक, मानसिक, आत्मिक दृष्टि से आज कल के मनुष्यों की तुलना में देवता ही प्रतीत होंगे। उदाहरण के लिये उस समय के वस्त्रों का वर्णन करते हुए श्री वेल्स ने जो कुछ लिखा है उसका साराँश इस प्रकार है-
“उस युग में वस्त्रों को धोने का रिवाज न रहेगा। सार्वजनिक स्टोरों में सब नाप के तैयार वस्त्र सदैव प्रस्तुत रहेंगे, जहाँ से लोग अपनी इच्छानुसार उनको ले सकेंगे और दस-पाँच दिन पहनने के बाद जब मैला होता देखेंगे तो उनको त्याग कर फिर नये वस्त्र ले लेंगे। पर वास्तव में उस समय लोगों की शारीरिक शक्ति तथा स्वास्थ्य में ऐसी आश्चर्यजनक उन्नति हो जायगी कि सर्दी-गर्मी से बचने के लिए वस्त्रों की आवश्यकता ही प्रतीत न होगी और वे सभ्यता की रक्षा की दृष्टि से शरीर ढकने के लिये कम से कम वस्त्रों का उपयोग करने लगेंगे।
“ऐसा ही अद्भुत परिवर्तन खान-पान, पठन-पाठन, गृहस्थ जीवन, निजी सम्पत्ति, मैत्री सम्बन्ध आदि के विषय में हो जायेंगे। उस समय संसार में रुपया, जायदाद या संग्रह करने का नाम भी न रह जायगा, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को, वह चाहे जहाँ चला जाय, सब प्रकार की वस्तुएँ अनायास मिल जायेंगी। उस परिस्थिति में पहुँच कर ‘भोजन और घर’ की समस्या से ऊपर जाकर मनुष्य दैवी और आत्मिक क्षेत्र में पदार्पण करेगा।”
ये बातें आज कल ‘रोटी और रुपया’ के लिए मरने वाले छोटे दिमाग के मनुष्यों को ‘ख्याली पुलाव’ जान पड़ेंगी पर इसका कारण यही है कि उनको पुराने और नवीन ‘विस्तृत विश्व’ का ज्ञान नहीं है। दुनिया में पहले भी कभी-कभी ऐसे परीक्षण हो चुके हैं खास कर भारतीय धर्म ग्रन्थों में सतयुग का जो चित्र खींचा गया है कि उस समय कामना करने से ही सब आवश्यक पदार्थ वृक्षों से मिल जाते थे, वह ऐसी अवस्था के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। विदेशी लेखक भी सैंकड़ों हजारों वर्षों से ऐसे कल्पना-राज्यों का वर्णन कर रहे हैं। प्लेटो की क्रद्गश्चह्वड्ढद्यद्बष् (प्रजातन्त्र ) मोरिस विलियम का हृद्गख्ह्य द्धह्शद्व ठ्ठशख्द्धद्गह्द्ग (अज्ञात प्रदेश के समाचार ) टामस मूर का ह्लशश्चद्बड्ड (यूटोपिया ) ऐसी ही पुस्तकें हैं जिनमें समस्त समाज की एक परिवार के रूप में कल्पना की है और खरीदने-बेचने की प्रथा के स्थान पर बिना मूल्य वाले सार्वजनिक स्टोरों का ही वर्णन किया है। भारतीय संस्कृति के लिये तो यह कोई अनोखी बात हो ही नहीं सकती, जबकि यहाँ के सर्व प्रथम धार्मिक ग्रन्थ वेद में कह दिया गया है-
ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्याँ जगत्।
तेन त्यक्तेन भुँजीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्॥
(यजुर्वेद 40-1)
“यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर तत्व से ही परिपूर्ण है। इस बात को ध्यान में रखते हुए साँसारिक पदार्थों का त्यागपूर्वक उपभोग करो, क्योंकि यह धन (सामग्री) किसी की नहीं है अर्थात् इस पर सब का समान अधिकार है।”
