Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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भारतीय दर्शन का विस्तार व वैज्ञानिक विश्लेषण
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एक रहस्यमय शक्ति है, जो स्थूल नेत्रों से अदृश्य और अनिवर्चनीय है, तथापि वह संसार के कण-कण में विद्यमान है। वह इन्द्रियातीत सत्ता दिखाई तो नहीं देती, पर उसे भावनाओं के द्वारा अनुभव जरूर किया जा सकता है। आत्म-निरोध और संकल्प-शक्ति के द्वारा उसे प्राप्त भी किया जा सकता है।
एक सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी सत्ता की स्वीकारोक्ति आज विज्ञान ने न की होती तो सम्भवतः हिन्दू धर्म का यह विश्वास ही लड़खड़ा गया होता। हम दीपक जला कर रखते हैं, तो कमरे का प्रत्येक कण चमक उठता है। दीपक का प्रकाश अपने आप में एक विचारशील परमाणु होता है, तथापि उसमें जीवन की स्वायत्तता नहीं कही जा सकती, पर अब यह तेजी से अनुभव किया जा रहा है कि चेतना अपने प्रकाशमय आकार में ही सर्वत्र विद्यमान है। वही एक मूल स्त्रोत से प्रवाहित होता हुआ सृष्टि के कण-कण में झिलमिल-झिलमिल कर रहा है।
सूर्य हमारी पृथ्वी से दस करोड़ तीस लाख मील दूर है। वहाँ से प्रकाश चलकर पृथ्वी पर आठ मिनट में आता है। सूर्य चमकने से पहले और चमकने तक इस आठ मिनट के अन्तर को हम एक नई चेतना, गर्मी और प्रकाश के रूप में देखते हैं। सूर्य न होता, तो न तो वृक्ष और वनस्पति होती, न बादल बनते न वर्षा होती। अन्न के अभाव में प्राणधारियों का रहना असम्भव हो जाता, इसलिये सूर्य को एक मूल चेतना के अस्तित्व के रूप में स्वीकार करना ही पड़ता है।
शतपथ ब्राह्मण 7।1।1।37 में पृथ्वी का-”परिमंडल उवा अयं (पृथ्वी) लोक” अर्थात् यह पृथ्वी परिमंडल है, ऐसा कहा है। परिमंडल का अर्थ गोलाकार भी होता है और चारों और से घिरा हुआ भी होता है। पृथ्वी आकाश में तैर रही है। अपने इस रूप में वह एक इकाई है और जीवन की अनेक विभक्तियों से मुक्त हुई-सी प्रतीत होती है। यदि इस विराट् दृष्टि से देखें तब पता चलता है कि पृथ्वी में जीवन का सम्पूर्ण आधार सूर्य है। यदि यह सूर्य थोड़ा-सा भी आगे-पीछे हो जाये तो पृथ्वी न जान कहाँ चली जाये। सूर्य में इतनी अधिक शक्ति है कि यदि उस पर पचास फीट मोटी बर्फ की तह चिपका दी जाये, तो वह उसे पिघला कर खोला देने में एक सेकेण्ड से अधिक समय नहीं लेगा, जबकि इतने के लिये उसे कुल 212 डिग्री सेन्टीग्रेड ताप से काम लेना पड़ेगा। सूर्य की कुछ ही किरणें दोनों ध्रुवों को पिघला कर समुद्र बना सकती हैं, जबकि उसकी मूल शक्ति 360000 डिग्री से भी अधिक है। शक्ति का यह भण्डार उन्होंने छिपा कर रखा है। यदि सब कुछ प्राकृतिक नियमानुसार रहा होता तो कभी भी अग्निदाह या जल-प्रलय की स्थिति आ सकती थी, पर ऐसा नहीं होता। अखिल आकाश में तैरते हुए भी हम एक क्रम व्यवस्था अनुभव करते हैं यह सब अनायास ही नहीं, विधिपूर्वक और विचारपूर्वक है, इसलिये यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि पृथ्वी के सभी क्रिया-व्यापार किसी एक प्रतिनिधि चेतना द्वारा संचलित किये जा रहे हैं।
हम साँस लेते हैं, उस एक साँस में ही 3 करोड़ अरब से भी अधिक अणु हम अपने भीतर कर लेते हैं। इनमें से प्रत्येक अणु सैकड़ों मील प्रति घण्टे की गति से चलता है। प्रत्येक अणु में भीतर विद्युत शक्ति भरी है कि उससे सैंकड़ों हार्स पावर की मशीनें चलाई जा सकती हैं। अब यदि हम यह कहें कि हमारे भीतर जो चेतना का प्रवाह उमड़ रहा है, वह इतना अधिक शक्तिशाली है कि यदि उसे नियन्त्रित करके किसी पृथ्वी जैसे ब्रह्मांड को पल भी में ही जलाकर खाक किया जा सकता है, तो उसे अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए। यह कण ही चेतना को शक्ति प्रदान करते हैं। प्रत्येक चेतन अणु की यह सामर्थ्य यह बताती है कि जहाँ से वह कण निःसृत हो रहे हैं, वह तत्व सर्वव्यापी ही नहीं, सर्वशक्तिमान भी अवश्य होना चाहिए।
