Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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चिन्ता की चिता अपने हाथों ही न जलाये
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जन्म के समय हमारी बन्द मुट्ठियों में भौतिक दृष्टि से क्या होता है? कुछ नहीं। फिर वह कौन सी ज्योति है, जो एक शिशु अपने नन्हे से हृदय में धारण किए इस संसार में विनोद उल्लास की अभिवृद्धि करता रहता है। एक ही ज्योति, ऊष्मा की एक ही किरण उसके पास होती है, आशा, उल्लास और आत्म विश्वास की। शिशु की सक्रियता देखते ही बनती है।
पर बड़े होने पर वही व्यक्ति, सही स्वस्थ दृष्टिकोण एवं समुचित प्रशिक्षण के अभाव में, जहाँ एक ओर महत्त्वाकाँक्षाओं के नाम पर ऊँची कल्पनात्मक उड़ानों का अम्बार लगा लेता है, वहीं दूसरी ओर काल्पनिक चिन्ताओं के भयंकर नागों और प्रचण्ड महासर्पिणियों को पाल पोसकर उनकी वंश−वृद्धि करता जाता है।
अधिकांश व्यक्ति अधिकतर समय किसी न किसी चिन्ता के तनाव से व्यग्र बेचैन रहते और तड़पते रहते हैं। चिन्ता सदा बड़ी या विशेष बातों को ही लेकर नहीं होती। कई बार, तो बहुत ही मामूली, छोटी छोटी बातों को लेकर लोग चिन्ता पालते रहते हैं। मन तो है, जैसा अभ्यास डाल दिया जाए, बेचारा वफादार नौकर की तरह वैसा ही आचरण करने लगता है। जब अपनी चिन्ता नहीं होती, तो पड़ोसियों के व्यवहार विश्लेषण और छिद्रान्वेषण द्वारा चिन्ता के नए नए आधार ढूँढ़ निकाले जाते हैं। या फिर समाज के बिगड़ जाने, लोगों में भ्रष्टाचार फैल जाने, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति बढ़ने, दो लड़के लड़कियों द्वारा अन्तर्जातीय प्रेम विवाह कर लेने, मुहल्ले की किसी बारात की व्यवस्था ठीक न होने, किसी नवविवाहित दम्पत्ति का ‘पेयर’ ठीक न होने आदि की गम्भीर चिन्ताएँ, प्रसन्नता और एकाग्रता को चाट जाने के लिए पर्याप्त ही सिद्ध होती हैं। मोटर में बैठे हैं, तो चिन्ता लगी है कि कहीं मोटर के सामने से आ रहे किसी ट्रक या बस की भिड़ंत न हो जाए, अथवा चालाक निद्राग्रस्त न हो जाए, वायुयान में जा रहे हैं, तो चिन्ता हो गई है कि कहीं यह विमान सहसा नीचे न गिर जाए।
धर्म पत्नी किसी से सहज सौम्य वार्तालाप कर रही है, तो पति महोदय को चिन्ता हो गई है कि कहीं यह व्यक्ति इस वार्तालाप को अपने परिचितों के बीच गलत रूप में न प्रचारित करे। या कि पत्नी कहीं उससे मेरी बुराई न करती हो अकेले में। कहीं धर्मपत्नी स्वभाव से मितभाषी हुई, तो चिन्ता है कि लोग इसे मूर्ख या घमण्डी न समझ बैठे। इसी तरह पति महोदय कार्यालय से देर से आए तो पत्नी चिंतित है कि कहीं मेरे प्रति इनका प्रेम घट तो नहीं रहा। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें उनके परिचित यदि व्यस्तता में या कि अन्यत्र ध्यान दिए होने के कारण किसी दिन नमस्कार करना भूल जाए, तो उन्हें चिन्ता होने लगती है कि कहीं मेरे प्रति इसकी भावना तो परिवर्तित नहीं होगी
है तो चिन्ता एक काल्पनिक उड़ान मात्र। किन्तु व्यक्ति उसे यथार्थ की तरह मानकर तनाव और भय से भर उठते हैं। यह बैठे ठाले अपने शरीर संस्थान को एक अनावश्यक श्रम में जुटा देने तथा कष्ट में फँसा देने वाली क्रिया है। इसके परिणामस्वरूप सर्वप्रथम होता है अपच। क्योंकि उदर संस्थान स्वाभाविक गति से कार्य नहीं कर पाता। फिर अनिद्रा, सिर दर्द, सर्दी जुकाम आदि का जो क्रम प्रारम्भ होता है वह हृदय रोग तक पहुँचकर दम लेता है। मनःशक्ति के अपव्यय से एकाग्रता और मनोबल का ह्रास होता है, स्मरणशक्ति शिथिल होती जाती है, और जीवन में विषाद ही छाया रहता है।
चिन्ता करने का अभ्यस्त मन सोते में देखे गए चित्र विचित्र स्वप्न दृश्यों का मुफ्त के सिनेमा के रूप में आनन्द लेना तो दूर, उनकी अजीबोगरीब व्याख्याएँ ढूँढ़ता पूछता रहता और अन्धविश्वास संत्रास तथा मतिमूढ़ता कि एक निराली ही दुनिया रचता रहता है वह हताश और भयभीत रहता है तथा अपनी वास्तविक क्षमता का एक बड़ा अंश अनायास ही गँवा बैठता है । विपत्तियों के सामना करने में, शत्रुओं से संघर्ष में जो शक्ति व्यय की जाने पर सफलता और आनन्द प्रदान करती, वह काल्पनिक भय के दबाव से क्षत-विक्षत होती है। ऋण पाटने के लिए, किए जाने वाले पुरुषार्थ में यदि वही शक्ति नियोजित की गई होती, जो कर्ज के भार से लदे होने की चिन्ता में बहायी जा रही है, तो मस्तक ऊँचा होता और चित प्रफुल्ल। चोर-लुटेरों की, काल्पनिक विपदाओं की चिन्ता व्यक्ति की शक्ति को निगलती रहती है। असफल रह जान की चिन्ता भी कई लोगों को मृत्यु के समान दुःखदायी प्रतीत होती है। वे इस सामान्य तथ्य को भुला बैठते हैं कि असफलता और सफलता तो सभी के जीवन में आती-जाती रहती हैं।
