Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारे उच्च चेतन ही अद्भुत क्षमताएँ
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अचेतन मन की उच्चस्तरीय सत्ता में सूक्ष्म जगत के साथ सम्बन्ध जोड़ने की क्षमता है। दृश्य जगत का व्यवहार मन और बुद्धि के सहारे चलता रहता है। शरीर की निर्वाह व्यवस्था को यथा क्रम सुसंचालित बनाये रहने का काम मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित अचेतन क्षमता चलाती रहती है, विशिष्ट शक्तियों से भरा पूरा है। सामान्यतया वह कुम्भकरण जैसी गहन निद्रा में पड़ा रहता है। यदि उसे जागृत होने का अवसर मिल जाये तो व्यक्तित्व को देवोपम बनाने से लेकर चमत्कारी सिद्ध पुरुषों जैसे अलौकिक स्तर के ज्ञान और कर्म का परिचय दे सकता है। विज्ञानमय कोश की जागरण साधना इसी दिव्य चेतना का समुन्नत बनाने की प्रक्रिया का नाम है।
मनोविश्लेशण्वादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हमार सचेतन (कान्शस स्टेट) अवस्था से गहरी एक अन्य चेतना है, जो (अनकान्शस स्टेट) अचेतन अवस्था कहलाती है। सचेतन अवस्था किसी समुद्र में तैरते विशाल हिमखण्ड (ग्लेशियर या आइसवर्ग) का ऊपर निकला हुआ दशमांश भाग है और अचेतन ‘अवस्था समुद्र की ऊपरी सतह के नीचे पानी में छिपे फैले ग्लेशियर का शेष विशाल भाग है, जो सचेतन से नौ-दस गुना बड़ा है। ग्लेशियर का कुछ हिस्सा पानी की ऊपरी सतह को कुछ ऊपर से, कुछ नीचे से छू रहा होता है, यही सचेतन-अचेतन के बीच की अवचेतन (सबकाँशस) अवस्था है।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि कथित गृह शक्तियाँ वस्तुतः अत्यन्त शक्तिशाली अचेतन मस्तिष्क की ही करामातें है। मृतात्माओं देवात्माओं से सम्पर्क के ठोस प्रमाण भी उपचेतन एवं अवचेतन की अज्ञात सामर्थ्य का ही परिणाम है। सम्मोहन अतीन्द्रियानुभुति परक स्वप्न, समस्याओं का अचेतन मस्तिष्क द्वारा आकस्मिक समाधान (किसी निश्चित समस्या पर मनन करते हुए सो जाने पर अचेतन मस्तिष्क द्वारा सोते समय ही उसका कोई ऐसा समाधान ढूँढ़ निकालना, जो जागने पर बुद्धि-पटल पर स्पष्टतः उभरकर विस्मित कर दें) आदि सभी के प्रति वैज्ञानिकों की मान्यता यही है कि वे अवचेतन मस्तिष्क की गतिविधियाँ है।
फायड ने ‘सेल्फ’ को तीन भागों में बाँटा है-इगो अर्थात् चेतन आत्म। ‘इड’ यानी सहज प्रेरणाओं का अचेतन भण्डार। ‘सुपर इगो यानी नैतिक प्रेरणाओं और मान्यताओं का क्षेत्र। प्रेम की सहज प्रेरणा (इन्स्टिनक्ट) या मूल प्रवृत्ति को उसने ‘लिबिडो’ का विशेषण दिया। उनके अधिकाँश लेखों में ‘लिबिडो’ तथा सामाजिक मान्यताओं के अन्तर्द्वन्द्व का विवेचन है। उसके अनुसार ‘लिबिडो’ का असन्तुष्ट अंश मार्गान्तरित होकर सृजन के विविध रूपों में प्रवाहित होता है। और उदात्तीकरण के द्वारा कला तथा संस्कृति के विविध क्षेत्रों में सक्रिय होता है। जुँग ने ‘लिबिडो’ की व्यापक व्याख्या की और सभी मूल प्रवृत्तियों से उसे सम्बद्ध बताया न कि मात्र प्रेम से। जुँग ने 'सामूहिक अवचेतन’ की भी धारणा दी। ‘काम्प्लेक्स’ की भी उसने विशेष व्याख्या की और प्रतिपादित किया कि ‘कम्प्लेक्स’ का अर्थ होता है-अचेतन मस्तिष्क में किसी भी विचार-समूह का एक विशिष्ट भावावेग के साथ विद्यमान होना।
