Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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दिव्य अनुदानों का सुयोग सौभाग्य
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जिनके मन में देव समुदाय में पाई जाने वाली आत्मकलयाण और लोक-मंडल की ज्योति विद्यमान है, उनके लिए सदा की भाँति अभी भी देव सत्ता का अनुग्रह उपलब्ध करना सरह है । अड़चन तो दैत्य ही उत्पन्न करता है, जिसे तृष्णा और लिप्सा के अतिरिक्त और कुछ सझता ही नहीं जिनकी साधना उच्च उद्देश्यों के निमित है उन्हें पात्रता के अनुरुप दिव्य अनुदानों को प्राप्त करते रहने में कभी कोई बाधा नहीं पड़ती । शुी प्रसंगो पर देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि होने के उल्लेख कथा, पुराणों में आते रहते हैं। इस अलंकारिक वर्णन में इसी तथ्य को उजागर किया गया है कि सत्प्रयोजनों में दिव्य सत्ता की सहानुभूति ही नहीं, अनुकम्पा और सहायता भी मिलती है। यदि ऐसा न रहा होता तो विपन्न परिस्थितियों में जन्मे और असंख्य अवरोधों से घिरे रहने पर महापुरुषों को उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त कर सकना किस तरह सम्भव हो सका होता ?
यह नवयुग की संधि बेला है। इसमें आकुलता भक्तों को कम और भगवान को अधिक है आमतौर से वोटर ही चुने प्रतिनिधियों से अपना कुछ काम करने के लिए उनका द्वार खटखटाते रहते हैं। सामान्य समय में यही चलता है। किन्तु चुनाव के दिनों स्थिति ठीक उलटी हो जाती है, जब खड़े हुए उम्मेदवार ही वोटरों के दरवाजों पर चक्कर काटते हैं और सहायता प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ कहते और करते देखे जाते हैं। इन दिनों की परिस्थिति ऐसी है जिसमें निराकार भगवान का साकार वाहनों, उपकरणों की सहायता तलाश करनी पड़ रही हैं बिजली की सामर्थ्य सर्वविदित है, परउसे भी अपना सामर्थ्य का परिचय देने के लिए वल्व, पंखा, हीटर, मोटर आदि उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। लम्बे सफर जल्दी पूरे करने हों तो वाहन तलाश करने होते हैं। महाकाल की समर्थता में सन्देह नहीं, पर सदा की भाँति इस समय भी उसे प्रत्यक्ष परिवर्तन कर सकने के साधनों से युक्त सहयोगियों की जरुरत पड़ रही है।
राम ऋष्यमूक पर्वक पर पहुँचे थे और हनुमान सुग्रीव को सहयोग देने के लिए-सहमत करने के लिए-मनाते रहे थे । अर्जुन ने जब महाभारत लगने में आना-कानी दिखाई थी तो कृष्ण समझाने से लेकर नाराज होने तक और अन्ततः उनका रथ चलाने की शर्त पर समझौता कर पाये थे। परमहंस ने विवेकानन्द के घर पर चक्कर काटे थे और साथ देने के लिए कई तरह के प्रलोभन देते रहे थे । तब तक पीछे ही लगे रहे जब तक कि लड़का सहयोगी बन नहीं गया । चन्द्रगुप्त चाणक्य को ढूँढ़ने नहीं गये थे चाणक्य ने ही उन्हें धरदबोचा था। समर्थ और शिवाजी के सम्बन्ध में भी यही बात है। इस प्रकार के असंख्य घटना क्रम मौजूद हैं जिनमें विशेष अवसरों पर विशेष आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिव्य सत्ता साजृत आत्माओं को तलाश करने और उनका सहयोग पाने के लिए प्रयत्न रत रही है। आमतौर से ऐसा नहीं होता । सामान्य समय में जिज्ञासुओं को ही समर्थो का मनुहार करना पड़ता है। भगवान अकारण भक्तों के दरवाजे पर नहीं पहुँचते । समदर्शी को न किसी से मोह होता है न द्वेष । न उन पर निन्दा का असर पड़ता है न प्रशंसा का । भगवत कृपा का एक ही सुनिश्चित उद्देश्य है-
सत्प्रयोजनों में सहयोग पाने के लिए माध्यम उपलब्ध करना । निराकार होने के कारण उन्हे आकारधारी मनुष्यों की सहायता जुटानी पड़ती है।
