Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म परिष्कार से परब्रह्म की प्राप्ति
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परमात्मा को सच्चिदानन्द स्वरूप कहा गया है। उस विराट का ही एक अंश होने से जीवात्मा भी उन्हीं गुणों से सुशोभित है। सत्, चित्, आनन्द ये तीनों मिलकर कारण शरीर का ढाँचा बनाते हैं। सत् अर्थात् शाश्वत, अजर, अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना -दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्चस्तरीय आदर्शों-आस्थाओं से युक्त। आनन्द अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त अन्तःकरण। आशा, उत्साह, संतोष के परस्पर समन्वय पर आधारित जीवन क्रम। आत्मा का सहज स्वभाव है ऊँचा उठना, अपने विराट स्वरूप की स्वयं को प्रतिमूर्ति बनाने के लिए इन्हीं गुणों से स्वयं को समृद्ध करना तथा अन्ततः समस्त आवरणों को हटाते हुए अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करना। परिष्कृत जीवात्मा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आध्यात्मिक पुरुषार्थ करती है एवं जीव-ब्रह्म सम्मिलन से निःसृत परमानन्द की स्थिति को प्राप्त करती है।
इस आत्म गरिमा से अपरिचित मनुष्य भटकता है। यह विस्मृति अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती है। इन्हें ही माया के आवरण-मनुष्य के विभ्रम कहा जा सकता है। ये ही रोग-शोकों के रूप में अन्ततः बाहर प्रकट होते हैं।
सच्चिदानंद का पहला चरण है ‘सत्’। ‘सत्’ मनुष्य को जीवन के क्षण भंगुर होने का बोध कराता है। हम अजर, अमर, अविनाशी है। पंचतत्वों से बनी इस काया अवयवों के बिखर जाने पर भी हमारी सत्ता बनी ही रहेगी। यह बोध बना रहे तो भटकाव से बचा जा सकता है।
सत् की अनुभूति व्यक्ति को यह विचार करने पर विवश करती है कि यह शरीर मरणधर्मा है। परन्तु आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। वह तो एक सतत् प्रवाह है। आत्मा का स्वास्थ्य ही मानव की समस्त सफलताओं का प्राण है। यह तभी सम्भव है जब मानव अपने वर्तमान जीवन को श्रेष्ठ, उदार तथा उदात्त भावनाओं से युक्त करने का प्रयास करता है। सत् परायण व्यक्ति आशावादी होता है। अपने कर्मों के फल के लिए वह उद्विग्न नहीं होता। स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए जीता है।
सत् में आस्था रखने वाला व्यक्ति सृष्टि को चलाने वाली बुद्धिमान, उद्देश्यपूर्ण व्यवस्था में दृढ़ विश्वास रखता है। वह जानता है कि विधि-विधानों, नियमों के अनुरूप चलने वाली इस सृष्टि की व्यवस्था में किसी तरह की अनुशासनहीनता, अनियंत्रण, अदूरदर्शिता का स्थान नहीं है। कर्मफल से पूर्णतः अवगत यह व्यक्ति अपनी समस्त गतिविधियों का निर्धारण सुघड़ता पूर्वक करता है। वह जानता है कि आत्मा कभी नहीं बदलती। बदलता तो यह चोला है। फिर एवं उपभोगों में स्वयं को लीन करना इस सृष्टि के मुकुटमणि मानव के लिए कतई शोभनीय नहीं है। ऐसा चिन्तन प्रखर होने पर स्वयं को ऊँचा उठा हुआ पाता है। आत्मिक प्रगति के विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ वह अपने लक्ष्य तक जा पहुँचता है।
