Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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जाति, उपजातियों का दायरा चौड़ा किया जाय
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वर्ण, कुल, गोत्र, जाति, उपजाति के आधार पर कन्याओं के लिये वर प्राप्त करने में अभिभावकों को कितनी परेशानी और मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, यह सर्वविदित है। एक सीमित क्षेत्र और गोत्र में लड़के ढूंढ़ने पर दो-चार मिलते हैं, इसलिए उनके अभिभावक लम्बी रकमों दहेज के रूप में माँगते हैं। सामाजिक विघटन का यह एक जबर्दस्त कारण है।
निर्धनों को अपनी बच्चियों के विवाह छाती के पहाड़ मालूम पड़ते हैं। सवर्ण कुल होना आवश्यक होता है, धन होता नहीं जिससे बड़ी आयु की कन्या हो जाने पर भी योग्य लड़के नहीं मिल पाते। फलस्वरूप अयोग्य बूढ़े कई विवाह किए हुये अधेड़ व्यक्तियों के साथ झख मारकर विवाह करना पड़ता है। इन परिवारों में ब्याही लड़कियों के जीवन भी उतने ही नारकीय बनते हैं। उच्च कुल में श्रेष्ठतायें होनी चाहिए, परम्परागत जातिवाद के कारण उनका तो बिल्कुल अन्त-सा हो गया। ढोल की पोल बची है। ऊपर से स्रवण कहे जाने वाले लोगों के आचार-विचार, रहन-सहन बड़े ही निम्न-स्तर का अधोगामी बना हुआ है।
वर्ण-भेद सामाजिक व्यवस्था के लिये उपयोगी है, वहाँ उसके सैद्धाँतिक आधार का बना रहना भी आवश्यक है, अन्यथा जातियों का बिल्कुल भी महत्व नहीं रह जाता। जातियों का संगठन गुण-कर्म स्वभाव की दृष्टि से हुआ है, अब जब उच्च जातियों में उच्च गुण-कर्म स्वभाव का अभाव ही है, तो उच्च वर्ण कैसे? निम्न वर्ण के लोग यदि उत्कृष्ट स्वभाव, शिक्षा और रहन-सहन वाले हों तो उन्हें उच्च प्रतिष्ठा क्यों न मिले?
शास्त्रकार इस संबंध में बिल्कुल स्पष्ट रहे हैं। अनेक उदाहरण हैं जिनमें जातियों का वर्गीकरण वंशानुगत क्रम से नहीं गुण, कर्म स्वभाव के विभाग के अनुसार किया गया है। शाँतिपर्व (महाभारत) में मोक्ष धर्म के संदर्भ में भृगु मुनि से प्रश्न किया गया है- ‘‘हे मुनि! काम, क्रोध, लोभ, भय, चिंता, क्षुधा और श्रम आदि सभी बातें एक-सी हैं, तब वर्णभेद क्यों मानते हैं? पसीना, भूख, कफ, पित्त, रक्त सबके शरीर में रहते हैं, तब एक वर्ण दूसरे वर्ण अलग क्यों माना जाता है?’’
भृगु इस पर उत्तर देते हैं- ‘‘एक ब्राह्मण ही वर्ण था इसलिए वर्णों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा ने एक ही वर्ण के लोग पैदा किए फिर उन्हें गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विभिन्न वर्णों में विभक्त किया।’’
महाभारत में ही अन्यत्र कहा है-
एक वर्णमिदं पूर्व विश्वमासीद युधिष्ठिर।
कर्म क्रिया विभेदेन चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितं॥ 42।18 8
अर्थात्- हे युधिष्ठिर पहले एक ही वर्ण था गुण-कर्म और स्वभाव के अनुसार पीछे उसी के चार वर्ण किये गये।
अध्याय 42 भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व में लिखा है- ‘‘यदि एक पिता के चार पुत्र हैं, तो उन चारों की एक ही जाति होनी चाहिये। परमेश्वर सबका पिता है। इसलिये मनुष्य समाज में जाति भेद का कोई औचित्य नहीं है।’’ कठोपनिषद् में इस बात को पूरी तरह स्पष्ट किया गया है। गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है- ‘‘चातुर्वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः’’ ‘‘हे अर्जुन! मैंने गुण, कर्म, स्वभाव से चार वर्णों की सृष्टि की है।’’
प्राचीनकाल में सामान्य रीति-रिवाजों में ही नहीं विवाहादि तक में वर्णाश्रम धर्म को मान्यता उपरोक्त सिद्धाँत के आधार पर ही थी। आज की अपेक्षा पूर्वज अधिक धार्मिक थे, पर वे सामाजिक मामलों में पूर्णतया बुद्धि, विवेक और सिद्धान्तवादी थे। आज जैसी विचार संकीर्णता उनमें न थी। उच्च गुण, कर्म, स्वभाव वाली कन्या के लिये वर भी उच्च गुण, कर्म, स्वभाव वाला ढूंढ़ा जाता था। वर्ण में गुणों की दृष्टि से मेल होना आवश्यक था, जाति की दृष्टि से नहीं। अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन इसी बात की पुष्टि है। कन्याओं के लिये ही नहीं लड़कों के लिए वधुयें भी उच्च गुणों वाली ढूंढ़ी जाती थीं और यदि उपयुक्त कन्या उपलब्ध हो जाती थी, तो निम्न कुल में पैदा होने पर भी उससे प्रसन्नतापूर्वक विवाह कर लिया जाता था। वह विवाह सामाजिक मान्यता प्राप्त होते थे। इससे लोगों की श्रेष्ठता वरीयता में कोई अन्तर नहीं आता था। इसके सैंकड़ों उदाहरण हैं-