चेतन की खोज जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, अलौकिक कही-कही जाने वाली अनेक बातों के सूत्र स्पष्ट होते जाते हैं। साथ ही विज्ञान के अब तक के अनेक सिद्धान्तों एवं नियमों का आधार भी ध्वस्त हो रहा है। नये नियमों का उदय, समर्थन हो रहा है। मनोविज्ञान की तो अधिकाँश स्थापित मान्यताओं में भारी उलट-पुलट हो रही है।
यही कारण है कि प्रारम्भ में अनेक वैज्ञानिकों मनोवैज्ञानिकों ने उन तथ्यों पर विश्वास करने से ही इंकार कर दिया था, जो आज परामनोविज्ञान का आधार बने हुए है। उन्हें प्रारम्भ में विचित्र और वाहियात बातें मात्र माना गया था।
बहुत दिन नहीं हुए, जब मानसिक क्रिया-कलापों को शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार चलने वाला माना जाता था। भूख लगती है, इसीलिए पेट भरने की चिता मस्तिष्क को होती है। और पैर उधर मुड़ जाते हैं, जहाँ उदर-भरण हो सके। हाथ खाद्य-पदार्थों को मुँह तक पहुँचाते, मुँह उन्हें चबाता, पेट पचाता है, इसी तरह प्रत्येक मानसिक गतिविधि देह की जरूरतें पूरा करने के लिए ही होती है।
अचेतन मन की प्रारम्भ में जब जानकारी मिली, तब भी ध्यान इसी ओर दिया गया कि शरीर को जीवित गतिशील रखने के लिए वह निरन्तर हमारे अनजाने ही चलने वाले विविध क्रिया-कलापों का संचालन करता है। जैसे-रक्त संचार श्वास-प्रश्वास हृदय की धड़कन आकुंचन-प्रसारण पाचन-विसर्जन-पलकों का झपकना आदि। इस प्रकार बहुत समय तक मस्तिष्क को शारीरिक प्रयोजनों का पूर्ति कारक अवयव ही माना गया। विचार शक्ति शारीरिक आवश्यकताओं की ही अनुवर्ती, अनुचरी मानी गयी। शरीर से सम्बद्ध समस्याओं के समाधान कारक उपाय ढूँढ़ने और उनके व्यवहार की व्यवस्था बनाने में ही विचार शक्ति की पूर्ण सार्थकता मानी गयी।
पर यह शिशु मान्यता अधिक दिन नहीं टिकी। शोध क्षेत्र में प्रौढ़ता बढ़ी और धीरे-धीरे वैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर गया कि ऐसे भावों की भी मनुष्य मस्तिष्क में कमी नहीं जो शरीर का लाभ पहुँचाना तो दूर, उल्टे हानि ही पहुँचाते हैं। औरों के दुःख से स्वयं दुःखी हो जाने, पर-सेवा लोक-मण्डल के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने, देश समाज, विश्वमानव के लिए अपनी सुख सुविधाएँ ठुकरा देने आदि आचरणों से शरीर का तो कोई भी सुख मिलता नहीं, कष्ट ही भोगता पड़ता है। फिर, यह भी देखा गया कि भावनाएँ व्यक्ति को क्रिया शील ही बनाती हों यो नहीं, वे तो शरीर और मन की सामान्य कार्य-व्यवस्था को भी कभी-कभी अस्त-व्यस्त करके रख देती है। किसी प्रियजन की मृत्यु से हृदयगति अवरुद्ध हो सकती है, मस्तिष्क विक्षिप्त हो सकता है। नृशंस क्रूर कर्मों को देखकर भय से कई लोग अचेत हो सकते हैं, कुछ क्रोध से अत्यन्त उत्तेजित हो सकते हैं।
इस दिशा में ध्यान देने पर मस्तिष्क के अचेतन स्तरों की विशालता-विविधता की ओर ध्यान गया। भावनाओं का महत्व जाना गया। अमरीकी वैज्ञानिक डॉ0 पाल मैकलीन, डॉ0 जोसे डैलगेडी आदि ने गहन विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाला कि भावनाएँ शारीरिक व मासिक स्वास्थ्य को अत्यधिक प्रभावित करती है। व्यक्ति की अनेक शारीरिक-मानसिक हलचलें इन्हीं भावनाओं के संकेत पर होती रहती है।
वैज्ञानिकों ने देखा कि आहार-बिहार का अपना महत्व है, पर उतनी भर व्यवस्था सध जाने पर स्वास्थ्य ठीक ही बना रहे, यह निश्चित नहीं। अध्ययन-अध्यापन द्वारा चेतन मन की जानकारी बढ़ती है। पर शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध हो जाने पर व्यक्ति मनोविकारों से रहित, स्वस्थ मस्तिष्क सम्पन्न हो जाए, यह अनिवार्य नहीं।
