Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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शब्दवेधी बाण आज भी चलते हैं
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सस्ते गायत्री चरणपीठों की स्थापना सम्बन्धी अभिनव योजना इन दिनों असाधारण महत्व मिला है। उन्हं आदिवासी क्षेत्र में अत्यधिक उत्साह के साथ अपनाया गया है। देश में प्रायः 4 करोड़ आदिवासी बनवासी हैं वे अभी भी सामान्य जन-जीवन में पूरी तरह घुल नहीं पायें हैं। परिगणित जातियाँ अब पूरी तरह जन-जीवन में घुल गई हैं। बहुत थोड़े लोग है ऐसे जिन्हें जीवनयापन करने एवं व्यवसाय अपनाने से रोका जाता हो। सम्बिधान के निर्धारण एवं सरकारी संरक्षण अनुदानों के सहारे उनकी स्थिति तेजी से सुधरी है और कठिनाई प्राय समाप्त हो चली जो कभी विभेद की कष्टकारण दीवार बनकर खड़ी हुई थी।
इतने पर भी आदिवासी समुदाय के जन-जीवन में घुलने की समस्या प्रायः ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसमें जहाँ प्रयत्नकर्ताओं का दोष है वहाँ उन वन जातियाँ का असहयोग ीी कम बाधक नहीं है। एकात्मता की दिशा में जो प्रयत्न हुए हैं उनकी पृष्ठभूमि राजनैतिक या आर्थिक रही है। शिक्षा, चिकित्सा, सुविधाएँ तो दी गई है। चुनावों में उनकी सीटें निर्धारित हुई हैं तथा नौकरियों में संरक्षण मिला है। आर्थिक सुधार के उपक्रम भी चले हैं। यह सब होते हुए भी एक भारी कमी यह रह गई है कि उनको सामाजिक जीवन में प्रवेश नहीं किया गया। जबकि उनके पिछड़ेपन तथा पृथकतावादी चिन्तन की विषैली जड़े उसी क्षेत्र में जमी हुई है। उनका सामाजिक गठन, परम्परा प्रचलन, चिन्तन का ढर्रा, स्वभाग आदि के न मिलने से एक प्रवाह ऐसा बन गया है जिसकी प्रचण्ड धारा से पार हो सकने में किसी को भी सफलता नहीं मिल रही है। न तो जन-जातियाँ अपने पुरुषार्थ से उस गर्त से उबार पा रही है और न उद्धार की बात सोचने वालों की समझ में आ रहा है कि इस खाई को पाटने के लिए उनका सामाजिक जीवन में प्रवेश करना और साथ लेकर चलना आवश्यक है।
आदिवासियों का पिछड़ापन दूर करने तथा उन्हें समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष ला खड़ा करने के लिये धर्मतन्त्र का सहारा लेना अत्यन्त आवश्यक है। प्रज्ञा अभियान के अनतर्गत इन्हीं क्षेत्रों में गायत्री चरणपीठों की स्थापना की बात सोची गई। यह दिशा परिवर्तन का ध्वजारोपण समझा जा सकता है। प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री के संबंध में श्रद्धा एवं जिज्ञासा उत्पन्न करके उस समुदाय को एक भावनात्मक मोड़ दिया जा सकता है। इस मोड़ से उनका चिन्तन एवं प्रचलन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। चरणपीठों के स्थापनकर्त्ता यदि उस समुदाय का धार्मिक मोड़ देने की श्रृंखला में अगली कड़ियाँ सामाजिक मान्यताएँ, अभ्यस्त आदतों, रुढ़ि परम्पराओं एवं मूढ़ मान्यताओं के बदलने को जोड़ते रहे तो निश्चित रूप से प्रतिगामिता घटती और उसके स्थान पर प्रगतिशीलता बढ़ती चली जायेगी।