अन्तःकरण की दूसरी विशेषता है ‘चित्’। उच्च स्तरीय आस्थाओं, मान्यताओं एवं आदर्शों से युक्त व्यक्ति ‘चित्’ परायण कहलाता है। ‘चित्’ अर्थात् स्वयं के विषय में उत्कृष्टतापूर्ण मान्यता, अपने लक्ष्य के प्रति चेतनता, सजगता। ये वे निष्ठाएँ हैं जो मनुष्य की जीवनयात्रा की रूप रेखा बनाती है।देवत्व में आस्था, आदर्शवादी उत्कृष्टता में अटूट विश्वास, सर्वोच्च सत्ता के प्रति समर्पण भाव ‘चित्’ के परिष्कृत स्वरूप है।
ऐसे व्यक्ति लोकसेवी का --समर्पित व्यक्ति का-जीवन जीते हैं। आदर्शों की बलिवेदी पर वे अपने समस्त स्वार्थों को होम देते हैं। उनकी सारी मान्यताएँ चिन्तन का खाका, व्यक्तित्व का ढाँचा इस तरह विनिर्मित होता है कि संपर्क में आया व्यक्ति भी उच्चस्तरीय जीवन की और अभिमुख हो जाता है। शहीद, समाज सुधारक, लोकसेवी, सन्त, सामान्य, परजीवट के धनी व्यक्ति इसी श्रेणी में आते हैं। वे जो जीवन जीते हैं, आदर्शों रूपी ईश्वर को समर्पित होता है। अपनी निष्ठाओं के आधार पर वे स्वयं तो उच्च प्रगतिशीलता की भूमिका को प्राप्त होते ही है, सहज श्रद्धा व जन-सम्मान के भी पात्र बनते हैं। अध्यात्म उनके भीतर से प्रस्फुटित होता रहता है। क्रियाओं में, विचारणा में, भाव संवेदनाओं में प्रभु स्वयं आदर्शों के रूप में प्रतिभासित होते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति अहंकार से कोसों दूर होते हैं। लोकेषणा से दूर वे जनसेवा को ही, उदारता-करुणा विस्तार को ही अपना परम लक्ष्य मानते हैं, इसी को उपासना कहते हैं।
‘चित्’ एक ऐसा गुण है जो परिष्कृत स्वरूप में व्यक्ति को महामानव बना देता है। पर जब यही विकृति की ओर अग्रसर हो जाता है, तो अनेकानेक समस्याओं, मानसिक असन्तुलनों एवं शारीरिक सन्तापों को जन्म देता है। आदर्शवादी से निष्ठा हटते ही पतन तेजी से होता है। दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण स्वयं के विषय में मान्यताएँ गरिमायुक्त नहीं रहतीं। श्रेष्ठ चिन्तन का अभाव एवं उत्कृष्टता के प्रति अनास्था अन्ततः उद्दंडता को जन्म देती है। विकृत चिन्तन से सद्विचारों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सिद्धान्तों के प्रति-अपनी दिव्यताओं के प्रति अनास्था मनुष्य को एकाँगी, स्वार्थी एवं अहंकारी बना देती है।
सच्चिदानंद का तीसरा व अन्तिम पक्ष ‘आनन्द’। इसके बिना आत्मा की परिपूर्ण व्याख्या सम्भव नहीं। जीवात्मा का लक्ष्य ही आनन्द है। इसे परिष्कृत भाषा में कहा गया हैं “रसो वैसः” - वह परमात्मा रस से आनन्द से परिपूर्ण हैं। इस रस को प्राप्त करने के लिए विभिन्न मार्गों से साधक पुरुषार्थ करता है एवं सन्तोष का आनन्द लेता है। इस रस का अन्तरंग पक्ष है-भाव संवेदनाओं से लबालब अन्तःकरण। करुणा, दया सेवा, भावना, भक्तिभाव रस के परिष्कृत स्वरूप हैं। जब इनका विकास महज स्वाभाविक रूप से होता है, तो ये व्यक्ति को भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठाते हैं। ऐसे महामानव विश्व मानवता की सेवार्थ अपने जीवन की आहुति दे देते हैं। इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला आनन्द क्षणिक है, ऐसी मान्यता रखने वाले ये महापुरुष अपनी क्षमताओं को पूरा उपयोग उच्च उद्देश्य की ओर नियोजित करने में करते हैं। जमा करने में नहीं, वितरण में विश्वास रखते हैं। परस्पर सौहार्द्र की वृद्धि ही उनका लक्ष्य होता है। उन्हें सद्विचारों, सद्भावनाओं एवं सत्कर्मों में रस आता है। यह अक्षुण्ण आनन्द उन्हें जिस ऊँचाई तक ले जाता है, उसे पाकर भौतिक आकर्षण उन्हें प्रलोभित कर नहीं पाता।
