Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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गौ की ब्राह्मण और देवता से तुलना का आधार
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इस अवसर पर नव सृजन की गतिविधियाँ उभरें इस अवसर पर किये गये शुभारम्भों का भविष्य उज्ज्वल होगा।
जप, यज्ञ और ज्ञान यज्ञ का उपक्रम आठ दिन तक चलने के उपरान्त नौवें दिन नवरात्रि साधना की पूर्णाहुति होती है। पूर्णाहुति की विशेष परम्परा में दो बातें अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं-एस यज्ञ दूसरा ब्रह्मभोज। इनके न करने पर मात्र जप भर करने की प्रक्रिया को अनुष्ठान संज्ञा नहीं मिल सकती। अधूरे-उपक्रम का प्रतिफल भी अधूरा ही रहता है। अस्तु जहाँ भी अनुष्ठानों का व्यक्तिगत एवं सामूहित आयोजन होता है वहा इन दोनों की व्यवस्था किसी न किसी रूप में की ही जाती है, चाहे वह संक्षेप में छोटे स्तर की ही क्यों न हो।
प्रत्येक कर्म काण्ड के पीछे एक दूरदर्शिता पूर्ण उद्देश्य छिपा हुआ है उसे न समझने पर वह प्रक्रिया मात्र लकीन पीटने जैसी रह जाती है। होना यह चाहिए कि इन कृत्यों में सन्निहित मूल प्रेरणाओं को गम्भीरता पूर्वक समझाया और उस आलोक को अपनाया जाए तो उन्हीं क्रिया कृत्यों का माध्यम श्रेयार्थी साधकों की सफलता का आधारभूत कारण बन जाता है।
यज्ञ का प्रत्यक्ष अर्थ अग्नि होत्र है उसका मूल प्रयोजन हवा को शुद्ध करना नहीं वातावरण के परिशोधन का उपक्रम है। अपनी प्रिय वस्तुओं को वायु भूत बनाकर आकाश में बखेर देने और उससे प्राणिमात्र को पोषण पहुँचाने की भावना ही यज्ञ की मूल प्रवृत्ति है। सूयार्घ में भ्ी अपने लौटे का जल सूर्य के माध्यम से भाप बनकर उसका लाभ समस्त विश्व वसुध को देने की भावना है। अनुष्ठानों की पूर्णाहुति एवं सफलता के लिए पारमार्थिक साहस आवश्यक माने गये हैं।
ब्रह्मभोज के पीछे भी यही भावना है। प्राचीनकाल में धर्म-धारणा को जन जीवन में समाबिष्ट बनाये रहने वाले लोक सेवी ब्राह्मण कहलाते थे। जो सेवा साधना में अहिर्निशि निरत है, उसे जीवन्त रखने के लिए शरीर यात्रा के साधन तो देने ही होंगे इस उत्तर दायित्व का निर्वाह ही ‘ब्रह्मभोज है। प्राचीन काल में ऐसे लोक सेवी ब्रह्म परायण सर्वत्र उपलब्ध थे। उनके चरण इन बहाने अपने घर में पड़ें। हाथ से खिलाने का कभी तो सौभाग्य मिले। इस भावना से ओत-प्रोत भावुक साधकों को ब्रह्मपरायणों को अपने घर बुलाने का भी आग्रह रहता था। जहाँ संभव होता वहीं किन्हीं का पहुँचना संभव होता था अन्यथा कोई महत्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त व्यक्ति मात्र पक्वान मिठाई खाने के लिए किसी के घर जाने और उस विडम्बना में अपन दिन खराब करने के लिए तैया क्यों होगा? ब्रह्मभोज की प्राचीन परम्परा यह भी थी कि लोकसेवी निवास केन्द्र, धर्म संस्थान में आटा, दाल आदि खाद्य पदार्थों पहुँचा दिये जाते थे और आवश्यकतानुसार उनका उपयोग होता रहता था। जितने का भोजन उससे अधिक मूल्य का समय गँवाना दूरदर्शिता की कसौटी पर सही सिद्ध नहीं होता। अनाथ भिक्षुओं क बात दूसरी है। उनके समय का मूल्य नहीं होता फिर उन्हें ढूँढ़ना भी कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में उन्हें बुलाकर ही खिलाना पड़ता है।