सृष्टा ने इस धरती को अपनी सर्वोत्कृष्ट कलाकृति रुप में विनिर्मित किया है। ऐसा सुन्दर ग्रह इस ब्रह्माण्ड में और कोई नही। मनुष्य को जब उसने गढ़ा है तो उसमें अपनी समस्त विशेषताएँ बीज रुप से भर दी हैं। धरती और मनुष्य से सृष्टा को असाधारण प्यार है इस लिए उनके पराभव का संकट जब कभी खड़ा होता है तो वे स्वयं दौड़ते चले आते हैं और सन्तुलन बनाये रखने का अपना “यदा-यदा हि धर्मस्य “ वाला आश्वासन पूरा करते है।चेतना को कृत्य करने के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है। इसकी पूर्ति वे जागृत आत्माओं का सहयोग प्राप्त करके पूर्ण करते हैं। अवतारों के सहयोगी अपनी तुच्छ-सी सहायता का इतना बड़ा उपहार प्राप्त करते रहे हैं जितना सामान्य रुप में बहुत कुछ कर गुजरने पर भी सम्भव नहीं था। यों दिव्यलोक से अवतरण मात्र अदृश्य प्रवाह का होता है उसे युगान्तरीय चेतना जैसे किसी अदृश्य हलचल के नाम से जाना जा सकता है, पर आँधी का परिचय तो पत्तो के हिलने और धूलि कणों के उड़ने जैसे दृश्य घटनाओं से ही मिलता है। युगान्तरीय चेतना जागृतों का वरण करती है और उन्ही के माध्यम से अपना प्रयोजन पूर्ण करती है। इन वरण-वाहनों का सौभाग्य अनन्तकाल तक सराहा जाता रहता है। प्रज्ञावतार की इस पुण्य बेला में, युग सन्धि में भी ऐसा ही सुयोग सामने है उसमें जागृतों के लिए अनपम अनुदानों का सुअवसर अनायास ही प्रस्तुत है। किन्तु उसके साथ सदा की तरह अभी भी पुण्य प्रयोजनों के लिए अनुदानों का उपयोग करने की शर्त जुड़ी हुई है। जो दूसरों की जेब काट कर अपनी मजेदारी का ताना-बाना बुनते रहते हैं उनके लिए तो यह सुयोग भी सन्तोषप्रद सिद्ध न हो सकेगा । देव समुदाय में प्रवेश करने की प्रामणिक पात्रता ता उदात्त चरित्र, उदार व्यवहार के सहारे ही विकसित होती है।
युग संधि में नैष्ठिकों को विशिष्ट स्तर के और जागृतों को सामान्य स्तर के अनुदान मिल रहे हैं। प्रयास और परिश्रम की तुलना में यह उपलब्धि भी इतनी बड़ी है जिसे चन्दन के निकट उगे झाड़ो और पारस का र्स्पश करने वाले लौह खण्डों को मिलने वाले अनायास सौभाग्य के समतुल्य समझा जा सकता है। सूर्य के उदय होने पर उसके प्रकाश क्षेत्र में आने वाले सभी प्राणी और पदार्थ गर्मी प्राप्त करते हैं। वर्षा के समय खुले में जा खडे़ होने पर किसी को भी गीले होने का अवसर मिल जाता हैं इसमें प्रयास स्वल्प और लाभ असाधारण हैं । ऐसे लाभ अवसर पहचानने वालों को ही मिलते हैं। जब चाहे-जहाँ चाहे वहीं सूर्य की ऊर्जा-वर्षा की तरलता का लाभ नहीं मिलता । युग संधि की दैवी अनुग्रह प्राप्त करने का एक विशिष्ट अवसर माना जा सकता है।
अध्यात्म धु्रव केन्द्र से इन दिनों ऐस विवरण निसृत हो रहे हैं वे जागृत आत्माओं को विकसित एवं समर्थ बनाने की दृष्टि से अतीव उपयोगी है। इस अनुदान प्रवाहों के तीन स्तर है-(1) स्थूल चेतना के लिए प्राण संचार कुण्डलिनी अनुदान (2) सूक्ष्म चेतना के लिए-ज्योति अवतरण दिव्य दृष्टि जागरण (3) कारण चेतना के लिए-ब्रह्म सर्म्पक अमृत अनुीव। यह तीनों जीवन के तीनों क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं । इन्हें कर्म योग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग की साधना की सहज पूर्ति कर सकने वाले अनुदान कह सकते हैं। सर्त्कम, सद्ज्ञान और सद्भाव ही वे उपलब्धियाँ हैं जिनके सहारे मनुष्य को महामानव, ऋषि और अवतार अग्रदूत बनने का अवसर मिलता है। इनमें से जिसे अपने लिए जिस स्तर की आवश्यकता अनुभव होती हो वह उन्हें इन दिनो बिना किसी अड़चन के उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध कर सकता है। प्रमाद वितरण चल रहा हो तो उससे राहगीर भी लाभ उठा लेते हैं।
गायत्री जयन्ती (23जून) के उपरान्त दिव्य वितरण की उपरोक्त तीन धाराएँ हिमालय का अध्यात्म धु्रव केन्द्र निसृत करेगा । प्राण ऊर्जा, दिव्य दृष्टि और सरस श्रद्धा के रुप में इन तीनों का अनुभव किया जा सकता हैं साधना की भाषा में इन्हें क्रमशः कुण्डलिनी ज्योति धारा एवं रसानुभूति के नाम से जाना जाता है। इन तीनों के ग्रहण केन्द्र क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते हैं । समर्थता,प्रतिभा एवं वरिष्ठता यह इन तीनों क्षेत्रों की सिद्धियाँ हैं। इन्हीं हुण्डियों को बाजार में भुना कर मनचाही परिस्थितियों एवं सफलताओं को उपलब्ध किया जा सकता है। सिद्ध पुरुष अध्यात्म क्षेत्र की विभूतियों एवं क्षमताओं से सम्पन्न व्यक्ति को ही कहते है। फूलों का उद्यान लगा कर पाया जाने वाला लाभ इन दिनों इत्र उपहार की तरह अनायास ही मिल रहा है। इसे जो प्राणवान परिजन प्राप्त कर सकेंगे निश्चय उन्हें सौभाग्यवान कहलाने का अवसर मिलेगा ।