प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत ‘गायत्री चरणपीठ’ की योजना प्रधानतया पिछड़े वर्ग को ध्यान में रखकर ही बनी थी। क्योंकि वह नितान्त सस्ती और समस्त झंझटों से रहित है। किसी छाया दार पेड़ के नीचे एक बड़ा चबूतरा-चबूतरे के ऊपर चबूतरी-चबूतरी पर गायत्री माता के चरण-अगल-बगल में तुलसी के दो थावले-चबूतरे के चारों ओर नागफनी आदि को कटीली बाड़-पेड़ के ऊपर लम्बे बाँस पर पवित्रता की संस्कृति का प्रतीक पीला झंडा। यह ही चरणपीठों की स्थापना का स्वरूप है। यह कच्ची मिट्टी से बनना हो तो निन्तात रमदान से बन सकता है। चरण खुदा पत्थर और झण्डा यह दो चीज ही ऐसी है जिनके लिए थोड़ा-सा पैसा खर्च करना पड़ सकता है। यदि यह धारा सरंजाम पक्का करना हो तो श्रमदान को काटकर ईंट चूने आदि की लागत ढाई सौ के लगभग ही पड़ती है। दोनों में से जहाँ जैसी सुविधा हो वहाँ प्रबन्ध किया जा सकता है।
दैनिक पूजा में चरणों के नमन, खड़े-खड़े प्रजा जप ध्यान, तुलसी में जल, परिक्रमा जितन, वधान पर्याप्त समझा गया। साप्ताहिक समारोह के रूप में भजन, कीर्तन, कथ-प्रवचन और सम्भव हो तो खरी जैसे किसी घरेलू खाद्य-पदार्थ की हवन की व्यवस्था बनाई गई। इस छोटे समारोह का स्वरूप धार्मिक रखने के साथ-साथ उस समग्र लोक-शिक्षण को उपस्थित समुदाय के गले उतरा जाय तो स्थिति को बदल जा सकता है। विचार-क्रान्ति की औषधि के अन्यत्र भी धर्म तन्त्र की पिचकारी के सहारे जन-मानस में प्रवेश कराने का उपक्रम चल रहा है और यह इंजेक्शन पद्धति आशातीत सत्परिणाम प्रस्तुत कर रहा है। फिर आदिवासी क्षेत्राो में यह स्थापना अपनी क्रमिक श्रृंखला को विकसित करते हुए-”उँगली पकड़ कर कलाई तक पहुँचाने” में कारगर क्यों सिद्ध नहीं हो सकती ?
चरणपीठ स्थापन योजना का चिन्तन पिछड़े वर्गो को ध्यान में रखते हुए किया गया है। क्योंकि उसमें सस्तेपन, उपक्रम की सरलता साथ ही प्रगतिशीलता सर्म्मधन के सारे तत्व मौजूद हैं। उनके संचालन में किसी वैतनिक कार्यकर्त्ता की नियुक्ति नहीं कनी पड़ती। संस्थापक ही मिल-जुलकर उसके लिए अनुकूल वातावरण बनाने उपयोगी कार्यक्रमों के साथ् उस श्रृंखला को जोड़ते विकसित करते रह सकते हैं।
उपरोक्त योजना बनाते समय आदिवासी क्षेत्र ही ध्यान में था। पर इस धार्मिक स्थापना की ओर सर्वसाधारा का ध्यान भी आकर्षित हुआ है और उसके लिए जन-जन में उत्साह जगा है। इसमें स्वरूप लागत से उपयोगी स्थापना और उसके साथ जुडी हुई योजना एवं सम्भावना को देखते हुए अन्यत्र भी यह अनुभव किया गया है कि यह स्थापना अपने देश के हर गाँव के लिए उपयोगी हो सकती है और इस ध्वजाोपण के माध्यम से प्रज्ञा अभियान को सरलतापूर्वक जन प्रवाह के माध्यम से प्रज्ञा अभियान को सरलतापूर्वक जन प्रवाह को मोड़ने का निमित्त कारण बताया जा सकता है।