पर अभी तक इस सिद्धान्त को बहुत थोड़े लोगों ने हृदयंगम किया है और उनमें से भी व्यवहार में लाने वालों की संख्या और भी थोड़ी है। पर इसमें सन्देह नहीं कि यह एक प्राकृतिक शाश्वत सिद्धान्त है और जब तक इस पर आचरण न किया जायगा मनुष्य अपने नाम को चरितार्थ नहीं कर सकता और न सच्ची सुख-शान्ति पा सकता है। पर जब बार-बार ठोकरें खाकर उसकी आँखें खुलेंगी और खास कर इसी कारण से तीसरे महायुद्ध में मानव-जाति का विध्वंस हो जायगा, उसके आधे या उससे भी ज्यादा व्यक्ति काल के गाल में समा जायेंगे, तब उसे होश आयेगा और श्री वेल्स की भविष्यवाणी चरितार्थ होती दिखाई देगी।
अमरीकन प्रेसीडेण्ट की स्वीकारोक्ति-
गत 12 मई को अमरीका के ‘वाशिंगटन पोस्ट’ नामक समाचार पत्र में अमरीका के वर्तमान प्रेसीडेण्ट जॉनसन और उनकी पुत्री लूसी का एक संवाद प्रकाशित हुआ था जिसमें जॉनसन ने कहा था कि-”हो सकता है कि इतिहास में तुम्हारे पापा (जॉनसन) को ही तीसरा महायुद्ध आरम्भ करने वाला माना जाय। कारण कि मैं किसी को यह बतलाना चाहता हूँ कि हम कोई भी बड़े से बड़े खतरा उठाने के लिये तैयार हैं।” वियतनाम में तेल की टंकियों पर आक्रमण किये जाने के अवसर पर भी उन्होंने लूसी से कहा था-”हो सकता है तुम्हें कल सुबह देखना नसीब न हो।”
इस प्रकार के उद्गारों का स्पष्ट आशय यह है कि प्रेसीडेंट किसी भी समय विश्वयुद्ध आरम्भ होने की सम्भावना को पूरी तरह अनुभव करते हैं और एटम बम के प्रयोग द्वारा महानाश होने की आशंका भी करते हैं।
राष्ट्रपति जॉनसन के इस कथन पर टीका करते हुए रूस के सरकारी पत्र ‘प्रावदा’ ने लिखा है कि-”इस कथन को मनोवैज्ञानिक युद्ध की दिशा में एक कदम समझना चाहिए। यह वियतनाम की जनता को भयभीत करने का एक प्रयास है, जो कभी सफल नहीं हो सकता। पर अब इसराइल के युद्ध में हम देख रहे हैं कि अमरीका वास्तव में युद्ध के लिए तैयार हो गया है, और इसमें राष्ट्रपति जॉनसन का उपर्युक्त दृष्टिकोण ही काम कर रहा है। अगर अमरीका का पूरा भरोसा न होता और उसका शक्तिशाली छठा बेड़ा पास में ही सहायतार्थ न खड़ा होता तो इसराइल केवल छः दिन में इतने बड़े युद्ध को न जीत लेता। अब जबकि अमरीका तैयार हो गया तो रूस को भी उसके मुकाबले में तैयार होना ही पड़ेगा। पर इस समय उसके मार्ग में चीन की बाधा है जो उसका साथी होते हुए भी विरुद्ध चाल चल रहा है और उसे नीचा दिखाने के लिए हर रोज कोई न कोई झूठी सच्ची बात फैलाता रहता है। इसी कारण अभी विश्वयुद्ध रुक गया है। पर कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ समय में ही वियतनाम के युद्ध में कोई ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाय जिससे चीन को खुलकर मैदान में आना पड़े और तब संघर्ष भयंकर रूप धारण कर ले। वैसे इस समय भी इसराइल का युद्ध एक प्रकार से स्थगित हुआ है। अभी उसमें बड़ी-बड़ी विकट समस्यायें उत्पन्न होंगी जिनके कारण बार-बार शान्ति भंग होने की आशंका जान पड़ेगी।