साधना उपक्रमों में पुण्य परमार्थो को जोड़ रखने की बात उपयोगी भी है और आवश्यक भी है अन्यथा लोग साधन दान के लिए तैयार ही न होते। मात्र फालतू समय में थोड़ा सा पूजा पाठ करके निवृत हो जाते। चन्द्रायन व्रत की पूर्णाहुति पर गोदाम का विधान है। उसी प्रकार अन्यान्य सभी साधनात्मक उपक्रमों में वियोजित हुए श्रमदान समय दान के अतिरिक्त साधनदान की भी आवश्यकता बताई गई है इससे कृपणता को उदारता में विकसित करने के लिए दबाब पड़ता है। साथ ही लोक मंगल की सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण का सुयोग भी बनता है। इसलिए तत्वदर्शियों ने प्रत्येक धर्मानुष्ठान के साथ दान पुण्य क व्यवस्था रखी है और उसमें उदार साहसिकता अपनाने पर जोर दिया है।
आश्विन नवरात्रि के अवसर पर सामूहिक यज्ञों की व्यवस्था सर्वत्र होगी। शास्त्र मर्यादा के अनुसार दशाँस होम के लायक इन दिनों अश्रद्धा के वातावरण में उतनी अर्थ व्यवस्था नहीं जुट पाती। फिर प्रत्यक्षवाद की कुतर्के अग्नि होत्र की उपयोगिता पर भी संदेह करती है। ऐसी दशा में उस प्रक्रिया को संक्षिप्त करके ही काम चलाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मभोज की बात ऐसे ही असमंजस में रह जाती है। जिनके लिए सच्चे अर्थो में ब्राह्मण शब्द का उपयोग हो सके ऐसे ब्रह्म परायण लोकसेवी ढूँढ़े नहीं मिलते जो मिलते हैं वे न पक्वान खाकर अपना पेट खराब करते हैं और न उस झंझट में अपना बहुमूल्य समय गँवाने के लिए सहमत होते हैं। ऐसे ही नाम धारियों में भोजन कराने की कोई उपयोगिता नहीं समझी जाती। अतएव वह प्रसंग ऐसे ही छूट जाता है। संक्षिप्त अग्निहोत्र के साथ पूर्णाहुति सम्पन्न कर दी जाती है। ब्रह्मभोज की उमंग उठती है तो कहीं कन्या भोजन की चिन्ह पूजा बन जाती है। यह प्रतीक पूजन भी है तो आवश्यक किन्तु ये संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। अनुष्ठानकर्ताओं की उदारता को उस अवसर पर उभाग जाना चाहिए और उससे जो श्रद्धा सहयोग उभर कर अये उसे अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण दृष्टि से श्रेष्ठतम सत्प्रयोजन में लगाया जाना चाहिए।
इन दिनों प्रज्ञापीठों के निर्माण की प्रक्रिया समस्त प्रज्ञा परिवारों से चल रही है। इसके लिए व्यवस्था बनाने की बात उन सभी स्थानों पर सोची जानी चाहिए जहाँ सामूहिक अनुष्ठान सम्पन्न हों। इसके लिए सब लोग मिलजुलकर प्रयत्न करें और पन्द्रह-बीस हजार लागात की इमारत बनाने की योजना बनायें। पर वह जब तक बने उस प्रक्रिया को रोक रहने की आवश्यकता नहीं जिसके माध्यम से युग चेतना का उभार एक दिन आरम्भ किया जाना है।
