Magazine - Year 1979 - May 1979
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
शक्तिपीठ का भवन और उसका स्वरूप
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गायत्री शक्तिपीठ दो चरणों में बनेंगे। एक होगा जन-संपर्क और दूसरा होगा-साधना सत्र। प्रथम चरण में जन-संपर्क वाले देवालय बन रहे हैं। इन्हें ऐसे जन-संकुल वाले संकुल वाले साधन स्थानों में बनाया जा रहा है। जहाँ यात्रियों का सहज स्वभाव आवागमन होता हो। इमारतें विस्तार में छोटी होते हुए भी तीन मंजिली बनाई जा रही हैं उनके मुख कलेवर-ऐलीवेशन-ऐसे रखे जा रहे हैं, जो उधर से निकलने वाले को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर सकें और उसकी भव्यता को देख कर हर किसी का उसे देखने-भीतर प्रवेश करने का मन हो। प्राचीन काल में मन्दिरों के तोरण द्वार-शिखर आदि सज्जा पक्षों को इसीलिए अधिक आकर्षक बनाया जाता था, कि दर्शकों की सहज रुचि को उधर मुड़ने और पहुँचने का आकर्षण बना रहें। इन पीठों में उस तथ्य का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सर्वत्र तीन मंजिली इमारतें इसीलिए है कि उनकी ऊँचाई दूर से दीख पड़े। मुख कलेवर को अधिक आकर्षक बनाने का इसलिए ध्यान दिया गा है कि दर्शनार्थी की सहज इच्छा उसके संबन्ध में अधिक जानने की हो। सज्जा आवरण का यही सिद्धान्त भी है। मन्दिरों में इस तथ्य का अधिकाधिक समावेश करने की उनके निर्माताओं में सदा प्रतिस्पर्धा रही है।
ऐसे स्थान घने ही हो सकते हैं। घनी सड़क बाजारों में ऐसी खाली जगहें मिलना अति कठिन है। वे पहले से ही घिरी होंगी बहुत कठिनाई से ही मिलेंगी। कहीं-कहीं तो ऐसा भी हो सकता हैं कि पुराने मकान खरीदकर उन्हें तोड़ा जाय और उनकी जगह पर यह निर्माण किया जाय। जो हो अभीष्ट स्थानों में जगह कठिनाई से मिलेगी और महंगी भी होगी। इस दृष्टि से उन्हें तीन मंजिला ही बनाया जा रहा है। जमीन कम और काम बहुत हो वहाँ तो कई मंजिली इमारतें ही बनाई जाती हैं। यही निर्णय इन निर्णय इन निर्माणों के सम्बन्ध में है। वे सघन सड़क मुहल्लों पर ही बनेंगे ताकि जन संपर्क का उद्देश्य ठीक प्रकार सधता रहें।
दूसरे चरण में साधना सत्रों के लिए जो आश्रम बनेंगे, वे कोलाहल से दूर एकान्त शान्त प्रकृति सान्निध्य वाले स्थानों में होंगे। वहाँ उसी प्रकार के साधना सत्र चला करेंगे जैसे कि ब्रह्म-वर्चस शांतिकुंज में चलते हैं। उस क्षेत्र के साधकों, जिज्ञासुओं-सृजन शिल्पियों के लिए उपयुक्त वातावरण में रह कर साधना करने और जीवन निर्माण तथा लोक-कल्याण की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता रहे। जहाँ सम्भव होगा इनमें तो यात्रियों के ठहरने की सुविधा भी रखी जायगी। यह आश्रम कहे जायेंगे और एक मंजिलें ही होंगे। उनमें भव्यता आवश्यक नहीं। कुटिया बनाने में भी काम चल सकता है।यह योजना ध्यान में तो है, पर आर्मी कहीं भी नहीं की जा रही है। एक पक्ष को पूरा करने के बाद ही दूसरा हाथ में लेने का निश्चय है। यह उचित भी है और यही सम्भव भी। धन, साधन, संचालक, व्यवस्था आदि की इतनी समस्याएँ हैं जिन्हें ध्यान में रख कर उठाये गये कदम ही पार पड़ते हैं। आतुरता में बहुत काम हाथ में ले लेने पर काम एक भी पूरा नहीं होता ओर अव्यवस्था फैलती हैं। इसलिए आश्रम को बाद के लिए रखा गया है और प्राथमिकता जनसंपर्क वाले देवालयों को दी गई है।