‘माओ’ की भविष्यवाणी-
चीन की कम्यूनिस्ट सरकार के अध्यक्ष माओत्से तुँग ने एक-डेढ़ वर्ष पूर्व अन्य देशों के कुछ नेताओं से बातचीत करते हुए कहा था कि “चीन अब भी अपने इस विश्वास पर अटल है कि आगामी 10-15 वर्षों में विश्वयुद्ध होना अवश्यम्भावी है।
इस समय युद्ध का सबसे बड़ा हामी चीन ही बन रहा है। वह संसार में जहाँ कहीं संभव होता है युद्ध करने वालों को प्रोत्साहन देता है और हर तरह से उनकी मदद का वायदा करता है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि चीन की आबादी इतनी अधिक बढ़ गई है कि वह उसको सँभाल नहीं सकता और उसके घर के भीतर ही निरन्तर कलह चलती रहती है। इसलिए उसको सदैव यही सूझती है कि किसी तरह युद्ध आरम्भ हो जाय और उसमें संसार के अधिकाँश व्यक्ति समाप्त हो जायें। चीन को आशा है कि उसकी आबादी सर्वाधिक होने से अन्त में उसकी जनसंख्या ही सबसे अधिक रहेगी और उसका प्रभाव सबसे अधिक माना जायगा।
फिलीपाइन के प्रेसीडेंट-
फिलीपाइन के प्रेसीडेंट फर्डिनेण्ड मार्कास ने इसी वर्ष 8 मई को एशियाई देशों के विशेष प्रतिनिधियों के सम्मुख कहा कि-”कम्यूनिस्ट चीन दस साल के भीतर फिलीपाइन तथा सभी पड़ोसी देशों को सैनिक ताकत के बल पर हथियाने की कोशिश करेगा। इसी भय के कारण हमको अपनी रक्षा के लिए अमरीका पर निर्भर रहना पड़ता है।”
ऐसा विदित होता है कि इस बार विश्व युद्ध आरम्भ करने का बीड़ा चीन ने ही उठाया है जैसा कि द्वितीय महासमर में हिटलर ने किया था। यही कारण है कि वह कोरिया, वियतनाम, पाकिस्तान, अरब गणराज्य जहाँ कहीं भी वैमनस्य की कुछ संभावना देखता है उसे सुलगाने, बढ़ाने का प्रयत्न बड़ी लगन के साथ करता है। उसने भारत से, जो आरम्भ से उसका बहुत बड़ा सहायक रहा है, बिना कारण लड़ाई मोल ले रखी है और बार-बार भड़काने की चेष्टा ही करता रहता है। इसी तरह रूस से भी वह छेड़खानी करता रहता है, यद्यपि उसका निर्माण और वृद्धि मुख्यतः उसकी सहायता से ही हुई है। पर ऐसी मनोवृत्ति और लड़ाई को निमन्त्रण देने का क्या परिणाम होता है उसका अनुमान हम जर्मनी की हालत से ही कर सकते हैं।
डाक्टरों द्वारा लाइलाज बीमारी की भविष्यवाणी-
जैसे पिछले लेखों में बताया गया है संसार में इन 10-15 वर्षों के भीतर जो महाकाल का ताण्डव होने वाला है उसमें केवल युद्ध द्वारा ही मनुष्यों का विध्वंस नहीं होगा वरन् महामारी और अकाल भी अपना ‘पार्ट’ अदा करेंगे। कुछ लोगों का तो यह कहना कि युद्ध में अधिक मनुष्य नहीं मारे जा सकते, असली संहार तो महामारी से ही होता है। अंक शास्त्रियों की गणना के अनुसार प्रथम महायुद्ध में 1 करोड़ 31 लाख व्यक्ति मारे गये थे और दूसरे में 2.5-3 करोड़। इस तरह तीसरे में भी 5-10 करोड़ तक मारे जा सकते हैं क्योंकि संसार के प्रमुख राष्ट्रों की सेनाओं की संख्या इससे अधिक नहीं है। पर विश्व की पौने तीन अरब की आबादी को देखते हुए यह संख्या नगण्य ही है। तब जैसा भविष्यवाणियों में प्रकट किया गया है कि संसार की आधी या तिहाई आबादी समाप्त हो जायगी, वह कैसे होगा? वह काम महामारी और अकाल के प्रकोप से पूरा होगा। अब से कुछ समय पूर्व समाचार पत्रों में लन्दन का एक समाचार छपा था जिसमें कहा गया था-
