Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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विभूति−रहित सम्पदा निरर्थक है
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हम सम्पदाएँ कमाने में तल्लीन हों या विभूतियाँ उपार्जित करने के लिए तत्पर हों। इस ऊहापोह में गहराई तक उतरने के पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि आत्मिक विभूतियों की समृद्धि—भौतिक सम्पदाओं की तुलना में कहीं अधिक सुखद एवं श्रेयस्कर है।
धन, पद, बल, परिवार, वैभव, वर्चस्व, क्रियाकौशल आदि की सम्पदा गिना जाता है। इनके सहारे इन्द्रिय तृप्ति और तृष्णा एवं अहंता का पोषण होता है। विभूतियाँ उन आत्मिक गुणों को कहते हैं जो व्यक्तित्व को सुविकसित बनाने में सहायक होते हैं। सच्चरित्रता, सज्जनता, सहृदयता, कर्त्तव्य परायणता, श्रमशीलता, उदारता जैसे सद्गुणों को इसी श्रेणी में रखा जाता है, धनवान का बड़प्पन और गुणवान की महानता दोनों की तुलना में सामान्य बुद्धि भले ही सम्पत्ति को प्रधानता दे पर विवेकवान यही निर्णय करेंगे कि सद्गुणी की पूँजी—विभूति प्रत्येक दृष्टि से अधिक ऊँची और अधिक श्रेयस्कर है।
भौतिक उपलब्धियाँ तभी तक आकर्षक प्रतीत होती है, जब तक वे मिल नहीं जाती। मिलने पर तो उनके साथ जुड़े हुए झंझट और उन्माद इतने विषम होते हैं कि अन्ततः उनके कारण मनुष्य अधिक अशान्त उद्विग्न रहने लगता है। मित्र भी घात लगाते हैं और ईर्ष्यालुओं एवं अपहरणकारी प्रिय पात्रों का वेष बनाकर जुड़ते, चिपटते आते हैं। जोंक जिस तरह रक्त पीती है वैसे ही सम्पत्ति—लोभी मित्र भी भीतर ही भीतर शत्रुता का व्यवहार करते रहते हैं। वस्तु स्थिति को समझने वाला सम्पत्तिवान देखता है कि सम्पत्ति का निजी उपयोग उतना ही हो सका जितना कि निर्धन कर पाते है। जो अतिरिक्त जमा किया गया था उसमें मित्र वेशधारी शत्रुओं की−अगणित उलझनों की—तथा चरित्रगत दोष−दुर्गुणों की एक बड़ी फौज सामने लाकर खड़ी कर दी। सम्पत्ति अभिवर्धन के प्रयास अन्ततः निरर्थक ही सिद्ध होते हैं क्योंकि विभूतियों के अभाव में उनका सदुपयोग भी नहीं बन पड़ता। कृपणता उपयोग भी तो नहीं करने देती। संचय से उत्तराधिकारियों की दुरभिसंधियाँ बढ़ती चली जाती हैं। उच्छृंखल उपभोग अथवा उद्धत प्रदर्शन किया जाय तो भी उसकी प्रतिक्रिया कुछ ही समय में घातक विद्रोह साथ लेकर सामने आ खड़ी होती हैं।
जितना श्रम और मनोयोग सम्पदा के उपार्जन में लगाया जाय उतना ही ध्यान एवं प्रयास सद्गुणों के अभिवर्धन पर केन्द्रित किया जाय तो उस आत्म परिष्कार का लाभ असाधारण रूप से उपलब्ध होगा।
सद्गुण की सुगंध से अन्तःकरण निरन्तर सुरभित रहता है। सत्कर्मों में निरत रहने से आत्म सन्तोष का ऐसा आनन्द छाया रहता है जिसकी तुलना सम्पत्ति के उन्माद से किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। परिष्कृत स्वभाव के कारण अपने व्यवहार में जो शालीनता उत्पन्न होती है वह संपर्क में आने वालों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार से निखरा हुआ व्यक्तित्व—इतना अधिक आकर्षक होता है कि उस पर सहज ही लोक श्रद्धा निछावर होती रहती है। सुविकसित पुष्प पर जिस प्रकार तितली और मधुमक्खियाँ मंडराती हैं उसी प्रकार दसों दिशाओं में सद्भावना की वर्षा परिष्कृत व्यक्तित्वों के ऊपर अनायास ही अहर्निश होती रहती है।
विभूतिवान को सम्पदाओं से वंचित नहीं रहना पड़ता। कदाचित वे न भी मिले तो भी उसकी आन्तरिक विशेषताएँ ही प्रसन्न चित्त रखने के लिए पर्याप्त होती हैं। इसके विपरीत जिन्हें विभूति रहित सम्पत्ति प्राप्त है वे भीतरी उद्वेगों और बाहरी आक्रमणों से निरन्तर संतृप्ति ही बने रहते हैं। सम्पदा का लाभ तभी है जब वह विभूतियों के साथ जुड़ी हुई हों।