इन दिनों जो तीन मंजिलें निर्माण हो रहे है; उनमें पहला कक्ष विशुद्ध देवालय है दोनों और बरामदे। बीच में प्राँगण। इसमें इतना स्थान रहेगा कि प्रायः दो सौ व्यक्तियों का एक साथ आवागमन आसानी से हो सके। और नवरात्रि आदि की सामूहिक साधना करनी हो तो भी उसमें दो सौ साधक एक साथ बैठ सकें। इतनी जनता का छोटी ज्ञान-गोष्ठियों का-कथा प्रवचनों का उद्देश्य इस देवालय भाग से पूरा हो सकेगा।
इस मंजिल में नौ मूर्तियां पृथक-पृथक कक्षों में स्थापित होंगी और इन सभी से नित्य पूजा आरती होती रहेगी। एक ही कमरे में एक साथ अनेकों मूर्तियां बिठा देने से स्थान तो कम घिरता है थोड़े बहुत करने का कौतूहल भी पूरा हो जाता है, पर ध्यान धारणा में बाधा पड़ती है। इस दृष्टि से नौ स्थापनाएँ एक दूसरी से पृथक्-पृथक थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रहेगी।
सामने मध्य में आद्यशक्ति गायत्री की बड़ी प्रतिमा रहेगी। वही इस शक्ति पीठ की प्रमुख अधिष्ठात्री है। इसके उपरान्त आठ उसकी अन्य शक्ति धाराओं की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित होंगी। आद्यशक्ति के एक पार्श्व में पंचमुखी सावित्री-दूसरे पक्ष में प्राणऊर्जा कुण्डलिनी। तीनों का परस्पर सघन सम्बन्ध भी है। पंचमुखी सावित्री की पंच कोसी-दक्षिण मार्गी साधना का विज्ञान हैं। कुंडलिनी को ताँत्रिकी वाममार्गी-भौतिकी कहा जाता है। एक ज्ञान की देवी हैं दूसरी विज्ञान की आद्यशक्ति गायत्री इन दोनों की अधिष्ठात्री है।
सामने तीन प्रतिमाएँ। तीन-तीन दोनों बरामदों में रहेंगी। एक कक्ष में ब्राह्मी-वैष्णवी, शाम्भवी। दूसरे में वेदमाता-देवमाता-विश्वमाता। ब्राह्मी, वैष्णवी शाम्भवी को ही सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा कहा जाता है। मध्यवर्ती आद्यशक्ति की प्रतिमा तीन फुट ऊँची और अन्य आठ दो-दो फुट ऊँची होंगी। आद्यशक्ति का मध्यवर्ती सिंहासन परिपूर्ण होंगी। शेष आठ दीवारों में बने सिंहासनों पर प्रतिष्ठापित की जायेंगी। नीचे कमल का सिंहासन पर प्रतिष्ठापित की जायेंगी नीचे कमल का सिंहासन-ऊपर छत्रकलश यह सीमेन्ट के बने होंगे और आधे कटे हुए जैसे दिखाई पड़ेंगे। दीवार में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना इसी प्रकार होती हैं।
देव प्रतिमा पर पैसा चढ़ाने की रोक रहेगी। दर्शनार्थी नमन वन्दन करेंगे। पुष्प चढ़ा सकेंगे। जो पैसा देना चाहेंगे उन्हें तत्काल उसके बदलें में गायत्री प्रसाद साहित्य दे दिया जायगा। इसके लिए प्रवेश द्वार की बगल में एक छोटा स्टाल भी रहेगा।
दर्शनार्थियों को प्रतिष्ठापित नौ प्रतिमाओं का तत्व ज्ञान, स्वरूप एवं प्रयोग समझाने के लिए एक गाइड नियुक्त रहेगा। दर्शनार्थी मात्र प्रतिमाओं को देख कर ही वापिस नहीं चले जायेंगे वरन् उन के विभिन्न स्वरूपों के माध्यम से गायत्री विद्या का सुनिश्चित परिचय भी इतने थोड़े समय में सार-रूप में प्राप्त कर लिया करेंगे। दर्शन और शिक्षण के दोनों उद्देश्य ठीक तरह परे होते रहें, यह योजना पहले से ही बनाकर रखी गई है।