यहाँ के डॉक्टर और रोग विशेषज्ञों का मत है कि आजकल जिस वेग से संसार में आबादी बढ़ रही है, उससे किसी भयंकर महामारी के फैलने की बहुत बड़ी आशंका है। निकट भविष्य में जिस महामारी के फैलने की शंका डॉक्टर और विशेषज्ञ कर रहे हैं उसका नाम “एशियाई फ्ल्यू” बतलाया जा रहा है। डाक्टरों की यह आशंका केवल कल्पना के आधार पर नहीं है। उन्होंने चूहों को खोज का माध्यम बनाकर अपना यह निष्कर्ष निकाला है।
डाक्टरों ने एक स्थान पर छः-छः, सात-सात चूहे रख कर खोज की तो पता चला कि घनी आबादी वाले चूहों में अकेले रहने वाले चूहों की अपेक्षा रोग के कीटाणुओं से संघर्ष करने की शक्ति कम थी। इकट्ठे रक्खे जाने वाले सब चूहे बीमार हो गये और अकेले रहने वाले निरोग रहे। विशेषज्ञों का कथन है कि आबादी जिस तेजी में बढ़ रही है और घरों में तथा कारखानों में जिस घिच-पिच तरीके से थोड़े स्थान में अधिक लोगों को रहना पड़ रहा है उसमें इस प्रकार के असाध्य रोगों की सम्भावना स्वाभाविक है। भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या ऐसे असाध्य रोग उत्पन्न करके अपने लिए स्वतः ही संकट बन जायगी।
श्री एच. जी. वेल्स ने भी अपने भविष्य कथन में कहा है कि विश्वयुद्ध के बन्द हो जाने के पश्चात् ऐसी बीमारी फैलेंगी जिससे ज्वर होने के साथ ही मनुष्य के मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव पड़ेगा जिससे वह चलना आरम्भ कर देगा और लगातार चलते-चलते ही मर जायगा। यह बीमारी भयंकर छूत वाली होगी, लोग इसलिये बीमार का इलाज करना तो दूर उसे अपने पास भी न आने देंगे। जब ऐसे बीमार चलते-चलते रास्ते में किसी व्यक्ति के पास जाने की चेष्टा करेंगे तो वह उनसे दूर भागेगा और अनेक अवसरों पर ऐसे बीमारों को लोग गोली से मार देंगे। पर यह बीमारी ऐसी छूत की होगी कि उसका असर दूसरों पर बड़ी जल्दी होगा और जिस-जिस देश में वह फैलेगी वहाँ की अधिकाँश आबादी खत्म हो जायेगी।
इसका कारण भी स्पष्ट ही है। वर्तमान समय में खाद्य संकट भयंकर रूप धारण कर रहा है और भारत ही नहीं संसार के बहुसंख्यक देशों की यही हालत है। फिर जब युद्ध के कारण यह स्थिति गम्भीर होगी, एक ओर तो युद्ध के विस्फोटक पदार्थों से तरह-तरह के विषाक्त तत्व चारों ओर फैलेंगे और दूसरी तरफ अव्यवस्था और अकाल के कारण न मालूम कैसे कैसे अखाद्य पदार्थ खाकर पेट की आग बुझाने की चेष्टा की जायगी तो स्वास्थ्य का नष्ट हो जाना और शरीर के दूषित तत्वों का बढ़ जाना स्वाभाविक ही है। उस समय शरीर की रोगनिवारिणी शक्ति प्रायः नष्ट हो जायगी और इस कारण जिस किसी रोग का आक्रमण होगा वही एक महामारी का रूप धारण कर लेगा।