यही से मन के अचेतन-अधोचेतन-स्तरों की ओर ध्यान गयाँ ड्यूक विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ0 राइस ने अपनी पुस्तक “द रीच ऑफ माइन्ड” में “फाइव ग्रेट स्टेप्स’ शीर्षक के अंतर्गत अपने अनेक वर्षों के अनुसंधानों को संश्लिष्ट रूप से प्रस्तुत किया।
इस प्रकार अचेतन मन की अनन्त सामर्थ्य के द्वार खुले। मायर्स ने इसे “सब्लीमाइरनल माइन्ड” नाम दिया। मस्तिष्क के अचेतन स्तरों की खोज इन दिनों गम्भीरतापूर्वक की जा रही है। मनोवैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के तीन कार्यक्षेत्र माने है। (1) चेतन (2) उपचेतन (3) अचेतन
उपचेतन तथा अचेतन मस्तिष्क के क्रिया-कलापों के बारे में जैव भौतिक-विज्ञानी दृष्टि से अभी तक ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। एलेक्ट्रोएनसेफालोग्राम से भी इस विशय में स्पष्ट कुछ नहीं जाना जा सका है। अल्फा, बीटा, डेल्टा, थीटा, आदि मस्तिष्कीय लयों (श्रिडडड) से मस्तिष्कीय की विश्रान्ति, सतर्कता, उद्वेग, सुषुप्ति, स्वप्नावस्था आदि का भान मात्र होता है। मस्तिष्क के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र की भी ऐसी व्यापक जानकारी नहीं मिल सकी है कि कुछ निश्चित निष्कर्ष उस आधार पर निकाले जा सकें। मस्तिष्क के मुख्य भाग (फोरब्रेन) बाबत मात्र 3 प्रतिशत जानकारी मिल सकी है। 67 प्रतिशत अभी भी अविज्ञात ही है। सूक्ष्म विघुदग्रो द्वारा स्मरण-शक्ति को जाग्रत एवं सम्वेदना-विशेष को उद्दीप्त करने के प्रयोग किये जा रहे है। फ्रेंच वैज्ञानिक प्रो0 डेलगाडों ने लूलू नामक डरपोक जानवर की कनपटी में सूक्ष्म विघुदाग्र (इलैक्ट्राड) के द्वारा एक विशेष भाग को उत्तेजित कर दिया, जिससे वह निर्भीक आचरण करने लगा। रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर एनोरबीन ने अपने प्रयोगों द्वारा ‘रेटिक्युलर फार्मेशन’ उन ग्रन्थियों का पता लगाया, जिनमें से कुछ मधुर रसों का स्राव करती है और प्रसन्नता-प्रफुल्लता हँसी, मृदुता, शिष्टता, सौम्यता आदि प्रतिक्रियाओं को जन्म देती है, तो दूसरी ऐसे रस स्रवित करती है, जो चिन्ता, क्षोभ, निराशा, उद्वेग को जन्म दे। डॉ0 एनोरवीन ने यह भी पता लगाया कि इन ग्रन्थियों का स्राव भी विचारों एवं भावनाओं से ही नियन्त्रित होता है।
कनाडा के शोध वैज्ञानिक डॉ0 डब्ल्यू0 जे0 पेनफील्ड ने अपने प्रयोगों द्वारा स्मरण शक्ति की पट्टियों के बारे में आश्चर्यजनक जानकारी एकत्र की। एक व्यक्ति की स्मरण-शक्ति की पट्टी के किसी विशेष हिस्से में विद्युत दौड़ने पर उसकी पूर्वजन्म की स्मृतियाँ जागृत हो गई इन्हीं प्रयोगों से यह भी जाना गया है कि हम जो भी काम करते हैं, वह कितना भी छिपकर क्यों न करें, अचेतन मस्तिष्क में वह सब अंकित होता रहता है।
मस्तिष्क के इन अचेतन स्तरों का ज्ञान हो जाने पर आधुनिक सभ्यता का आधार ही बदल जाएगा। इस सभ्यता का वर्तमान आधार चेतन मन की क्रियाएँ है। यह मन सदा बाह्य वस्तुओं और विषय-सुख में संलग्न रहता है। जब अपने ही भीतर के विशाल खजाने की जानकारी मिल जाएगी, तो उसकी प्राप्ति के लिए सचेष्ट हो जाना स्वाभाविक है।