तात्कालिक शुभारम्भ की दृष्टि से माँगे या किराये कमरे में प्रज्ञा मंदिर की स्थापना करली जाए। चौकी पर चित्र स्थापित करने से भी काम चल सकता है। मूल उद्देश्य है-जन-जन को युग साहित्य को पढ़ाने वापिस लेने और रुचि लेने वालों का जन्मदिन मनाने का कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि उसे किये बिना प्रज्ञा संस्थान की सार्थकता ही नहीं बनती। यह कार्य प्रज्ञा मन्दिरों के माध्यम से भी आरम्भ किया जा सकता है। जहाँ भी ऐसी स्थिति हो वहाँ इस प्रकार चलपुस्तकालय की प्रक्रिया आरम्भ कर दी जाए। साथ ही इस नामाँकन में उनके जन्मदिन भी नोट किये जाएं और उन्हें नियत समझा दी जाए। इ प्रकार प्रज्ञा पीठ के प्राण प्रवाह का वह उपक्रम भी चल पड़ेगा जिसके लिए निजी इमारत बनाने की आवश्यकता समझी जा रही है, ध्यान रखने की बात है कि इमारत नहीं उद्देश्य मुख्य है। बिना इमारत के टैन्ट तान कर भी बड़े-बड़े काम सम्पन्न कर लिये जाते हैं। इसके विपरीत अनेकों अनुपयुक्त खण्डहर चमगादड़ अथवा चीलों के घासलों से भरे सुनसान पड़े रहते हैं।
प्रज्ञापीठ आवश्यक व्यवस्था जुटाने पर ही बनेगी पर प्रज्ञा मन्दिर का शुभारम्भ नवरात्रि आयोजन की पूर्णाहुति के दिन ही हो सकता है। आधे दिन का एक आदमी रखने के लिए आवश्यक खर्च महिलाओं द्वारा घरों में रखे धर्मघटोँ से जुटाया जाय और साहित्य खरीद की आवश्यकता पुरुषों द्वारा रखें गये ज्ञान घटों के सहारे चल पड़े। जन्मदिन मनाने की व्यवस्था मुहल्लों के हिसाब से टोली नायम नियुक्त करके उसी समय बना दी जाए। कार्यपद्धति सरल है। जन्मदिवसोत्सव मनाने पूजन भवन आतिथ्य आदि का खर्च पाँच रूपय से अधिक न बढ़ने दने का निर्धारिण किया गया है। उसके कारण ऐसा सुयोग कोई भी छोड़ना न चाहेगा जिससे उसके घर में ऐसा प्रेरणाप्रद उत्सव हो और आनन्द उल्लास भरा वातावरण बने।
पुरानी पत्रिकाएँ तथा युग साहित्य की पुस्तकें संग्रह करके उन पर बाँसी कागज चिपकाया जाए और उतने भर से चलपुस्तकालयों का कार्य आरम्भ कर दिया जाए, पैसा हो ता नया भी मँगाते रहा जाए। शुभारम्भ के समय तो कुछ अधिक साहित्य की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए ब्रह्मभोज के निमित्त अनुष्ठान कर्ताओं तथा अन्य लोगों से जो एकत्रित हो सके उससे पुस्तकालय की स्थापना के लिए नया साहित्य ही मंगा लिया जाय। ब्रह्मभोज की यही प्रक्रिया आज की स्थिति में सर्वोत्तम है।
नैष्ठिक उपासको के अतिरिक्त जो अन्य लोग इस अवसर पर ज्ञान-यज्ञ में उपस्थित रहें उनसे संपर्क साधने का उपक्रम जारी रखा जाए और उन्हें नियमित पासक बनाने का प्रबन्ध किया जाए। यह कार्य भी बीजारोपण वर्ष के पंचसूत्री कार्यक्रम में सम्मिलित है। युग संधि पुरश्चरण के नैष्ठिक उपासकों को सामान्य साधक बढ़ाने का उत्तरदायितव सौंपा गया है इसकी पृष्ठभूमि नवरात्रि के ज्ञान यज्ञ से बनाते रहा जाए तो पूर्णाहुति के दिन ऐसे कितने ही नये व्यक्ति निकल सकते हैं जो पाँच मिनट की नियमित साधना करने लगें और साथ ही अपने परिवारों में धार्मिक वातावरण बनाने के लिए प्रयास आरंभ करें, जो परिवार निर्माण अभियान के अंतर्गत बताया जाता रहा है। इस प्राकर वे वरिष्ठ स्तर के न होते हुए भी अपनी व्यक्तिगत उपासना का शुभारम्भ कर सकेंगे और निजी परिवार में सृजनात्मक वृत्तियों का सूत्र संचालन करते हुए वही प्रक्रिया आरम्भ कर सकेंगे जो बड़े रूप शाखा संगठन एवं प्रज्ञापीठों के माध्यम से किया जाना है।