व्यास और पराशर मुनि अपने समय में नहीं अब भी विद्वानों में प्रतिष्ठित और पूज्य हैं, उनका जन्म निम्न वर्ण की कन्याओं से हुआ। व्यास की माँ कैवर्त्त पुत्री थी। पाराशर की माँ श्वपाक (चांडाल) के घर जन्मीं थी। श्रृंगी ऋषि कश्यप, वेद ताण्ड्य, कृप, कक्षीवान, कमाठादि, मतंग दोण, दत्त, आयु, यवक्रीत, मात्स्य, द्रपद, यह सभी ऋषि नीच कुलों में उत्पन्न हुए, वाद में तपश्चर्या के प्रभाव से इन्होंने ऋषित्व प्राप्त किया।
चित्रमुख नामक वैश्य ने अपनी पुत्री वशिष्ठ के पौत्र पाराशर को ब्याही थी। वीतहव्य क्षत्रिय था उसने ब्राह्मण कन्या से विवाह किया। राजा नीप क्षत्रिय ने शुक्राचार्य ब्राह्मण की कन्या हात्वी से विवाह किया। ब्रह्मदत्त इन्हीं के पुत्र थे इन्हीं के कुल में मुद्गल का जन्म हुआ जिनसे ब्राह्मणों का मौद्गल्य गोत्र चला।
वशिष्ठ मुनि गणिका पुत्र थे, उन्होंने कर्दम क्षत्रिय की पुत्री अरुन्धती से विवाह किया। इनका पुत्र शक्ति हुआ जिसने चाण्डाल कन्या अदृश्यन्ति से विवाह किया। प्रियव्रत क्षत्रिय था उसने विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति से विवाह किया। ययाति क्षत्रिय ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया। महामुनि मातंग की माता ब्राह्मणी थी और पिता नाई कुल में जन्मे थे।
प्रतिलोम विवाहों की तरह अनुलोम विवाह भी शास्त्र मर्यादा से बाहर नहीं थे। विश्वामित्र ने देवलोक की अप्सरा मेनका से संबंध स्थापित किया। उनकी पुत्री शकुन्तला दुष्यन्त को ब्याही गई, जिनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। श्रृंगी ब्राह्मण ने राजा दशरथ की पुत्री और भगवान श्री रामचन्द्र की बहन शांता से विवाह किया। प्रियव्रत क्षत्रिय की कन्या उर्जस्वती से शुक्राचार्य ने विवाह किया। जमदग्नि ने सूर्यवंशी कन्या रेणुका से विवाह किया। परशुराम उन्हीं के पुत्र थे। भगवान कृष्ण यदुकुल में वे उन्होंने अपनी बुआ सुभद्रा का विवाह क्षत्रिय कुल में अर्जुन के साथ किया।
क्षत्रिय कन्या पद्मा, लोपामुद्रा ने क्रमशः पिप्पलाद और अगत्स्य से विवाह किया। यह दोनों ही ब्राह्मण थे। मान्धाता क्षत्रिय की कन्या से सौभरि और जनश्रुति की कन्या से रयिक्व ब्राह्मण के विवाह होने का उल्लेख मिलता है। इन सब विवाहों में गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप जोड़ी की उपयुक्तता ही थी। जहाँ यह समझा जाता था कि विपरीत कुल में जन्म लेने पर भी किसी कन्या और वर के गुणों में समानता है वहाँ उनका संबंध होने में कोई आपत्ति न की जाती है, न हीं किसी को जाति से बहिष्कृत किया जाता था। ऐसे विवाहों को इस दृष्टि से और भी समर्थन मिल जाता था कि योग्य दम्पत्ति होने से सन्तान भी तेजस्वी, साहसी, वीर और बलवान होगा। तब ऐसा ही विश्वास किया जाता था। कुन्ती ने अपने पुत्र भीम का विवाह हिडम्बा राक्षसी से करने की अनुमति देते हुए कहा था, इनकी जो सन्तान होगी, वह बहुत वीर और बलवान होगी। वीर घटोत्कच्छ इन्हीं का पुत्र था और महाभारत काल के अद्वितीय वीरों में गिना जाता था।
समाज को उत्कृष्ट नागरिक प्रदान करने का उद्देश्य रख कर इस तरह के अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन हो तब तो कहना ही क्या पर यदि सामान्य दृष्टिकोण से भी अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन होता है, तो कन्याओं के लिए योग्य वर ढूंढ़ने और दहेज के कुचक्र से बचने की आधी समस्या का तुरंत अन्त हो सकता है।
शक, हूण और यूची आदि अनेकों जातियाँ हिन्दू जाति में इस तरह विलीन हो गई कि ढूंढ़ने पर भी आज उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मिल सकता। अन्य जातियाँ विभेद हिन्दू बन सकती हैं तो अन्तर्जातीय भेदभाव क्यों रखा जाय? क्यों न इस तरह समाज में अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन किया जाये। यदि ऐसा होता है तो वह शास्त्र-सम्मत, बुद्धि-संगत और सिद्धाँत रूप से उपयोगी ही रहेगा जिसकी शास्त्रकारों ने पुष्टि की है।