Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म-ज्ञान बिना कल्याण नहीं
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प्रायः लोग ज्ञान का तात्पर्य भौतिक शिक्षा समझते हैं। जो जितना पढ़ा-लिखा है, जिसे संसार की जितनी अधिक वस्तुओं और बातों की जानकारी है उसे उतना ही अधिक ज्ञानी मान लेते हैं। भौतिक ज्ञान की आवश्यकता भी कम नहीं है। इसके बिना भी काम रुकता है। खाना, कमाना, रहना-सहना, परिवार का पालन-पोषण, कार-रोजगार, व्यवस्था-प्रबन्ध आदि सारी बातें जीवन में निताँत आवश्यक हैं। इनके लिए साँसारिक ज्ञान की आवश्यकता है। जो जितनी मात्रा में इस दिशा में अनभिज्ञ है वह उतनी मात्रा में उन्नति और प्रगति से वंचित रह जाता है।
किन्तु, वास्तविक ज्ञान इस ज्ञान से भिन्न है। उसका क्षेत्र आत्मा है। उसे आध्यात्मिक अथवा आत्मिक ज्ञान कहते हैं। भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान में मूल अन्तर यह है कि भौतिक ज्ञान लौकिक साधनों का आधार तो बन जाता है किन्तु उन साधनों के उद्देश्य, सुख-शान्ति का संवाहक नहीं बन पाता। सब कुछ होने पर यदि सुख-शान्ति नहीं मिलती तो वह सब कुछ भी कुछ नहीं माना जाएगा। सच्ची सुख-शान्ति की उपलब्धि मात्र लौकिक ज्ञान से नहीं मिल सकती उसके लिये आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा है।
सच्ची सुख-शान्ति का स्त्रोत भौतिक साधन नहीं है। उसका स्त्रोत गुण, कर्म, स्वभाव की उच्चता है। सारे संसार का ज्ञान होने पर भी यदि हम अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उन्नत और निष्पाप न बना सके तो यही मानना होगा अभी हम ज्ञान के प्रकाश से रहित और अज्ञान के अंधकार से ग्रसित हैं। जिस क्षण से हमें कुविचारों और दुष्कर्मों से घृणा और सन्मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति होने लगे, समझना चाहिए हम ज्ञान की किरणों के संपर्क में आने लगे हैं।
इस प्रकार सच्चा ज्ञान आत्म-चिन्तन से ही प्राप्त हो सकता है। आत्म-चिन्तन में तल्लीन व्यक्ति को बुद्धि स्थिर हो जाती है। शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाला हर्ष-शोक, विक्षोभ, प्रसन्नता आदि असन्तुलन उसे प्रभावित नहीं करने पाते। वह हर्ष-शोक, अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनों, स्थितियों में समान बना स्थित रहता है। इस निरपेक्ष समानता में जो आनन्द है वही सच्चा आनन्द है। इसी को आध्यात्मिक आनन्द कहा जाता है।
आत्म-चिन्तन से उत्पन्न यही आनन्ददायक ज्ञान जीवन का सर्वोपरि तत्त्व और सर्वोच्च उपलब्धि है। इसकी प्राप्ति के पश्चात फिर कुछ पाने न पाने का महत्व नहीं रह जाता। मनुष्य संसार में जीवन साधनों के लिये प्रयत्न करता है। वह उन्हें पा भी सकता है और बहुत बार उसे अपने उस प्रयत्न में असफलता भी हो सकती है। अनेक बार पर्याप्त साधनों का अधिकारी बन सकता है तो अनेक बार उस अपर्याप्त साधनों तक ही रह जाना पड़ता है। भौतिक क्षेत्र में यह अनिश्चित स्थिति दुःख का कारण बनने के सिवाय और कुछ नहीं बनती। यदि मनुष्य आत्म-चिन्तन द्वारा ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो, पहले से ही पास में आनन्द की निधि होने से उस पर इस स्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता है। भरे पात्र में और भरना अथवा उसमें कुछ न आना एक ही बात है। कुछ डाला जाएगा तो भी अन्तर न आएगा और कुछ न डाला जाए तब भी भरे का भरा ही है। इसी प्रकार आत्म-ज्ञानी जो स्वयं अपनी आत्मा में संतुष्ट है सुख-साधनों की बहुतायत अथवा अल्पता से प्रभावित नहीं होता।