चेतना पर माया, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर के जो आवरण पड़े हैं, इनके कारण जीव इस उद्गम स्त्रोत तक पहुँच नहीं पाता। प्यास निरन्तर बनी रहती हैं। कस्तूरी अपनी नाभि में लिये हिरन जिस प्रकार सुगन्ध की खोज में मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव आनन्द की खोज में विविध योजनाएँ बनाता, कल्पना करता एवं अथक प्रयत्न करता है। यह पुरुषार्थ असफल, असमाधानकारक ही होता है। अन्तःकरण की गहन परतों में छिपे आनन्द के स्त्रोत की खोज बाह्य जगत में चलने के कारण भटकाव, थकान, अशाँति निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता।
आनन्द की मिठास और भी गहन है। इसकी विकृति वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में बाहर परिलक्षित होती है। आनन्द की प्रतिच्छाया होने के कारण वासना आकर्षक एवं लुभावनी लगती है। विषयों के सेवन में मन लगने लगता है तो व्यक्ति विलासी, प्रमादी, आलसी होता चला जाता है। जिह्वा का असंयम, कामेन्द्रियों का उपभोग, संग्रह का लोभ अनेकानेक मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों को जन्म देता है।
विषयों के सेवन में जब इतनी तृप्ति एवं तुष्टि मनुष्य को मिलती है तो उसके मूल स्त्रोत में कितनी मिठास होगी, यह कल्पना मात्र से ही हृदय पुलकित हो उठता है। भगवान रसमय है। इस रस को आत्म-सत्ता के रूप में ईश्वर ने मनुष्य को धरोहर बनाकर दिया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। इसे अन्तःकरण के उल्लास, सन्तोष, शाँति जैसी दिव्य संवेदनाओं के रूप में अनुभव किया जाता है। भक्ति रस की धाराएँ ऐसे ही अन्तःकरण में बहती है। ये ही कभी मीरा, कभी चैतन्य एवं कभी रामकृष्ण परमहंस जैसी विभूतियों के रूप में प्रकट होती हैं। सर्वोच्च सत्ता, परब्रह्म से, मिलन संयोग की स्थिति ऐसी ही जागृति पर आती है।
सत् चित् आनन्द की अनुभूति एवं सुनियोजित सद्गति व्यक्ति को कहीं का कहीं पहुँचा देती है। इसी अनुभूति का अभाव भटकाव को जन्म देता है। कारण शरीर की इन तीन धाराओं को, उनके उद्देश्य को एवं विकृति के दुष्परिणामों को जानना आवश्यक है। समस्त व्याधियों के मूल में जो बीज है वह व्यक्ति की स्वयं के मरणधर्मा होने की अनुभूति ने होना, आदर्शवादी, उत्कृष्टता में विश्वास का अभाव तथा आनन्द की प्राप्ति हेतु बाह्य जगत में भटकाव। मनुष्य आत्मा-गरिमा से यदि परिचित होने का प्रयास करे, तो वह जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि-रसानुभूति का आनन्द ले सकता है। समस्त विकारों से मुक्ति मिल जाती है जब व्यक्ति स्वयं की अजरता, अमरता पर चिंतन करता है। नश्वर शरीर के लिए वह अपनी क्षमताएँ नष्ट नहीं करता, वरन् सत् की खोज, चित की स्वीकारोक्ति व आनन्द की अनुभूति में अपने जीवन का सदुपयोग कर परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।