Magazine - Year 1979 - May 1979
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Language: HINDI
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तीर्थ संचालन के लिये पाँच परिव्राजक
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शरीर पाँच तत्वों से बना है और चेतना का संचार पाँच प्राणों द्वारा होता है। काया की संरचना जल, पवन, पृथ्वी, अग्नि और आकाश से हुई है और जीवन चेतना का संचार प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँच प्राणों के द्वारा हो रहा है। पंच, गव्य, पंचामृत, पंचाँग, पंच रत्न, जैसे वर्गीकरण में इस पंचधा संरचना का बोध होता हैं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-पाँच कर्मेंद्रियां-पाँच नियम और पाँच उप नियम प्रसिद्ध है। यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या सिखाई थी। यह कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाली पाँच प्राण साधनाएँ है। बृहस्पति ने देव समुदाय के पाँच कोशों का अनावरण कराया था। यह वैदिक पक्ष है। इन साधनाओं की सफलता से जो पाँच विभूतियाँ उपलब्ध होती है, उन्हीं को देव संज्ञा दी गई है। पाँच देवता प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की शक्तियों को देवियाँ कहते है। देव और देवियों में पाँच-पाँच ही प्रधान हैं। इन्हें सावित्री के पाँच मुख कह सकते हैं।
गायत्री तीर्थों को पंच सूत्री कार्यक्रमों को बौद्धमर्यादाओं में प्रधानता प्राप्त पंचशील कह सकते हैं। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में से प्रत्येक की पाँच-पाँच मर्यादाएँ हैं। उनमें प्रत्येक के उत्कर्ष की पाँच-पाँच योजनाएँ है। इन्हीं को पंचशील कहा गय है। गायत्री साधना के अविच्छिन्न अंग बलिवैश्व में की पाँच आहुतियाँ नित्य देने की विधि परम्परा में इन्हीं पंचशीलों को धारण करने और उन्हें निष्ठापूर्वक अपनाये रहने का संकल्प दुहराया जाता है।
गायत्री तीर्थों की निर्धारित कार्य पद्धति को सुसंचालित रखने के लिए पाँच-पाँच व्रतशील परिव्राजकों के जत्थे नियुक्त रहेंगे। रजत जयन्ती वर्ष में प्रव्रज्या अभियान को गतिशील किया गया है। समयदानी, कनिष्ठ और वरिष्ठ वर्ग के आस्थावान परिव्राजकों ने अपने श्रम समय का जो अनुदान, अंशदान किया है, उसका उपयोग करने के लिए उनकी नियुक्तियाँ इन्हीं गायत्री तीर्थों में होती रहेंगी और वे उस धर्म केन्द्र के स्थानीय गतिविधियों को सुसंचालित रखने के अतिरिक्त समीपवर्ती क्षेत्रों में नव जागरण की चेतना उत्पन्न करने के उद्देश्य से परिभ्रमण करते रहेंगे। साधारणतया तीन तीर्थ में रहकर वहाँ के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करेंगे और दो अपने नियत निर्धारित मंडल पैदल एवं साइकिलों से धम्र चेतना उत्पन्न करने के निमित्त नियमित रूप से लाया करेंगे। हर गायत्री तीर्थ में पाँच परिव्राजकों की नियुक्ति होगी। और वे ही तीर्थ की सीमा में तथा उसके साथ जुड़े हुए क्षेत्र में आलोक वितरण करने जाया करेंगे।
प्रव्रज्या अभियान और गायत्री तीर्थ स्थापना को एक-दूसरे का पूरक कहा जाता हैं दोनों के मध्य अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रहेगा। तीर्थ की इमारत को पाँच तत्वों से बना हुआ शरीर और उसमें गतिविधियों का जीवन संचार करने वाले पाँच प्राणों के प्रतीक पाँच परिव्राजकों के रूप में देखा जा सकेगा। रजत जयंती वर्ष के आरम्भ में प्रचार केन्द्र बनाये जाने का संकेत किया गया था और प्रव्रज्या अभियान हाथ में लिया गया था। प्रव्रज्या अब प्रौढ़ हो गई है। उसने महापुरश्चरण अभियान में सफल योगदान दिया है। तीर्थ यात्रा पद यात्रा, प्रव्रज्या उस रूप में तो जारी रहेगी ही, अब उसी अभियान को गायत्री तीर्थों के संचालन का कार्य भार भी सौंपा जायगा।