प्राचीन भारतीय मनीषी मानव-मन के इन स्तरों के जानकारी रखते थे। मन की इन शक्तियों को अभिव्यक्त करने और इन पर अधिकार रखने की कला ही योग है। अचेतन की अनन्त सामर्थ्य का योग-शक्ति द्वारा प्रयोग कर प्राचीन भारतीय मनीषी अतीत-अनागत के ज्ञान, सर्वभूत-सतज्ञान परिचित ज्ञान, पूर्वजन्मों के ज्ञान, भुवनज्ञान, कायव्यूह ज्ञान, तराश्रव्यूह ज्ञान, तारागति ज्ञान, दूरश्रवण, दूरबोध, सर्वज्ञत्व आदि अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न होते थे। योगवासिष्ठ में इसीलिए मन को ‘आकाश’ के समान सर्वत्र स्थित- कहा गया है।
मस्तिष्कीय शक्ति की इन्हीं विशेषताओं का इच्छित विकास व्यक्तित्व को अनन्त विभूति सम्पन्न बना सकता है। श्रवण-शक्ति की दिव्य-क्षमताएँ विकसित कर अनन्त ब्रह्माण्ड में होने वाली हलचलों को सुना-समझा जा सकता है और विश्व में घटित होने वाले घटनाक्रम को जाना जा सकता है। प्राणियों की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अदृश्य ध्वनियाँ को समझने की क्षमता भी विकसित की जा सकती है और मानव ही नहीं, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं की मनःस्थिति का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।
दृश्य-शक्ति का विकास कर अदृश्य जगत की सूक्ष्म हलचलों को प्रत्यक्षतः देखा-समझा जा सकता है और गुप्त रहस्यों का ज्ञान हो सकता है दूर की घटनाओं का ज्ञान, दूरवर्ती आकाश में हो रही सूक्ष्म हलचलों का ज्ञान एवं स्वप्नावस्था में दिव्य-दृश्य तथा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास इसी दृश्य-शक्ति या तृतीय नेत्र के विकास की साधना के सत्परिणाम है। घ्राण-शक्ति का विकास भी ऐसे ही चमत्कारी सुफल सामने ला सकता है। कुत्तों जैसे जानवरों की विकसित घ्राण शक्ति का सदुपयोग कर आज अपराधों के अचेष्टा में उनसे सहायता ली ही जा रही है। स्वाद-शक्ति (रसना) और वाक् शक्ति (वाणी) का विकास तृप्ति एवं वाग्वल का वचन-सिद्धि का आधार बनता है। त्वचा की संवेदनशीलता का विकास कर उससे परिवेश के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दनों को ग्रहण एवं विश्लेषित किया जा सकता है।
प्रखरता के आधार पर विचार-शक्ति तीन भागो में विभक्त होती है। (1) मन्द विचार इनमें जड़ता की मात्रा अधिक होती है। इसलिये यह न तो दूर तक जा सकते हैं न किसी को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे लोग अदूरदर्शी अविवेकी और समस्या ग्रस्त होते हैं। जन-साधारण (2) मन्द विचारों की कोटि में आते हैं, यह लोग अपनी सफलता ओर साँसारिक-जीवन किसी तरह गतिशील तो कर लेते हैं, सम्पत्ति और विद्या-बुद्धि भी प्रचुर संचित कर लेते हैं किन्तु असाधारण कार्य करने की क्षमता उनमें भी नहीं होती। (3) इन्हीं विचारों को गहनता से सोचने और सम्पूर्ण ध्यान शक्ति समर्पित कर देने से वे अत्यधिक वेगवान बलवान हो उठते हैं। उनकी अधिक प्राण-शक्ति काम करने लगती है। हृदय और मस्तिष्क की शक्ति भी संयुक्त हो जाती है। यह वेग तुरन्त आश्चर्यजनक परिणाम देने वाले तथा अनेकों लोगों को इच्छित दिशा में चलाने की सामर्थ्य ओत-प्रोत हो जाते हैं। ऐसे मस्तिष्क न केवल रचनात्मक अपितु ध्वंसात्मक कार्य भी कर सकते हैं। दूर-संचार दूर-दर्शन दूर-श्रवण और पूर्वाभास आदि अतीन्द्रिय कार्य इसी तरह की ध्यानस्था विचार-शक्ति के ही परिणाम होते हैं।