महाभयंकर अकाल का खतरा-
जन-संख्या की लगातार वृद्धि के कारण हमारे देश में कितने ही वर्षों से अन्नाभाव अनुभव किया जा रहा है। जिस देश को इस बात का गुमान था कि हमारे अनाज से ही इंग्लैंड और अन्य योरोपीय देशों का पेट भरता है वह पिछले 25 वर्षों से लगातार अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि द्वारा भेजे गये अन्न से अपनी भूख को बुझा रहा है। संसार के अन्य कितने ही देशों की भी यही हालत है। पर अब यह दशा और भी भयंकर रूप धारण करती जाती है और विशेषज्ञों के मतानुसार एक विश्वव्यापी अकाल का खतरा पैदा होता जाता है। इस संबन्ध में न्यूयार्क (अमेरिका) राज्य विश्वविद्यालय के अनुसंधान विभाग के संचालक श्री रेमण्ड ईवैल ने संसार की जनसंख्या वृद्धि विषयक अध्ययन के ठोस आधार पर भविष्य वाणी की है कि एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमरीका के अविकसित देश इतिहास में एक अभूतपूर्व भयंकर अकाल के दरवाजे पर खड़े हुए हैं। अगर इस स्थिति का सामना करने के लिये तुरंत व्यापक प्रयत्न नहीं किये गये तो सन् 1970 के आरम्भ में ही भारत, पाकिस्तान और चीन में भयंकर अकाल पड़ने का खतरा उपस्थित है। 1980 तक तो एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमरीका के कई दूसरे देश भी इस व्यापक अकाल के कौर बन सकते हैं।
श्री ईवैल ने कहा है कि एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमरीका में प्रति वर्ष 2.3, 2.4 तथा 3 प्रतिशत के हिसाब से आबादी बढ़ रही है। दूसरी तरफ इन देशों में पिछले तीन-चार सालों से अन्नोत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हो रही है। यदि इन देशों में कुछ साल तक यही प्रवृत्ति जारी रही तो स्वभावतः इसका परिणाम अकाल होगा। ऐसा भयंकर और व्यापक अकाल जैसा दुनिया के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ है।
इस प्रकार संसार के प्रमुख राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों तथा विद्वानों के मतानुसार अब तक के इतिहास में यह दस-पन्द्रह वर्ष का समय सबसे कठिन और संकट पूर्ण सिद्ध होगा। इसमें मानव जाति तथा सम्पत्ति का जितना भी नाश हो जाय वह कम ही है। पर अध्यात्मवादी इन बातों से चिन्तित नहीं होते और न इसमें किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना करते हैं। वे इन कष्टों की तुलना एक स्त्री की उस प्रसव वेदना से करते हैं जो देखने में तो बड़ी वीभत्स जान पड़ती है पर जिसका परिणाम एक नवीन, निष्कलंक, निर्मल जीवात्मा का आविर्भाव होता है। इसी प्रकार यद्यपि इस संक्रमण काल में मानव-जाति को बहुत सहन करना पड़ेगा, सम्भव है देश के देश और कितनी जातियाँ लोप हो जायँ पर इसका परिणाम यही होगा कि मानवता दोष दुर्गुणों से मुक्त होकर नवीन युग के उपयुक्त बन जायगी जिसे अनेक विद्वानों ने ‘देव-युग’ बतलाया है। इस समय मानव-स्वभाव में जो कमजोरियाँ सम्मिलित हो गई हैं उनके रहते हुए वह किसी दिव्य-युग का अधिकारी नहीं बन सकता। अतएव युद्ध, अकाल महामारी आदि के रूप में उसकी शुद्धि आवश्यक ही है।