सच्चा ज्ञान मनुष्य को केवल आत्म-लीन ही नहीं बनाता बल्कि उसे व्यवहारिक जीवन में बड़ा ही शुभ और सुन्दर भी बना देता है। अशुभाचरण का दोष तो मनुष्य में तभी आता है जब उसका जीवन विक्षेपों से प्रभावित होता है। जब वह असन्तुष्ट, अशान्त, सद्वेष और संकीर्णता से ग्रसित होता है। काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकारों के वशीभूत होता है तभी उसके व्यवहार के स्तर और सन्तुलन में विकृति आती है। प्रसन्न तथा स्निग्ध मनःस्थिति में विक्षोभ का प्रश्न ही नहीं। अस्तु उसका व्यवहार भी स्निग्ध तथा सौम्य होता है। जो स्वतः प्रसन्न है, आत्मानन्दित है उसका व्यवहार भी प्रसन्नताजनक तथा आनन्ददायक होगा।
मनुष्य की इस स्थिति को यदि स्वर्गीय स्थिति कहा लिया जाए तो अत्युक्ति न होगी। क्योंकि स्वर्ग और नरक कहीं कोई अलग से बसे अथवा बने स्थान नहीं हैं। वह मनुष्य की अपनी आन्तरिक स्थिति ही है जो दुःख दायिनी होकर स्वर्ग-नरक की संज्ञा पाती है। अज्ञानी मनुष्य जहाँ इसी संसार में रहता हुआ नरक भोगता है, वहाँ ज्ञानी मनुष्य इसी संसार में रहता हुआ स्वर्ग में निवास करता है। ज्ञान और अज्ञान के रूप में हर मनुष्य अपने साथ स्वर्ग अथवा नरक लिए फिरता है।
ज्ञान संसार की सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है। संसार का समस्त वैभव होने पर भी मनुष्य निर्धन ही है यदि ज्ञान रूपी धन का संचय करने में उसने प्रमाद किया है। क्योंकि संसार की सारी विभूतियाँ, सारी संपत्तियां और सारे वैभव नश्वर हैं। वे आज हैं तो कल नष्ट हो सकते हैं। नित्य प्रति संसार के बड़े-बड़े संपत्तिवान जब तब निर्धन होते देखे जा सकते हैं। किन्तु ज्ञान की संपत्ति अविनश्वर होती है। उसको न तो कोई लूट सकता है, न चुरा सकता है और न वह स्वयं ही क्षरणशील होती है। ज्ञान-धन हर स्थिति में मनुष्य के पास बना रहता है। उसके क्षय होने का प्रश्न ही नहीं बल्कि वह तो दिन-दिन विकास पाने वाला तत्व है। इसके अतिरिक्त सारी सम्पत्तियों में एक शक्ति मानी गई है। लौकिक संपदाओं में भी एक शक्ति होती है। पर होती उसी की तरह क्षयशील। वह बनी ही रहे अथवा काम आती ही रहे यह निश्चित नहीं। संपत्ति के साथ वह नष्ट भी हो जाती है। किन्तु ज्ञान की शक्ति अक्षय, अनन्त और अमोघ होती है। न तो उसमें क्षयमानता का दोष होता है और न क्षरणशीलता का। सर्वश्रेष्ठता के कारण इसकी तुलना में अन्य कोई शक्ति न तो खड़ी हो सकती है और न ठहर सकती है। ज्ञान शक्ति के उदय होने पर अन्य सारी शक्तियाँ निष्प्रभ हो जाती हैं। ज्ञान की शक्ति मनुष्य को सहज ही सारे द्वन्द्वों तथा विघ्नों से पार निकाल देती है। और हर समय, हर स्थिति और हर स्थान में मनुष्य के पास बनी रहती है।