भारत आर्थिक और शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ा देश है। महंगी योजना बडत्रे नगरों में घनिष्ठ वर्ग की सहायता से ही पूरी हो सकती है। पिछड़े देहात में सस्ती धार्मिकता ही लोक मान्यता प्राप्त कर सकती हैं।
प्राचीनकाल में देवालय जन-जागृति के केन्द्र बने हुए थे और उनके साथ जुड़ी हुई जन शक्ति एक साधन शक्ति का व्यक्ति एवं समाज स्तर ऊँचा बनाने एवं बढ़ाने में लगता था। उसी यथार्थता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना द्वारा देव परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया जा रहा है। इन निर्माणों में अधिकतम सस्ता, सरल एवं लोकोपयोगी बनाने का जो प्रयत्न चल रहा है उसमें आदिवासी क्षेत्रों तक सीमित न रखकर अन्य लोगों के लिए भी श्रद्धा जागरण के साथ-साथ युग चेतना उभारने का निमित्त साधन सरलतापूर्वक बनाया जा सकता है।
झण्डा स्थापन की तरह, चबूतरी पर शिवलिंग की स्थापना भी प्रतीक का काम दे सकती है और उसके साथ तारतम्य बिठाकर लोक मानस को अभीष्ट प्रयोजन के लिए वातावरण बनाने में सहायता मिल सकती है। फिर भी अच्छा यह है कि इन स्थापनाओं को थोड़ा और अधिक सामर्थ्य, साधन सम्पन्न एवं सुविधाजनक बनाया जाय। इसके लिए चरणपीठों की एक बड़ी श्रेणी बनाई जा सकती है। जिसमें स्थायित्व, आकर्षण एवं मिलन सम्मेलन के लिए सुविधाजनक आच्छादन भी हों। छायादार पेड़ का काम कर सकने के लिए इन स्थापनाओं के साथ बहुद्देश्यी झोंपड़ा तो चाहिए ही। पेड़ से हर ऋतु में एवं हर समय काम नहीं चल सकता, पर यह खपरैल के आच्छादन वाला हाल सस्ता होते हुए भी उन सभी प्रयोजनों की पूर्ति कर सकता है जिन्हं प्रज्ञापीठों के माध्यम से पूरा करने की बात सोची गई हैं।
प्रज्ञापीठों और चरणपीठों के अन्तर को समझा जाना चाहिए। प्रज्ञा पीठें दो स्तर की हैं एक सात-आठ हजार लागत वाली छोटी, दूसरी पन्द्रह बीस हजार की बड़ी। दोनों में कार्यकर्त्ता निवास है और दोनों में प्रतिमाओं वाले मन्दिर। चरणपीटों में न कार्यकर्त्ता निवास है न मन्दिर। दोनों में प्रतिमाओं के स्थाप पर पत्थर पर खुदे हुए चरण खुले चबूतरी पर रखे गये है। चरणो की चबूतरी पर दोनों और तुलसी के दो थाँवले हैं। दोनों कच्चा या पक्का होना स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर है। इतनी बात छोटी और बड़ी चरणपीटों पर निर्भर ह। इतनी बात छोटी और बड़ी चरणपीटों में समान है। महत्वूपर्ण अन्तर यह है कि छोटे निर्माणों में मात्र पेड़ की छाया है जबकि बड़ी चरणपीठ में एक 14ग्26 फुट आकार के झोंपड़े की स्थायी व्यवस्था है। इसकी अगल-बगल की दो चौड़ाई वाली दीवार ठोक होगी और लम्बाई में पाये बने होंगे जिनसे दोनों ओर हवा रोशनी का खुला आवागमन बना रहे। इन्हें बन्द करना हो तो बाँस या छड़ों से बने खिड़के जैसे दरवाजे लग सकते हैं। बगल की ठोक दीवारों में दोनों ओर तीन तीन अलमारियाँ रहेंगी, जिनमें विद्यालय