Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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अभीष्ट की उपलब्धि भीतर से ही होगी।
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केन्द्र भीतर है। बाहर तो उसका कलेवर मात्र लिपटा हुआ है। परमाणुओं और जीवाणुओं के नाभिक मध्य में होते हैं। शक्ति से स्रोत उन्हीं में है। बाहर तो उनका सुरक्षा दुर्ग मात्र खड़ा रहता है। सूर्य की ऊर्जा उत्पत्ति उसके अन्तराल से होती हैं, बाहर तो विकिरण के वितरण भर की क्रिया चलती रहती है। अन्तरात्मा काय-कलेवर के अन्तराल में है। बाहर तो उसके निवास, निर्वाह का भवन मात्र खड़ा है।
जीवन की गरिमा बाहर से साधनों से नहीं और न शरीर के अवयवों पर उनकी निर्भरता है। उत्कर्ष भीतर से उदय होता है। बाहर तो उसकी हलचलें भर दृष्टिगोचर होती हैं अवनति के गर्त में यदि अन्तः चेतना गिरी हुई हो तो हर क्षेत्र में पतन और पराभव ही उपलब्ध होगा।
हम बाहर देखते और बाहर ही खोजते हैं, जब कि जिसे देखना और पाना है, उसका अस्तित्व भीतर ही विद्यमान् रहता है। कस्तूरी के हिरन की तरह बाहर सुगन्ध खोजने के प्रयत्न निष्फल ही नहीं जाते, खीज़ और निराशा भी गले बाँधते हैं। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए नाभि संस्थान का आश्रय लेने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मृग-तृष्णा में भटकने की अपेक्षा यदि अपने दृष्टि दोष को सुधार लिया जाय तो प्यास बुझाने के लिए उपर्युक्त स्थान ढूँढ़ने और सार्थक प्रयास करने का अवसर मिल सकता है समृद्धि और प्रगति के मूल तत्त्व भीतर हैं सुख और शान्ति के केन्द्र भी वहीं हैं तुष्टि ओर तृप्ति खोजनी हो तो अन्तः करण के रत्न भण्डार का ही खोदना, कुरेदना पड़ेगा।