सूर्य भी किसी निहारिका (नोबुला) से प्रकाश ले रहा है। अर्थात् वह विश्व-व्यापी चेतना का एक प्रतिनिधि मात्र है। उसकी शक्ति कहीं और से आ रही है। यह शक्ति-कण ही विद्युत धारायें तेज और वात बनाते हैं। उन्हीं के माध्यम से हम रेडियो ध्वनियों, चित्र और मौसम सम्बन्धी पूर्व जानकारियाँ अर्जित करते हैं अर्थात् इन कणों में शब्द, आकार, ऊर्जा, स्वामित्व की शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। व्यष्टि रूप से हर कण में यदि कोई ऐसी विलक्षण शक्तियाँ हैं, तो उनकी केन्द्रीभूत सत्ता में वह सब कुछ अवश्य होना चाहिए, यह दर्शन ही परमात्मा पर विश्वास का एक ठोस आधार है।
इस विश्वास के आधार पर ही जब हम उस परम सत्ता से भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ते हैं, तो मिलने वाले फलितार्थ उस विश्वास की पुष्टि कर देते हैं। भक्त प्रहलाद का अग्नि से जीवित बचकर निकल आना, मीरा का विष पीकर भी जीवित बने रहना, रैदास का कठौती से कड़ा निकाल देना-यह ऐसे उदाहरण हैं जो हमारे विश्वास की पुष्टि करते हैं। पर यदि इन्हें पुरानी घटनायें कहा जाये तो आज भी सैकड़ों उदाहरण ऐसे दिये जा सकते हैं, जब लोगों के ऐसे विश्वास प्रतिफलित होते देखे गये हैं।
यास्मीन नेशनल पार्क में फारेस्ट रेन्जर के पद पर काम करने वाले स्टार जेंकिस नामक एक कर्मचारी को 1956 में एक ऐसे स्थान का पता लगाने को भेजा गया, जहाँ बिजली गिरी थी। उस स्थान का पता लगाने के लिये श्री जेंकिस अपने घोड़े पर चढ़कर चले। यह स्थान दस हजार फुट की ऊँचाई पर कहीं था। बीहड़ वनस्थली, ऊँचे-नीचे पहाड़, कटाव, नदियाँ, नाले उतने कष्टदायक नहीं थे, जितनी कि वर्षा, हिमपात और क्षण-क्षण पर गिरने वाली बिजली।
इस सर्वेक्षण के दौरान स्टार जेंकिस को मारने वाली विपत्तियों का सामना करना पड़ा। एक बार तो उसके पास कुल 100 गज की दूरी पर ही बिजली गिरी। घोड़ा बिदक गया। सामने नदी थी। बीहड़ सुनसान में जेंकिस बुरी तरह भटक गया। मृत्यु बिल्कुल समीप थी।
तब उसने सम्पूर्ण एकाग्रता से उस परम सत्ता का ध्यान किया। श्री जेंकिस ने अपनी अनुभूति ‘प्रार्थना फल गई’ शीर्षक में बड़े मार्मिक शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा है कि मुझे एकाएक धैर्य आया, आधी रोटी खाकर दो कप पानी पिया। मृत्यु की विभीषिका के मध्य एक प्रकाशीय घेरे में अपने आपको पूर्ण सुरक्षित अनुभव कर रहा था। मालूम नहीं किस कोने से, पर मेरे भीतर अपने आप ही एक ज्ञान उदय हो गया कि मुझे इस दिशा में जाना चाहिए। उधर नदी बढ़ी हुई थी तो भी घोड़े ने उसे कैसे पार कर लिया। उस स्थान तक कैसे पहुँच गया, जहाँ बिजली गिरी थी-उसका स्मरण करता हूँ तो उस परम सत्ता की दया के प्रति अनुगृहीत हो उठता हूँ। उस दिन परमात्मा ने राह न दिखाई होती, तो मैं कहीं-का-कहीं भटक कर मृत्यु के मुख में चला गया होता।
‘नवनीत’ के ही एक अज्ञात अंक में फोटो सहित कु0 मन्जू का संस्मरण भी ऐसा ही है जो यह बताता है कि कोई एक मानसिक चेतना हर घर, गली और कण-कण में विद्यमान है, जो हमें अदृश्य सहायतायें देता रहता है।
“मुरादाबाद में भूकम्प आया था। दिन के लगभग पौने ग्यारह बजे भूकम्प आया। हम अपने भाई के साथ दुमंजिले की छत पर खड़े थे। कमरे की चार दीवारों में से पिछवाड़े की दीवाल गिरी। हम दोनों भागे, छत तब तक सकुशल रही, जब तक हम जीने में नहीं पहुँच गये। पैर जीने पर और छत जमीन पर। हम बाल-बाल बचे। पर जीना किसके सहारे टिकता, उसे तो तुरन्त गिर जाना चाहिए था। पर जब तक हम दोनों भाई-बहिन आखिरी सीढ़ी नहीं उतर गये, जीना लटका रहा और उससे पार होते ही वह भी धराशायी हो गया। मेरे पीछे-पीछे आई मृत्यु पीछे-की-पीछे रह गई। यह उस ईश्वर की कृपा का ही फल था।”
ऐसी अदृश्य सहायतायें सदैव क्यों नहीं मिलतीं? परमात्मा की कर्म-व्यवस्था का आधार क्या हैं? यह देर में समझ में आने वाली बात है, पर हिन्दू-दर्शन के प्रथम अध्याय में ईश्वर के अस्तित्व और उसके सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान होने में कोई सन्देह नहीं है। यहीं से हिन्दू-धर्म का विश्व कल्याणकारी अमृत-रचना फूटता है और एक दिव्य विज्ञान के रूप में सारे संसार को आत्मोत्कर्ष का प्रकाश देता हुआ आगे बढ़ता है। हम ईश्वर को सर्वत्र व्याप्त होता हुआ देखें और उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करें-इस मूल सिद्धान्त को स्वीकार कर लें, तो हमारा मृत्योन्मुखी जीवन भी अमृत कणों से आविर्भूत हो सकता है।