वेद भगवान ने अपने अनुयायियों को प्रेरणा देते हुए कहा है- ‘‘आरोह तमसो ज्योतिः’’ -अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ो।
वेद भगवान ने अन्धकार से निकल कर जिस प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा दी है, वह प्रकाश क्या है? निश्चय ही वह प्रकाश ज्ञान है। जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है उसकी आत्मा प्रकाशित हो उठती है, वह अपने को पहचान जाता है उसके सारे दुःख द्वन्द्व और शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। उसे सत्य रूप परमात्मा के दर्शन होते हैं। उसका जीवन सफल तथा सार्थक हो जाता है।
इसी प्रेरणा में जो अन्धकार शब्द प्रयोग किया गया है वह अज्ञान के लिए ही है। अज्ञान सारे दुःखों का मूल है। अज्ञानी को बुद्धि-अन्ध को पग-पग पर ठोकर खानी पड़ती है। उसे अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का सही ज्ञान नहीं हो पाता और जिस ओर भी पग बढ़ता है उसे असफलता और निराशा का ही सामना करना पड़ता है, जिससे उसके जीवन की सारी सुख-शान्ति नष्ट हो जाती है। अज्ञान मनुष्य जीवन का शत्रु माना गया है। जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों तथा क्षोभ-विक्षोभों का प्रमुख कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही है। अज्ञान मनुष्य के वास्तविक स्वरूप और उसके सारे जीवन को ही कुरूप तथा कलुषित बना देता है। इसी लिए वेद भगवान ने अन्धकार से प्रकाश की ओर अर्थात् अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने की प्रेरणा दी है।
आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। अन्य सारे सद्ज्ञान तो उस आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने के साधन मात्र हैं। आत्म-ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को अन्य ज्ञानों की आवश्यकता नहीं रहती। ज्ञान की परिसमाप्ति आत्म-ज्ञान में ही है। आत्म-ज्ञान क्या होता है इसके समझने में छान्दोग्य उपनिषद् का यह उपाख्यान बहुत कुछ सहायक हो सकता है।
एक बार इन्द्र और विरोचन को यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि “मैं क्या हूँ।” उन्होंने अपने इस प्रश्न पर बहुत कुछ सोचा, आपस में विचार विमर्श किया किन्तु वे इसका उत्तर निश्चित रूप से नहीं पा सके। उनकी जिज्ञासा बढ़ती ही गई। अन्त में समाधान के लिए वे प्रजापति ब्रह्म के पास गए और विनीत भाव से बोले- ‘पितामह हम दोनों में सहसा यह जिज्ञासा पैदा हो गई कि आखिर हम हैं क्या? हमने बहुत कुछ विचार किया किन्तु अपनी इस जिज्ञासा का उत्तर न पा सके। कृपापूर्वक बताएं के हम क्या हैं।”
प्रजापति बड़े प्रसन्न हुए। बोले, “बच्चो यह बड़ी कल्याणकारी जिज्ञासा है। सहज ही सब को नहीं होती। जिसमें यह जानने की जिज्ञासा जाग जाए समझना चाहिए कि उसके भाग्य उदय हो रहे हैं। लेकिन इसका उत्तर सहज नहीं है। और यदि उत्तर दिया भी जाए तो उसका समझ सकना कठिन है। यह अनुभव की बात है। इसलिये मैं तुम्हें उत्तर देने से पूर्व एक बात बतलाता हूँ। उसे करो। हो सकता है उससे तुम्हें पता चल जाए कि तुम क्या हो?’’