ऊपर की दूसरी मंजिल में जाने के लिए प्रवेश द्वार की बगल से ही जीना रहेगा। जो दर्शनार्थी गायत्री विद्या के सम्बन्ध में अधिक जानना चाहेंगे। उन्हें ऊपर बने सत्संगभवन में पहुँचा दिया जायेगा। यहाँ एक समाधानी परिव्राजक इसके लिए सदा प्रस्तुत रहेंगे। जिज्ञासुओं की हर जिज्ञासा का सुविस्तृत समाधान यहाँ हर किसी को उपलब्ध रहेगा। यह सत्संग कक्ष बीच की मंजिल के दो तिहाई भाग में बना होगा। एक तिहाई में पाँच परिव्राजकों के निवास, नित्यकर्म, भोजनालय आदि की सुविधा रहेगी। दोनों विभाजित होंगे। मंजिल एक होते हुए भी सत्संग वालों को परिव्राजक निवास की जानकारी मिलेगी और उनके निवास क्रम में भीड़ के कारण कोई व्यतिक्रम न पड़ेगा।
तीसरी मंजिल को अतिथिगृह समझा जाना चाहिए। इसमें तीन ओर तीन बड़े बरामदे होंगे, जिन्हें आवश्यकतानुसार अलग-अलग काट देने पर आठ कमरों के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता हैं। शक्तिपीठ में आगन्तुक अतिथि भी पहुँचते ही रहेंगे। इनके निवास, भोजन, शौच, स्नान आदि की सुविधा इस तीसरी मंजिल पर रहेगी। दैनिक हवन भी इसी मंजिल की खुली छत पर होता रहेगा।
इस प्रकार तीनों ही मंजिल मिलकर शक्तिपीठ के विभिन्न, त्रिविधि उद्देश्यों को पूरा करती रहेगी। देवालय-सत्संग भवन-परिव्राजक निवास-अतिथि गृह के चारों ही उद्देश्य जिस कुशलता से छोटी-सी इमारतों में पूरे किये जायेंगे; उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इस निर्माण की एक-एक इंच भूमि का परिपूर्ण सदुपयोग होगा। फालतू समझा जाने योग्य स्थान इसमें कही भी दृष्टिगोचर न होगा।
सामने प्रवेश द्वार के आगे बारह फुट जगह खाली छोड़ी गई है ताकि उसमें कुछ फूल फुलवारी लोन आदि लग सकें ओर आवश्यकतानुसार कोई वाहन भी उस में खड़ा हो सके। अन्य तीनों और न्यूनतम छः-छः फुट खाली जगह छोड़ी गई है। ताकि प्रकाश एवं हवा भीतर पहुँचने में बाधा न पड़े। इस खाली जगह में नीचे फूलों के गमले रहेंगे। और ऊपर की मंजिल में बालकनी छजली-बाहर निकली रहेगी। उनसे शोभा भी होगी और सुविधा भी।
साधारणतया इन शक्तिपीठों के लिए 60 फुट चौड़ी और 80 फुट लम्बी जमीन से काम चल जायेगा। पाँच हजार वर्ग फुट पर्याप्त है। जहाँ न्यूनाधिक मिलेगी वहाँ उसके अनुरूप घट-बढ़ को जायगी पर मोटी रूप रेखा यही रहेगी जो ऊपर बताई गई है। अभीष्ट प्रयोजन इतने स्थान के बिना पूरे होते नहीं है।
लागत डेढ़ लाख रुपये की कूती गई है। इसी में भूमि खरीदना तथा नौ प्रतिमाओं की लागत भी सम्मिलित है। अलग-अलग जगहों पर वस्तुओं के-मजूरी के दाम अलग अलग होते है इसलिए इसमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है। यह लागत हरिद्वार और मथुरा का औसत निकाल कर कूती गई है।
जहां साधन कम होंगे वहाँ दो मंजिली इमारत भी बन सकती है। तीसरी मंजिल पर बनने वाले अतिथि कक्ष को छोड़ा जा सकता है, देवालय का बीच का आंगन बिना पटा-खुली छत का रखा जा सकता है। ऐसी दशा में इनकी लागत घट कर एक लाख भी हो सकती है। प्रतिमाएँ तथा जमीन तो तीन मंजिली दो मंजिली इमारतों में समान ही रहेगी। इसलिए लागत में पचास हजार से अधिक की कटौती नहीं हो सकती है।
कोई उदार मन डेढ़ लाख रुपये की लागत स्वयं अपने परिवार से वहन कर सकेंगे तो निर्माण के रूप में उनके नाम का पत्थर लगेगा और रंगीन फोटो भी लगा रहेगा। जहाँ संग्रह कना पड़े वहाँ पाँच हजार से ऊपर देने वालों के भी स्मृति पटल-पत्थर लगाये जायेंगे। यों मुट्ठी-मुट्ठी सहयोग तो इनमें अनेकों धर्म प्रतियों का रहेगा। जिनसे सहयोग का अनुरोध किया जायगा। उनसे ईंट-सीमेन्ट लोहा-लकड़ी-आदि सामग्री देने की बात कही जायगी। एक-एक दो-दो रूपों से तो कहा तक इतनी बड़ी राशि संग्रह कर सकना सम्भव होगा।