Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रचण्ड ऊर्जा के दो प्रवाह कुण्डलिनी में
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शरीरगत ऊर्जा का केन्द्र मूलाधार माना गया है और चेतना ऊर्जा का उद्गम केन्द्र सहस्रार। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय मूल में है और सहस्रार चक्र मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में। इन दोनों की तुलना दक्षिण और उत्तर ध्रुवों से की जाती है। जिस प्रकार धरती का समस्त वैभव अंतर्ग्रही अनुदानों से परिपूर्ण है और वह ध्रुव केन्द्रों के माध्यम से उपलब्ध होता है। ठीक उसी प्रकार सहस्रार के माध्यम से ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ उपलब्ध की जाती है, और उपयोग में बची खुची जो अनावश्यक लगती हैं, वे मूलाधार से निकल जाती है। सहस्रार को उत्पादन अर्जन का माध्यम और मूलाधार को विसर्जन निष्कासन का द्वार कहा गया है। आध्यात्मिक कमाई ब्रह्मरन्ध्र के केन्द्र से होती है और उसका खर्च यदि महत्वपूर्ण प्रयोजन में नहीं बन पड़ा तो मूलाधार के समीप वाला छिद्र उसे काम कौतुक के सहारे विसर्जित करता बहाता रहता है। सहस्रार के माध्यम से समाधि का आनन्द और मूलाधार के माध्यम से कुण्डलिनी का लाभ उठाया जा सकता है।
दिव्य उपार्जनों को प्रखर बनाने और श्रेष्ठ उपयोग में लगाने की विद्या का नाम कुण्डलिनी जागरण है। कुण्डलिनी उस प्राण विद्युत का नाम है, जिसमें शरीरगत ऊर्जा का अंश कम है और प्राण चेतना का भाग अनुपात अधिक होता है। यदि उसका महत्व समझा और उपयोग जाना जा सके तो मनुष्य प्रचलित सम्पदा उपार्जनों की तुलना में अधिक उच्चस्तरीय लाभ कमाने में सफल हो सकता है।
कुण्डलिनी का शब्दार्थ है - घेरा बना कर बैठना। कुण्डलिनी मारकर सर्प बैठता है। इसलिए उसी की उपमा प्रायः काम में लायी जाती है। पृथ्वी शेषनाग के फन पर रखी हुई है। आकाश तत्व का देवता ‘अनन्त’ महासर्प है। इस पौराणिक मान्यता में विश्व-ब्रह्माण्ड की तथा पृथ्वी की स्थिति का निरूपण है। पाताल को शेष लोक कहते हैं। ऊपर के ब्रह्मलोक पर भी शेष सर्प का ही आधिपत्य है। विष्णु भगवान शेष सर्प पर सोये हुए हैं। शिव लोक में भी सर्प साम्राज्य है, वे भगवान शंकर के अंग- अंग से लिपटे हुए है। इस प्रकार अधःलोक और ऊर्ध्वलोक में पृथ्वी के ऊपर और नीचे सर्पसत्ता का ही आधिपत्य है। इस विवेचना से कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप की आरम्भिक जानकारी मिलती है।
शक्ति का ही विकसित रूप पदार्थ है। शरीर के अवयव या रासायनिक पदार्थों से बने हैं, पर मूलतः वे शक्ति रूप हैं। शक्ति ही सघन होकर रासायनिक तथा दूसरे पदार्थों का रूप धारण करती है और इन्हीं के संयोग से शरीर बन जाते हैं। संक्षेप में शरीर रचना का मूलतत्व-मूल आधार एक विद्युत शक्ति के रूप में ही उद्भूत होता है। रतिक्रिया के घर्षण से यही विद्युत उत्पन्न होती है। उसी से शुक्राणु एवं डिम्ब कीट मिल कर गर्भधारण का सुयोग बनाते हैं। शरीरगत सभी हलचलों, क्षमताओं और विशेषताओं का श्रेय जिन गुण सूत्रों को दिया जाता है-वह वस्तुतः एक सचेतन विद्युत की ही प्रतिक्रियाएं हैं। यह प्राण विद्युत किसी शरीर का उत्पादन करने से लेकर उसका आजीवन बना रहने वाला ढाँचा खड़ा करती है इस ढांचे में शरीर और मन दोनों की ही संरचना सम्मिलित है। संक्षेप में प्राणधारियों के काय कलेवर का अस्तित्व, स्वरूप एवं भविष्य निर्धारण करने वाली प्राण विद्युत का नाम कुण्डलिनी है।
कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र में है। यह चेतना मूलक है। चेतना यों समस्त शरीर में संव्याप्त है, पर उसका संचार केन्द्र मस्तिष्क ही है। प्राण विद्युत का ज्ञानपरक सिरा मस्तिष्क में और शक्ति परक सिरा मूलाधार में है। दोनों प्रायः पृथक ही रहते हैं। दोनों सिरे अपने-अपने सीमित प्रयोजनों को ही पूरा कर पाते हैं। पृथक-पृथक उनकी शक्ति इतनी ही है कि अपने स्थानीय उत्तरदायित्व को वहन कर सके। बिजली के दो तार अलग-अलग रहें तो उनसे कोई विशेष प्रयोजन पूरा नहीं होता, पर जब वे मिल जाते, है तो उस संयोग से प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होता है। कुण्डलिनी जागरण की साधना में प्राण-विद्युत के दोनों सिरों को मिला दिया जाता है। इस मिलन का चमत्कार वैसा ही होता है, जिस प्रकार नर-नारी के मिलन से एक नये उत्साह का, नये उत्तरदायित्व का और नये परिवार का आरम्भ होता है। कुण्डलिनी जागरण में मूर्छना की समाप्ति और चेतना की अभिवृद्धि ही नहीं, दो शक्ति ध्रुवों की मिलन प्रक्रिया भी सम्मिलित है।