आमतौर से मन्दिरों में पुजारी ऐसे रखे जाते हैं जिन्हें स्वल्प वेतन में उपलब्ध किया जा सके। थोड़ा वेतन पाने और आवश्यकता एवं इच्छा अधिक रहने के कारण उन्हें एक ही उपाय सूझता है कि चढ़ोत्तरी का पैसा मन्दिर समिति को न देकर अपने पास रखा जाय। आगन्तुकों को जप कराने, जन्म पत्री बनवाने, कथा, कराने, भोजन दिलाने जैसे आग्रह करके कुछ न कुछ वसूल करते रहा जाय। इस याचना वृत्ति का परिणाम अश्रद्धा ही हो सकता है, वैसा ही होता भी है। देवालय के पुजारी वहाँ पहुँचने वालों की दृष्टि से उथले स्तर के ही होते है। उनका कोई नैतिक प्रभाव नहीं होता। ज्ञान एवं तप का अभाव रहने से वे इन आगन्तुकों को कोई उच्चस्तरीय प्रेरणा भी नहीं दे पाते। प्रमाण तो कितने ही करते हैं, पर आशीर्वाद फलित हो सके ऐसे बल प्रभाव की पूँजी न होने से उनका कथन निष्फल ही चला जाता है। पुजारी होने के लिए ब्राह्मण वंश के लोग ही उपयुक्त समझे जाते हैं, पर यह नहीं देखा जाता है कि उनमें ब्राह्मणत्व कितनी मात्र. में है। कहीं निर्धन कहीं प्रचुरधनवान पुजारियों में उनका पिछड़ापन या चातुर्य ही कारण होता है। दोनों ही परिस्थितियों में उस विशिष्टता का अभाव ही दीखता है जो तीर्थ संचालकों में होनी चाहिए। देवपूजा के निरन्तर संलग्न रहने वाले व्यक्ति भी यदि देवोपम न बन सकें तो फिर इस तथ्य को कौन स्वीकार करेगा कि देवालयों में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन से किसी को कुछ संतोषजनक सत्परिणाम उपलब्ध हो सकेंगे।
गायत्री तीर्थों का निर्माण उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। आवश्यक है कि उनकी गतिविधियों का संचालन करने वाले भी व्यक्तित्व की दृष्टि से ऐसे हों, जो संपर्क में आने वालों में धर्म श्रद्धा का संचार कर सकें। यह स्तर ही वह आधार है जिसके सहारे इन धर्म संस्थानों के सफल सिद्ध होने की आशा की जा सकती है।
गायत्री तीर्थों में नियुक्त पाँच परिव्राजक स्थानीय कर्मचारी नहीं होंगे। वे ब्रह्मवर्चस शान्ति कुँज में प्रशिक्षण प्राप्त होंगे। उन्हें गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से ऐसा बनाने का प्रयत्न किया जायगा जो सौंपे गये उत्तरदायित्व को सँभाल सकने के उपयुक्त कहा जा सके। तीर्थ पुरोहित को उपासना पद्धति एवं धर्म-कृत्य करा सकने की शास्त्रीय जानकारी होनी चाहिए। वे अपने विषय में प्रवीण एवं अनुभवी सिद्ध हो सकेंगे तभी उन्हें इन तीर्थों में भेजा जायगा। कोई सीधी नियुक्ति कहीं भी नहीं होगी और न उपयुक्त शिक्षण में प्रवीणता प्राप्त किये बिना किसी को तीर्थ संचालन का काम सौंपा जायगा।
प्रत्येक तीर्थ में परिव्राजकों की संख्या न्यूनतम पाँच होगी। क्षेत्रीय आवश्यकता के अनुसार उन्हें दस तक किया जा सकेगा। मन्दिर का कार्यक्रम पूरा करने के अतिरिक्त शेष जितने भी बनेंगे। दो-दो की टोलियाँ बनाकर समीपवर्ती क्षेत्रों में नियमित रूप से नव जागरण का वातावरण बनाने के लिए जाया करेंगे। प्रातः जाकर शाम को लौट आना। अथवा आवश्यकतानुसार राशि को कहीं रहा जाना यह सब वे लोग अपने विवेक के अनुसार किया करेंगे।
परिव्राजक एक वर्ष से अधिक कहीं नहीं रहेंगे। उनका स्थानान्तरण हर वर्ष होता रहेगा। पाँचों एक साथ ही रहें यह आवश्यक नहीं। पुरानी मण्डलियाँ बिखरती नई-नई बनती रहेगी। यह इसलिए कि व्यक्तियों में मोह बन्धक न जुड़ने पाये। पुरानी से हटने-बिछुड़ने और नयों के साथ तालमेल बिठाने में कठिनाई तो हर बार होती है, पर मोह बन्धक नहीं बाँध पाते और रागद्वेष के वे अंकुर नहीं पनपने पाते जो लोक सेवा में निरत परमार्थ संलग्न व्यक्तियों के लिए अन्ततः हानि कारक ही सिद्ध होते हैं।