आश्विन नवरात्रि से पूर्व उसकी तैयारी में निरत रहा जाए। आयोजन को आकर्षक एवं सफल बनाने में कोई कमी न रहने दी जाए। अधिक लोगों को सम्मिलित करने के लिए घरों पर जाने और अनुरोध करने में आलस्य न किया जाए। प्रातः की जप ध्यान और रात्रि की ज्ञान यज्ञ भावश्रद्धा की जगाने में सफल रहे इसकी सूझ-बूझ और भाग दौड़ भरी तैयारी समय से पूर्व सम्पन्न करली जाए। आयोजन चल पडत्रे तो सूच संचलाकों के मस्तिष्क में यही बात घुमड़ती रहीं कि उपस्थिति लोगों में से किसे नव सृजन की किस प्रवृत्ति का समथक सहयोगी बनाया जा सकता है। पंचसूत्री कार्य पद्धति में से कई को अपना सकने वाले व्यक्ति उसमें सम्मिलित अवश्य रहेंगे। इन पर दृष्टि रखी जाए औ परामर्श सुझाव के रूप में कुछ छोटे बड़े कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहे तो इसी अवसर पर कितने ही लोगों को कितने ही रचनात्मक प्रयत्नों में भाग लेने के लिए सहमत एवं तत्पर बनाया जा सकता है।
प्रज्ञापीठों स्थापना के संबंध में यदि दृढ़ निश्चय हो तो उसके लिए आर्थिक सहयोग का अभाव कहीं भी पड़ने वाला नहीं है। सात हजार वाला छोटा-सा धर्म संस्थान तो इन उपस्थित लोगों में से ही कोई एक बनाकर दे सकता है। मिल-जुलकर सम्मिलित प्रयत्न करने पर तो एक अच्छी स्थापना हो जाने और आश्विन नवरात्रि की स्मृति उपलब्धि स्थायी बनने में किसी प्रकार के संदेह की गुजायंश नहीं है। इतने पर प्रज्ञा मन्दिर की स्थापना और चल पुस्तकालय का व्यवस्थाक्रम तो पूर्णाहुति के दिन ही बना लिया जाए और उस छोटे स्वरूप को तब तक चलने लिया जाए जब तक कि बड़े निर्माण को ठीक तरह चल पड़ने का समय नहीं आता।
नैष्ठिक साधकों की एक शर्त मासिक यज्ञ रखा भी हैं। प्रयत्न यह होना चाहिये कि उसकी व्यवस्था प्रायः इस पूर्णाहुति स्तर की ही बनती रहे। प्रातः जप हवन और रात्रि को ज्ञान यज्ञ का मासिक कार्यक्रम कहाँ, किस प्रकार सम्पन्न हुआ करेगा इसका निश्चय ही इसी अवसर पर कर लिया जाना चाहिए। एक छोटी नवरात्रि पूर्णाहुति हर महीने होती रहे तो वह उत्साह जो इस अवसर पर उत्पन्न हुआ है, ठंडा न होने पायेगा। पूर्णिमा पहली तारीख या महीने का अन्तिम अवकाश दिन इन्हीं तीन में से मासिक यज्ञ का निर्धारण परिजनों की सुविधा को देखते, इसी अवसर पर कर लिया जाना चाहिए।
इस वर्ष शान्ति कुन्ज के सत्र, शिविरों में प्रायः सभी प्रज्ञा परिजनों को बुलाया गया है। कई प्रयोजनों के लिए कई सत्र सम्पन्न हो रहे हैं। जिनकी चर्चा पिछले अंक में हो चुकी है। यह सभी विभिन्न वर्गो के लिए उपयोगी है। मलाओं को परिवार निर्माण अभियान का उत्तरदायित्व अपने घरों तथा क्षेत्र में सम्भालना है। कन्या को गृहलक्ष्मी बनना है अधिक समय न सही तो महीनेभर शान्ति कुन्ज रहकर भी वे बहुत कुछ प्राप्त कर सकती है। दो महीने के संगीत, कथा, यज्ञादि, कर्मकाण्ड एवं सेवा संदर्भ्र के सत्रों में धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की सभी आवश्यक योग्यताएं काम चलाऊँ मात्रा में उपलब्ध हो सकती है। इन सत्रों में जिन्हें इस वर्ष सम्मिलित होना हो वे भी इन्हीं दिनों अपना स्थान जब आना हो तबके लिए सुरक्षित करा सकते हैं।