जनसंख्या की समस्या सबसे भयंकर-
इस समय जनसंख्या के नियंत्रण का प्रश्न संसार भर के विचारकों के सम्मुख बड़े उग्र रूप में उपस्थित हो रहा है। विभिन्न देशों की सरकारें और प्रगतिशील संगठन जितनी वृद्धि की-उन्नति की योजनायें करती हैं, यह जनसंख्या की वृद्धि उन सब पर पानी फेर देती है और अभाव का अभाव ही बना रहता है। सच पूछा जाय तो युद्ध का एक मुख्य कारण जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि भी है। इस पर विचार करते हुए अमरीका के नोबुल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक डॉ. अल्बर्ट ग्योरग्यी ने भीषण भविष्य की कल्पना करते हुए कहा है-”अगर संसार की आबादी बढ़ने से न रुकी तो एक वक्त ऐसा भी आ सकता है जब खाद्यान्न के अभाव में आदमी ही आदमी को खाने लगे। जनसंख्या की वृद्धि से मानवता को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो गया है। कुछ समय बाद ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि इस धराधाम पर प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में रहने के लिये एक वर्ग गज जमीन ही आये।”
अन्तर्राष्ट्रीय परिवार नियोजन संघ के अध्यक्ष डॉ. एलन एफ. गुट्टामाचेर ने कुछ समय पूर्व आइलैंड (कनाडा) के राष्ट्रीय महिला चिकित्सालय की एक बैठक में भाषण करते हुए कहा कि “इन वर्षों में दुनिया की आबादी दुगनी हो जायगी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इस शताब्दी के अन्त तक इस पृथ्वी पर 7 अरब के करीब मनुष्य रहने लगेंगे।”
भारतवर्ष की आबादी 1891 में 23 करोड़ 60 लाख थी। 30 वर्ष बाद इसमें 1.5 करोड़ की वृद्धि हुई। अब इस वृद्धि की गति बहुत अधिक बढ़ गई है। राष्ट्र संघीय जनसंख्या सर्वेक्षण के अनुसार इस शताब्दी के अन्त तक भारत की आबादी 90 करोड़ हो जायगी।
नई दिल्ली में एकत्रित परिवार नियोजन के विशेषज्ञों के मतानुसार “भारत में प्रति घंटे 1100 से अधिक बच्चे जन्म लेते हैं। इस हिसाब से जनसंख्या की वृद्धि प्रति वर्ष एक करोड़ तक पहुँच जाती है। इस वृद्धि से यहाँ का रहन सहन का स्तर कम हो रहा है।
यह आश्चर्य का विषय है कि जन संख्या वृद्धि के खतरे को इतने स्पष्ट रूप में समझते और स्वीकार करते हुए भी विभिन्न देशों के शासन उसे रोकने का कोई कारगर उपाय नहीं कर पाये हैं। हमारे देश के जन साधारण तो इस विषय को मनुष्य की शक्ति से बाहर और ‘भगवान’ की इच्छा मानते आये हैं और उनकी निगाह में 5-6 बच्चे हो जाने में कोई बुराई की बात नहीं है। ऐसे लोग अगर खाद्य-संकट में ग्रस्त हों और अवसर आने पर युद्ध, अकाल, महामारी आदि के शिकार बनकर अकाल में ही परलोक के पथिक बनें तो अस्वाभाविक क्या है? अन्धाधुन्ध संतान उत्पन्न करने वालों और समझाने पर न मानने वालों को अपने कृत्य का दंड सहन करना ही पड़ेगा।