Magazine - Year 1968 - Version 2
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विश्व-कल्याण जप के साथ आत्मार्पण का ध्यान
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दूसरी माला विश्व-कल्याण के लिए- युग-निर्माण के महान आन्दोलन की सफलता के लिए करनी चाहिये। अपने परिवार द्वारा प्रतिदिन 24 लक्ष गायत्री जप का जो संकल्प गत बसन्त पंचमी (3 फरवरी 1968) से आरंभ किया गया है, वह इस युग का महानतम पुरश्चरण है। इस युग में इतना बड़ा सामूहिक धर्मानुष्ठान आज तक नहीं किया गया। आज की आवश्यकता ऐसी है, जिसमें इतने शक्तिशाली अध्यात्म प्रयोग ही आशाजनक परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं।
यह पुरश्चरण दस वर्ष तक चलेगा। इस महान् जप-यज्ञ में अखण्ड-ज्योति परिवार के हर सदस्य को भागीदार बनाना चाहिये और एक माला गायत्री जप और एक पाठ युग-निर्माण सत्संकल्प के भागीदारों का- नित्य ही करना चाहिये। न्यूनतम उपासना क्रम में जो दो माला गायत्री जप करने की व्यवस्था की गई है, उसमें एक माला आत्म-कल्याण के लिए है और दूसरी विश्व-कल्याण के लिए है।
युग-निर्माण के लिए जहाँ रचनात्मक एवं संघर्षात्मक प्रत्यक्ष शतसूत्री कार्यक्रमों की व्यवस्था है वही सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोगों का भी समन्वय है। अन्तरिक्ष में आज दुष्प्रवृत्तियों का वातावरण बुरी तरह भर गया है। पिछले दिनों मानव जाति द्वारा जो अनेक दुष्कर्म किये जाते रहे हैं और कुविचार अपनाये जाते रहे हैं, उनकी प्रतिक्रिया आकाश में भयावह वातावरण की काली घटायें बन कर घुमड़ रही है। यही घटायें बार-बार विभिन्न विभीषिकाओं के रूप में बरस पड़ती हैं और अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, महामारी, दुर्घटनायें, युद्ध, अपराधों की वृद्धि, संघर्ष, क्लेश, शोक-संताप आदि के रूप में विपत्तियाँ प्रस्तुत करती हैं। अगले दस वर्ष बुरी संभावनाओं से भरे हुए हैं, उन्हें टालने के लिये ऐसी ही शक्तिशाली धर्मानुष्ठान की आवश्यकता थी जैसा कि अपना 24 लक्ष गायत्री जप का महापुरश्चरण अपने परिवार द्वारा संकल्पित हुआ है।
युग परिवर्तन के लिए- नव-निर्माण के लिए सतोगुणी सद्भावनाओं का ऐसा वातावरण आकाश में विनिर्मित किया जाना आवश्यक है। जिसके प्रभाव में जनमानस में आत्म-संयम और परमार्थ प्रयोजन के लिए साहसिक कदम उठाने की प्रेरणा उत्पन्न हो सके। इसके लिए चतुर्विधि स्थूल प्रक्रिया लेखनी, प्राणी, संगठन एवं शतसूत्री रचनात्मक कार्य पद्धति के माध्यम से कार्यान्वित की जा रही है, पर इतने से ही काम न चलेगा। इसके लिए अंतरिक्ष में ऐसी सूक्ष्म प्रेरणा का उत्पन्न किया जाना भी आवश्यक है जो अनायास ही जनमानस में युग परिवर्तन के अनुरूप हलचल, आकाँक्षा, प्रेरणा, स्फूर्ति एवं लगन उत्पन्न करे। वास्तविक काम दूसरों के कहने सुनने से नहीं- अपनी अन्तःकरण की प्रेरणा से ही होता है।
आज जनमानस निर्जीव मूर्छित एवं अन्धकारग्रस्त पड़ा है। इसको सजग, समर्थ एवं सत्पथगामी बनाने के लिए सूक्ष्म जगत में काम करने वाली आध्यात्मिक हलचल ही अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ हो सकती है। यही नव-निर्माण का वास्तविक आधार है। अतएव दिव्य प्रेरणा के आधार पर महत्तम गायत्री महापुरश्चरण आरंभ किया गया है और उसमें भागीदारी होने के लिए हर परिजन को प्रोत्साहित किया गया है। न्यूनतम उपासना क्रम एक माला जप इसी प्रयोजन के लिए- विश्व-कल्याण लिए रखा गया है।
प्रथम माला आत्म-निर्माण के लिए जपनी चाहिये और उसके बाद गायत्री चालीसा का एक पाठ करना चाहिये। दूसरी माला युग-निर्माण के लिए जपनी चाहिये और बाद में युग-निर्माण का सत्संकल्प पढ़ना चाहिये। प्रथम माला के साथ गायत्री माता की गोदी में खेलने का ध्यान पिछले लेख में बताया गया है। युग-निर्माण के लिए की जाने वाली दूसरी माला के साथ दीपक पर पतंगों के द्वारा आत्म-बलिदान करने वाला ध्यान है। समाज-कल्याण के लिए हम अपनी सत्ता एवं विभूतियों का समर्पण करें, यह भाव इस ध्यान का है। इसे इस प्रकार करना चाहिये-