एक वर्ष से अधिक ठहरने की बात कभी-कभी कहीं-कहीं अपवाद के रूप में ही बनेगी अन्यथा साधारणतया स्थानान्तरण ही होते रहेंगे। इससे बहुत बड़ा लाभ यह है कि कहीं कोई घनिष्ठता का वैयक्तिक लाभ भी नहीं उठा सकेगा और मोह बंधनों से बँधकर उस उद्देश्य से च्युत होते लगेगा जो प्रव्रज्या ग्रहण करते समय परिभ्रमण करने को उत्तरदायित्व निभाने के लिए शपथ पूर्वक शिरोधार्य किया था। सरकारी अफसरों के अनिवार्यतः तबादले होते रहते हैं। इसमें सरकारी खर्च भी बढ़ता है और अफसर भी नाक भौं सकोड़ते है, कठिनाई अनुभव करते है। इतने पर भी प्रवाह मान जल स्वच्छता बनी रहती है। अवरुद्ध जलाशय सड़ते हैं। बँधकर स्थान विशेष पर बैठे जाने सन्त भी आपत्ति ग्रस्त होकर कईबार तो सामान्य गृहस्थों जैसे परिग्रही एवं प्रपंची हो जाते हैं। गायत्री तीर्थों के संचालक लोग लोभ मोह के बँधनों में न बँधने पायें-किसी संस्थान पर आधिपत्य जमाने की दुरभि सन्धि न रचने पायें, इसलिए आरम्भ से ही स्थानान्तरण की मर्यादा बना दी गई है। इसमें पुराना चोला छोड़ने नय ग्रहण करने जैसी अड़चन तो अवश्य अनुभव होती है, पर उद्देश्य की दृष्टि से लाभ ही लाभ है। अनेक परिस्थितियों में रहने, अनेक समस्याओं का सामना करने- अनेक अनुभव सम्पादित करने का लाभ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसी प्रकार इन तीर्थ क्षेत्रों के लोगों को भी नये परिव्राजकों की नई विशेषताओं का अनुभव हर वर्ष होते रहने की नवीनता भी बनी रहेगी। इसमें हानि इतनी ही है कि मोह का दबाव पड़ता है। लाभ असीम है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए परिव्राजकों की मण्डलियाँ बिछुड़ते रहने स्थान बदलते रहने की परम्परा आरम्भ से ही बना दी गई है।
परिव्राजकों को अपने निर्वाह के लिए स्वयं प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा। याचना करने की, किसी से इस निमित्त घनिष्ठता बढ़ाने और चापलूसी करने की भी उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उनका निर्वाह व्यय वहन करना शान्ति-कुंज का उत्तरदायित्व होगा।
गायत्री तीर्थों की यह परम्परा रहेगी। कि वहाँ प्रतिमा के सम्मुख पैसा चढ़ाने की परम्परा नहीं होगी कोई पैसा चढ़ाना चाहेगा तो उसके बदल में प्रायः उतने ही मूल्य का ‘प्रसाद साहित्य’ उसे हाथों हाथ दे दिया जायगा। इस प्रयोजन के लिए गायत्री चालीसा, गायत्री चित्र, युग निर्माण संकल्प के अत्यधिक सस्ते संस्करण छापे गये हैं। पैसा चढ़ने इस प्रसाद साहित्य को ले जाकर स्वयं पढ़े-पूजा प्रयोजन में प्रयुक्त करें और अन्य प्रिय जनों को उसे देकर उनमें भी धर्म चेतना उत्पन्न करें, तो इतनी ही देव-दक्षिणा पर्याप्त मानी जायगी। कोई विशेष दक्षिणा देना चाहेंगे तो अपने किसी दोष-दुर्गुण को छोड़ने घटाने की किन्हीं सत्प्रवृत्तियों को अपनाने बढ़ाने की प्रतिज्ञा निर्धारित घटाने की-किन्हीं सत्प्रवृत्तियों को अपनाने बढ़ाने की प्रतिज्ञा निर्धारित संकल्प-पत्र पर लिखकर देवता के चरणों में प्रस्तुत करेंगे।