के कथा सम्मेलन के आवश्यक उपकरण रखे रहें और यदि कोई व्यक्ति उसमें निवास करना चाहे तो दिन में एक अलमारी में कपड़े, दूसरी में भोजन बनाने के उपकरण बन्द करकें निर्वाह भी कर सकें। रात्रि में वही ह्ल निवास का काम दे सकता है और दिन में प्रौढ़, पाठशाला, चल पुस्तकालय कथा-प्रवचन व सहगान कीर्तन, ह्वन आदि के काम भी आ सकता है खुले चबूतरे पर चरण और प्रज्ञा वाले मन्दिर भी रहें और समय-समय पर उनका उपभोग पढ़ने-पढ़ाने जैसे कामों के लिए भी होता रहे। इस प्रकार जो कार्य छोटी-बड़ी प्रज्ञापीठों द्वारा सोचा गया है वह बड़ी चरणपीठ द्वारा भी सम्पन्न हो सकता है। दीवारें पक्की ईंट की और पक्की खपरैल लगाने पर यह चरण पीठ अनुमानतः ढाई हजार में बन सकती है। चबूतरा और फर्श पक्का बन जाने से उसका उपेयाग वर्षा के दिनों में भी ठीक तरह हो सकता है और सफाई शोभा एवं सुविधा भी ठीक रह सकती है। स्थानीय इमारती साधन एवं मजूरी में न्यूनाधिकता होने, श्रमदान का सुयोग बन पड़ने से कम लागत में अधिक अच्छे साधन भी न सकते हैं। जिन्हं इस सम्बन्ध में दिलचस्पी हो वे साइज, डिजाँइन लागत आदि के सम्बन्ध में अपनी परिस्थितियों से तालमेल खाने वाला परामर्श शान्ति-कुँज से पत्र द्वारा अथवा स्वयं पहुँच कर प्राप्त कर सकते हैं। स्थानीय विज्ञ व्यक्ति भी इस प्रयोजन में कारगर परामर्श दे सकते हैं।
मुख्य प्रश्न है प्रज्ञा अभियान के लिए स्थान का निर्माण एवं प्रतीक के निर्धारण को प्राथमिक आवश्यकता का समाधान। यह उपरोक्त आधार पर विनिर्मित किया जा सकता है। भवन वाले चरणपीठ प्रायः ढाई हजार की लगभग के आँके गये हैं और पेड़ की छाया वाले ढाई सौ में भी बन सकते हैं। जहाँ जैसी सुविधा हो इन संस्थाओं को इन्हीं दिनों बना लिया जाय। कस्बों और बड़े गाँवों में किराये का माँगे का मकान लेकर प्रज्ञा मन्दिर बनाने से जो प्रयोजन पूरा हो सकता है वह छोटे देहातों में इन ढाई हजार वाले निर्माणों से भली प्रकार पूरा हो सकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति कहाँ किस प्रकार होती है यह निर्माणरत प्रतिभाओं के पुरुषाथ्र एवं स्थानीय साधन सहयोगपर निर्भर है। इतने पर भी मूल उद्देश्य उन सभी निर्माणों का एक है-जनमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सर्म्बधन। वह आदिवासी क्षेत्र की तरह अन्य क्षेत्रों में भी आवश्यक है। इसलिए चरणपीठ स्थापना के लिए अपने देश के पिछड़ेपन को देखते हुए उचित एवं उपयुक्त ही है। व्यापकता के लिए सस्तेपन की सुविधा का होना आवश्यक हैं।
ज्ञान मोम की तरह है। कला की गर्मी उसे गलाती है और आकर्षक प्रतिमाओं की आकृति में उसे ढालती है। इसी नयनाभिराम संरचना को सौर्न्दय की संज्ञा दी जाती है।
कला क्या है ? इसका उत्तर रस्किन के शब्दों में इस प्रकार दिया जा सकता है कि मनुष्य की बहूमुखी भावनाओं का प्रबल प्रवाह जब रोके नहीं रुकता तो वह कला के रूप में फूट पड़ता है।