‘‘मैं पतंगे की तरह हूँ। इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैत को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए- प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्म-समर्पण करता है, अपनी आवश्यकता को मिटा कर प्रकाश पुंज में लीन होता है। उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व, अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में- गायत्री तप तत्व में विलीन होता हूँ।’’
‘‘दीपक की ज्योति एक यज्ञ है और मैं उसका हविष्य। अपना अस्तित्व इस यज्ञाग्नि में होम कर मैं स्वयं परम पवित्र तेज पुंज हो रहा हूँ।’’
‘‘अपनी अहंता, ममता और द्विधा मिटा देने के बाद मैं आत्मा की परिधि से ऊंचा उठकर परमात्मा सत्ता के रूप में विकसित होता हूँ। और उसी स्तर की व्यापकता, उदारता, करुणा एवं महानता अपने अन्तरात्मा में धारण करता हूँ।’’
‘‘मैं अपनी समस्त श्रद्धा प्रभु को समर्पण करता हूँ। बदले में वे उतना ज्ञान, विवेक, प्रकाश एवं आनन्द मेरे कण-कण में भर देते हैं। मुझे अपने समान बना लेते हैं। वैसी ही रीति-नीति अपनाने की प्रेरणा एवं तत्परता प्रदान करते हैं।’’
यह ध्यान दीपक पर पतंगे के जलने की तरह आत्मा का परमात्मा में प्रेम विभोर होकर आत्म-समर्पण करने का है। जीव और ब्रह्म के बीच माया की प्रधान बंधन है। वही दोनों को एक दूसरे से पृथक किये हुए है। अहंता, स्वार्थपरता, ममता, संकीर्णता का कलेवर ही जीव की अपनी पृथकता एवं सीमा बांधता है। उसी की ममता में वह ईश्वर को भूलता और आदेशों की उपेक्षा करता है। इस अहंता कलेवर को यदि नष्ट कर दिया जाय तो जीव और ब्रह्म की एकता असंदिग्ध है। ईश्वरीय प्रेम में प्रधान बाधक यह ममता अहंता ही है।
ब्रह्म को दीप ज्योति का और अहंता कलेवर युक्त जीव को पतंगा का प्रतीक माना गया है। पतंगा अपने कलेवर को प्रिय पात्र दीपक में एकीभूत होने के लिये परित्याग करता है। आत्म-समर्पण करता है। कलेवर का उत्सर्ग करता है। अपनी सम्पदा विभूति एवं प्रतिभा को प्रभु की प्रसन्नता के लिये सर्वमेध यज्ञ कर्ता की तरह होम देता है। विश्व-मानव की पूजा प्रसन्नता के लिये साधक का परिपूर्ण समर्पण यही आत्म-यज्ञ है। इसमें अपने को होमने वाला, नरमेध करने वाला, ईश्वरीय सान्निध्य की सर्वोच्च गति को पाता है।
जिस माया मग्नता के कारण ईश्वर और जीव में विरोध था, उसका समर्पण कर देने पर ईश्वरीय अनन्त विभूतियों का अधिकारी साधक बन जाता है और उसे प्रभु का असीम प्यार प्राप्त होता है। बिछुड़ने की वेदना दूर होती है और दोनों से ओत-प्रोत होकर अनिर्वचनीय आनंद का रसास्वादन करते हैं।
इस ध्यान में याचना की नहीं आत्मदान की भावना है। उच्चस्तरीय साधना का यही आधार भी है। निम्न स्तर की प्राथमिकता उपासना में ईश्वर से साँसारिक लाभ अथवा आत्मिक अनुदान माँगे जाते हैं, पर जैसे-जैसे स्तर ऊंचा होता जाता है, साधक माँगने की तुच्छता छोड़ समर्पण की महानता अपनाने के लिए व्याकुल होता है। ध्यान अथवा भावना तक ही उसकी साधना सीमित नहीं रहती वरन् वस्तुतः वह विश्व के लिये, लोक-मंगल के लिये बड़े-से-बड़ा अनुदान देकर अपनी गणना बड़े से बड़े भक्तों में कराने का आत्म-संतोष उपलब्ध करता है। उसका व्यवहार अपने जीवन परिवार एवं समाज के प्रति इतना सज्जनतापूर्ण हो जाता है कि प्रतिक्रिया उसे दैवी वरदान की तरह चारों ओर से पुष्प वर्षा करती हुई परिलक्षित होती है। स्वर्ग सुख यही तो है। अहंता और मनता, वासना और तृष्णा के बन्धनों से मुक्त जीव को मरने पर मुक्ति मिलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है वह जीवित रहते हुए भी जीवन-मुक्त होता है।
विश्व कल्याण के लिए दूसरी माला उपरोक्त ध्यान के साथ पूरी करते हुए एक पाठ युग-निर्माण सत्संकल्प करना चाहिये।