प्रव्रज्या अभियान एवं तीर्थ स्थापना की प्रक्रिया आरम्भ करते ही यह व्यवस्था बनाई गई है कि युग निर्माण योजना के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले सभी साहित्य का लाभाँश विशुद्ध रूप से इसी पुण्य प्रयोजन के लिए सुरक्षित कर दिया है। भवन निर्माण का कार्य तो धर्म प्रेमी उदार लोगों की सहायता से सम्पन्न होगा, पर परिव्राजकों के निर्वाह का अधिकाँश खर्च युग साहित्य में जो थोड़ा सा लाभांश रहता है उसी से पूरा करने का प्रयत्न किया जायगा। जो कमी पड़ेगी उसकी पूर्ति उन लोगों के अंशदान से की जायगी जो प्रव्रज्या का महत्व तो समझते है, पर कारण वश स्वयं नहीं जा सकते। ऐसे लोग समय के स्थान पर कुछ पैसा दिया करेंगे तो उसका उपयोग कार्यक्षेत्र में गये हुए परिव्राजकों के निर्वाह व्यय के निमित्त कर दिया जाया करेगा। हर हालत में परिव्राजक स्वयं अपने निर्वाह की चिन्ता से मुक्त रहेंगे। और निजी रूप से इसके लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करेंगे। परिस्थिति वश कहीं भोजन करना पड़े तो बात अलग है अन्यथा वस्त्र आदि के रूप में किसी का कोई दान उपहार निजी प्रयोजन के लिए स्वीकार न करेंगे। उन्हें आरम्भ से ही सिखाया गया हैं कि व्यक्तिगत रूप से दान ग्रहण करना प्रतिग्रह है। पूर्वजों की बात दूसरी थी। अपने समय में निजी रूप से याचना करना एवं उसे ग्रहण करना उपयुक्त नहीं। प्राचीन समय में भी प्रतिग्रह का निषेध था। वर्तमान स्थिति में युग निर्माण योजना के परिव्राजकों पर भी ऐसे ग्रहण पर प्रतिबन्ध लगाते हुए नियुक्त व्यक्तियों का व्यय भार मिशन द्वारा उठाये जाने और परिव्राजकों के स्वाभिमान को उच्चस्तरीय बनाये रहने का निश्चय किया गया है।
गायत्री तीर्थों के लिए भवन निर्माण के लिए अर्थ साधन जुटाने के लिए जिस प्रकार प्रयत्न किये जा रहे हैं उसी जागरूकता के साथ परिव्राजकों की भर्ती उनकी शिक्षा के लिए भी प्रयास किया जा रहा है। शान्ति-कुंज ब्रह्मविद्यालय का पाठ्य क्रम लोक सेवी परिव्राजकों के लिए ही बनाया गया है। उसमें भाषण कला- संगीत उपासना विज्ञान, यज्ञ-प्रक्रिया, पर्व एवं त्यौहार एवं षोड्श संस्कार करने, देव पूजा की शास्त्रीय पद्धति समीपवर्ती क्षेत्रों में धर्म चेतना बढ़ाने की विधि व्यवस्था युग समस्याओं के समाधानों की जानकारी-रचनात्मक प्रवृत्तियों का अभिवर्धन -अवांछनियताओं के विरुद्ध संघर्ष परिव्राजकों के लिए निर्धारित पंचशील का परिपालन जैसे अनेक विषयों का परिव्राजकों को नियमित अध्ययन कराया जायगा और समय-समय पर उन्हें सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप परामर्श निर्देश के लिए शांतिकुंज बुलाया भी जाता रहेगा।
जिस प्रकार तीर्थों के भवन छोटे होते हुए भी तिमंजिले भव्य, आकर्षण एवं धर्म परम्परा का गौरव बढ़ा सकने योग्य बनाये जा रहे है। उसी प्रकार यह प्रयत्न भी समानान्तरण चल रहा है कि इन तीर्थों की संचालन कर्त्री पाँच देव कुमारों की मंडली भी अपने व्यक्तित्व आचरण एवं पुरुषार्थ से इस स्थापना को गौरवान्वित करने में सफल सिद्ध होती रहे। गायत्री तीर्थों पर निहित स्वार्थों की काली छाया मंडराने न पाये, उसमें दुरभि संधियों को किसी छिद्र में होकर प्रवेश करके ध्वंस रचने का अवसर न मिलने पाये इसके लिए पैनी सतर्कता को आर्मी से ही जुड़ा रखा गया है।
गायत्री तीर्थों के उद्देश्य महान हैं। उनके द्वारा जिन रचनात्मक प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन होने वाला है, उन्हें धर्म चेतना के पुनर्जीवन का देव प्रयास का जा सकता है। इनकी सफलता का विश्वास जिस आधार पर किया गा है वह है तीर्थ निर्माण के साथ प्रव्रज्या अभियान का उस पुण्य प्रयोजन में सक्रिय योगदान। इन दोनों के मिलन को कृष्ण, अर्जुन की राम हनुमान की जोड़ी कह सकते है। युग सृजन की महाभारत योजना में हर तीर्थ में रहने वाले पाँच परिव्राजक पाँच पाण्डवों की भूमिका निभा सकेंगे, हमें ऐसी ही आशा करनी चाहिए।