युग संधि की प्रथम नवरात्रि में उदात्त दृष्टिकोण लेकर सम्मिलित हुए प्रत्येक साधककों इन दिनों निर्धारित साधनाक्रम पूरा करने के साथ-साथ एकान्त में शान्त चित्त से अन्तमुर्खी होने का अवसर भी ढूँढ़ना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि वर्तमान जीवनचर्या में आदर्शवादित्ता का कितना समन्वय किस प्रकार हो सकता है ? सोचने में ईमानदारी और तथ्यान्वेषी दृष्टि का समोवश हो सके तो हर किसी को अपने वर्तमान ढर्रे में यह गुजायंश दिखाई पड़ेगी कि वह प्रस्तुत समय और साधनों में से अपव्यय अंश काटने और उसे पुण्य प्रयाजनों में लगा सकने की इतनी गुजायंश निकाल सकता है जिसे संतोषजनक ही नहीं उत्साहवर्धक भी कहा जा सके। अब तक जो बन नहीं पड़ा हैं उसका कारण कोई भौतिक अवरोध नहीं वरन् चिंतन में कृपणता का समावेश भर रहा है। यदि उस अभ्यस्त ढर्रे में थोड़ा सा परिवर्तन किया जा सके तो सहज ही उस दिशा में कुद कदम उठने लगेंगे जिससे युग-धर्म का निर्वाह होने लगे। नवरात्रि साधना की सफलता का अनुमान ऐस निष्कर्षो से ही निकलता है, जिससे अभ्यस्त ढर्रे में पुण्य प्रयोजनों के समावेश का रास्ता निकले।
आत्म परिष्कार का एक ही उपाय है-तृष्णाओं का नियमन। समस्त दोष दुर्गुणों की जन्मदात्री लिप्सा ही है। संकीर्ण स्वार्थपरता के भव बन्धन को शिथिल करते ही जीवन मुक्ति की दिशा में प्रगति क्रम तेजी से चल पड़ता है। दुष्कर्मो और दुर्व्यसनों में क्षमताओं का विनाश करने वाला एक ही असुर है-वितृष्णा का व्यामोह। उस मानसिक असंयम पर अंकुश लगते ही मनुष्य के असंख्यों दोष दुर्गुण सहज ही समाप्त होते चले जाते हैं। सत्प्रवृत्ति संवर्धन की सेवा साधना का व्रत लेते ही इसी जीवन में देवत्व का सहज प्रकटीकरण होने लगता है। अलग-अलग सद्गुणों के लिए अलग-अलग उपाय अपनाने की आवश्यकता नहीं। सत्प्रवृत्ति संवर्धन की सेवा साधना अपने आप में परिपूर्ण योग साधना एवं तपश्चर्या हैं। उस मार्ग पर कदम बढ़ाते ही मील के पत्थरों की तरह वे देवी अनुग्रह मिलते चले जाते हैं। जिनके सहारे विभूतियों एवं समृद्धियों की अपेक्षा की जाती हैं।
मनुष्य के पास दो ही विभूतियाँ हैं-एक समय, श्रम। दूसरा-प्रभाव वैभव। इन दिनों सम्पदाओं का अनुदान हर किसी का न्यूनाधिक मात्रा में मिला है। उसमें से अंशदान करने की बात सोची जानी चाहिए। निर्वाह के लए बीस घण्टे लगायें तो चार घण्टे परमार्थ के लिये निकल सकते हैं, इतना न सही तो कुछ तो बन ही पड़ेगा। महीने में एक दिन के उपार्जन को नव सृजन के लिए नियोजित कर सकना किसी भी उदार चेता के लिए भारी नहीं पड़ेगा और न घाटे का सौदा सिद्ध होगा।
प्रस्तुत नवरात्रि पर्व को अनेक सत्प्रवृत्तियों के शुभारम्भ का शुभ मुहूर्त मानकर चला जाए और अगली छमाही तक के लिए एक सुनिश्चित कार्य पद्धति बनाई जाए जिसे पूरा कर सकना प्रज्ञापुत्रों को अपने पुरुषार्थ के अंतर्गत प्रतीत होता है। व्रतशीलों को सफलता प्रदान करने में देवी अनुग्रह एवं वरदान सदा-सदा ही प्राप्त होता रहा है। इस अवसर पर अग्रगामी कदम बढ़ाने वालों को भी वह सहज ही उपलब्ध होगा।