मूलाधार वाला सिरा प्रजनन के लिए उत्साह एवं सामर्थ्य जुटाने में लगा रहता है और उसी प्रवाह की पूर्ति कर पाता है। सहस्रार की सामर्थ्य भी उपार्जन, उपयोग एवं व्यवहार व्यवस्था में नियोजित हो जाती है।
मूलाधार चक्र को प्राण ऊर्जा जीवनी शक्ति, सृजन प्रेरणा, जिजीविषा, उमंग आदि में स्त्रोत के रूप में समझा जा सकता है। उसका अनवरत प्रयास काया के समस्त भौतिक प्रयोजनों में आवश्यक समर्थता एवं प्रेरणा उत्पन्न करने में लगा रहता है। इन्हीं में से एक प्रेरणा उत्पन्न करने में लगा रहता है। इन्हीं में से एक उत्साह काम-क्रीड़ा है। “काम” शब्द का वास्तविक अर्थ क्रीड़ा-विनोद एवं खिलाड़ी जैसे आनन्द की अनुभूति है इस प्रयोजन में प्रायः काम कौतुक ही हलचल को प्रधानता मिल जाती है। इसलिए रति प्रयोजनों के अर्थ में ही इन दिनों ‘काम’ शब्द का उपयोग होने लगा है। मूल अर्थ इसमें कहीं अधिक व्यापक है, उसे कर्मठता और प्रगतिशीलता का उमंग भरा सम्मिलन कह सकते हैं। यदि ऐसा न हो तो जीवन के चार पुण्य फलों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में काम शब्द का प्रयोग न हुआ होता। भला योगी, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी, तत्वज्ञानी क्यों ‘काम’ जैसी अश्लील और शक्ति क्षरण करने वाली प्रक्रिया को जीवन फलों में सम्मिलित करते।
कुण्डलिनी का दूसरा ऊपरी सिरा मस्तिष्क मध्य सहस्रार में है। यह जीव चेतना का ज्ञान धारणा का केन्द्र है। यह जितना विकसित होता चला जाता है, समझदारी बढ़ती जाती है। उसी अनुपात में मनुष्य अधिक आजीविका एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। इस केन्द्र की रहस्यमयी परतें कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास से उभारी और सशक्त बनायी जा सकती हैं। इस उपार्जन को दिव्य ज्ञान या दिव्य दृष्टि कहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान के कौतूहलपूर्ण चमत्कारों की चर्चा प्रायः होती रहती है। विशिष्ट बुद्धिमानों की उद्भूत मस्तिष्कीय प्रतिभा का विवरण सुनने को मिलता रहता है। उसके पीछे किसी रहस्यमय चेतना परत का प्रस्फुरण ही काम करता है। दूरदर्शी सूझबूझ के सहारे लोग ऐसी योजनाएँ बनाते हैं, जिनके सफल होने में कदाचित ही व्यवधान पड़ते हैं। इसे भी मानसिक विशिष्टता ही कह सकते हैं, जो सर्व साधारण में नहीं होती है। ऐसी उपलब्धियों में भी उन्हीं गहरी पर्तों का उभार काम करता है, जिन्हें सामान्य प्रयत्नों से नहीं वरन् कुण्डलिनी जागरण जैसे आध्यात्मिक प्रयत्नों से ही पूरा किया जाता है। तत्वदर्शी, महामनीषी ब्रह्मज्ञानी आत्माएँ अपनी दिव्य क्षमताओं को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में प्रयुक्त करने की उपयोगिता समझते हैं। फलतः वे महात्मा, देवात्मा, ब्रह्मात्मा जैसी भूमिकाएँ सामान्य शरीर धारण किए रहने पर भी निबाहते रहते हैं। उसमें हेर-फेर करने की क्षमता भी उसमें पाई जाती है, इसलिए उन्हें सिद्ध पुरुष भी कहा जाता है। यह मानवी सत्ता के उत्तरी ध्रुव का प्रखरीकरण हुआ। इसे महासर्प का जागरण भी कह सकते हैं।
दक्षिणी ध्रुव का-मूलाधार का -जागरण वह है, जिसमें कामुकता को उदात्त परिष्कृत बनाया जाता है। मनुष्य पराक्रमी पुरुषार्थ, मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी बनता है और महामानवों जैसी भूमिका निभाता है। उसकी काम-क्रीड़ा हँसते-हँसाते स्वभाव में मिलते-मिलाते व्यवहार में सुविस्तृत होती देखी जा सकती है, ऐसे व्यक्ति कुरूप होते हुए भी सुन्दर, जराजीर्ण रहते हुए भी सुन्दर लगते हैं। इसे महासर्पिणी का चमत्कार ही समझा जाना चाहिए।