जिज्ञासुओं ने प्रार्थना की और पितामह ने बतलाया- “एक बड़े से पात्र में साफ पानी भर कर रखो और जब वह स्थिर हो जाए तब उसमें अपना-अपना मुँह देखो। कदाचित् तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाए।’’
इन्द्र और विरोचन ने वैसा ही किया। उन्होंने एक साफ थाल में स्वच्छ जल भरा और आप सज-धज कर आए और पानी में झाँक कर अपना प्रतिबिम्ब देखने लगे। पहले विरोचन ने देखा। अपना सुन्दर और संराधित स्वरूप देखकर वह खुशी से उछल पड़ा। बोला, “देवराज! मैं तो जान गया कि में क्या हूँ? मैं एक युवा, तरुण और सुन्दर पुरुष हूँ।” इन्द्र ने कहा- “भाई जब तुम्हें अपना ज्ञान हो गया तो फिर ठीक है, जाओ आनन्द करो।” विरोचन सन्तुष्ट होकर चला गया। उसकी जिज्ञासा सन्तुष्ट नहीं नष्ट हो गई।
इन्द्र ने भी जल में झाँक कर अपना स्वरूप देखा। विरोचन से भी अधिक सुन्दर, स्वस्थ और तेजस्वी। लेकिन उसको अपने प्रतिबिम्ब से जरा भी सन्तोष न हुआ। वह ब्रह्मा के पास गया और बोला- “भगवन मैंने जल में देखा तो उसमें शरीर की प्रतिच्छाया के सिवाय और कुछ भी नहीं दीखा।”
पितामह ने कहा- ‘‘क्यों क्या विरोचन की तरह तुम्हें अपने प्रतिबिम्ब पर आत्म-ज्ञान का सन्तोष नहीं हुआ?” इन्द्र ने निवेदन किया-नहीं भगवन्! मैंने जो कुछ देखा वह तो आँख, नाक, कान और आभूषण-वस्त्रों का प्रतिबिम्ब था। मुझे तो इससे भिन्न कुछ और होना चाहिए। आज मैं स्वस्थ हूँ, सुन्दर दीखता हूँ। अलंकारों के कारण ही जो अवयव आकर्षक दीखते हैं, यदि अलंकार उतार दिए जाएँ तो वे सब कुरूप दीखने लगेंगे। उनकी शोभा जाती रहेगी। जो वस्त्र स्वयं सुन्दर दीखते और शरीर को सुन्दर दीखने में सहायक हो रहे हैं वे आज फट जाएं तो न तो उनकी सुन्दरता है और न उपयोगिता ही। शरीर अस्वस्थ हो जाए, काना, कुबड़ा, लूला-लंगड़ा हो जाए तब तो उसका सुन्दर लगना तो क्या देखा भी न जाए। ऐसे नश्वर और परिवर्तनशील शरीर को मैं अपना सत्य स्वरूप किस प्रकार मान सकता हूँ?”
इस संक्षिप्त उपाख्यान का भाव बतलाता है कि जो व्यक्ति शरीर को अपना स्वरूप मान लेते हैं वे भूल करते हैं। शरीर नित्य-प्रति नष्ट होता रहता है और एक दिन पूर्णतया नष्ट हो जाता है। किंतु इस स्थिति में भी ‘मैं’ का अस्तित्व बना रहता है। मैं अर्थात् आत्मा, अविनश्वर और अपरिवर्तनशील तत्व है। वह शरीर से परे अविनाशी तत्व जब मनुष्य के ज्ञान क्षेत्र में प्रकाशित हो उठता है तभी मनुष्य को अपना ज्ञान होता है। शरीर के सारे धर्म निभाते हुए सबको उस आत्म-तत्व का ज्ञान करने का प्रयास करते ही रहना चाहिए। क्योंकि वही सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट सच्चा ज्ञान है। उसे पा लेने के बाद न तो कुछ पाने के लिए रह जाता है और न कुछ जानना शेष। उसे जानते ही मनुष्य शुद्ध, बुद्ध और सर्वज्ञ हो जाता है। सारे सुख और सारे आनंद सहज ही उसके वशीभूत हो जाते हैं।