अपने दुराचरण और अपराध पर तो ग्लानि स्वाभाविक है। पर उसकी भी चिन्ता करते रहने से मनःक्षेत्र में कुंठा और विषाद की ही वृद्धि होगी। आवश्यक है वैसे आचरण की अपने भीतर विद्यमान जड़ों को तलाश कर उन्हें उखाड़ फेंकना तथा प्रायश्चित के रूप में समाज में सत्प्रवृत्ति के विस्तार में अपना योगदान देना, कोई सृजनात्मक विधि अपनाना जिससे मन का वह भार हल्का हो सके।
चिन्ता सदैव भय उत्पन्न करती और आत्मविश्वास का हरण करती है। भविष्य में आने वाली कठिनाइयों, उपस्थित होने वाले अवरोधों- उपद्रवों आ पड़ने वाली विपत्तियों- प्रतिकूलताओं और प्राप्त होने वाली विफलताओं को कल्पना-जल्पना आशंका-कुशंका चित्र-विचित्र रूप धारण कर व्यक्ति को भयभीत करती और साहसहीन बनाती रहती है। आत्मविश्वास नहीं रहे, तो अपने को ही प्राप्त सफलताओं तक का स्मरण नहीं जुट पाता, जबकि प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए आत्मविश्वासजन्य साहस की सर्वोपरि आवश्यकता है। चिन्तन तो अनिवार्य है। किसी रास्ते या कार्य-विशेष को चुनने के पहले उसके सभी पहलुओं पर भली-भांति चिन्तन, मनन करना आवश्यक है, पर निर्णय लेने के बाद अभीष्ट प्रयोजन के लिए तत्परतापूर्वक जुट जाना होता है। चिन्ता का तब अवकाश ही नहीं रहना चाहिए। चिन्ता तो निष्क्रियता की उत्पत्ति भी है और उत्पादक भी। चिन्ता से विक्षुब्ध मन, शक्ति का कितना ह्रास करता है, यह यदि लोग जान जाए तो कभी भी उद्विग्नता और तनाव की जननी चिन्ता को प्रश्रय न दें। अधिकाँश लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में चिन्ताग्रस्त होकर हताशा के गहन अन्धकार के विवर्तों, में फँसकर अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं। किन्तु मनस्वी, विवेकी व्यक्ति ऐसी विषम स्थितियों में अधिक साहस और सक्रियता के साथ आगे बढ़ते हैं तथा विजय प्राप्त करते हैं। आशा और उल्लास मनुष्य-जीवन के चिरन्तन सुरभित पुष्प हैं। चिन्ता की काली छाया से इन्हें कुम्हलाने न देने पर ही मानव-जीवन सुगन्धित - प्रमुदित रह सकता है और अन्यों से भी सुरभि-सुषमा वितरित कर सकता है।
चिन्ता इस सुरभि-सुषमा को समाप्त कर डालती है इसलिए चिन्ता को चिता से भी बढ़कर कहा गया है। चिता यों मृत्यु के पश्चात् जलाती है पर चिन्ता-ज्वाला जीवित व्यक्ति को ही जलाना आरम्भ कर देती है। मस्तिष्क चिन्ता से झुलस कर निस्तेज और धंआ से भरा रहता है। उसे चारों ओर धुँआ-धुँआ ही नजर आता है, ज्योति और उल्लास तो कहीं दिखता ही नहीं।
एक जर्मन मनोवैज्ञानिक ने चिन्ताग्रस्त लोगों का सर्वेक्षण किया। ज्ञात हुआ कि मात्र 8 प्रतिशत चिन्ताएँ ऐसी थीं, जिन्हें वजनदार कहा जा सकता था। 10 प्रतिशत ऐसी थीं, जो थोड़े प्रयास से सुलझ गईं। 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सम्बन्धी सामान्य चिन्ताएँ थीं, जो सामान्य उपचार से ही सुलझ गईं। 30 प्रतिशत ऐसी थीं, जो थीं तो वर्तमान से ही सम्बन्धित 40 प्रतिशत चिन्ताएँ काल्पनिक समस्याओं और आशंकाओं से सम्बन्धित थीं।
ओसा जान्स का कथन है- यदि मैं सतत् सृजनात्मक चिन्तन एवं कर्म में संलग्न रहने की विधि न सीख पता तो औरों की तरह मुझे भी चिन्ता में घुल-घुलकर मरना होता । “
व्यस्तताओं-विषमताओं से भरे संसार में चिन्ता के झोंके यदाकदा आते रहते हैं, पर उन्हें कभी भी चित पर अपना प्रभाव अंकित नहीं करने देना चाहिए। मानव -जीवन एक सुरम्य उद्यान है।
इसमें आनन्द-उल्लास की सुन्दर कोमल सम्वेदनाओं के रूप में रंग-बिरंगे पुष्पों की नहीं है। इन हँसते-मुस्कराते फूलों को चिन्ता की ज्वाला से झुलसने से बचाए रहने की कला का अभ्यास सभी को करना ही चाहिए।