Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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संसार की सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्य आत्म शक्ति
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आत्म शक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। भौतिक सम्पदा एवं सामर्थ्य के सहारे मनुष्य को भाव निर्वाह तथा सुविधा की साधन सामग्री प्राप्त होती है, जबकि आत्मशक्ति प्रसुप्त चेतना को जगाती, अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारती तथा मनुष्य में देवत्व का उदय−उद्भव कर दिखाती है। महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनने का अवसर नर−पशुओं को इसी आधार पर उपलब्ध होता है। अपना और दूसरों का भला करने की एक सीमित सामर्थ्य ही बुद्धि वैभव में पाई जाती है, किन्तु आत्मबल के सहारे ऊँचा उठने, आगे बढ़ने की ऐसी प्रखरता प्राप्त की जा सकती है, जिसके सहारे अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का भी उत्थान, अभ्युदय सम्भव हो सके। शरीर और प्राण के मध्य जो अन्तर है वही भौतिक सम्पदाओं और आत्मिक विभूतियों के बीच पाया जाता है। साधन सम्पन्न सुख भोगते है, किन्तु आत्मबल से समर्थ व्यक्ति इसी जीवन में स्वर्ग मुक्ति का परमानन्द प्राप्त करता और परब्रह्म के साथ तादात्म्यता का जीवन लक्ष्य प्राप्त करता है।
आत्म शक्ति प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है उसके दो पक्ष हैं–एक क्रिया–कांड, भजन–पूजन का उपचार। दूसरा ब्रह्माण्डीय चेतना के, उत्कृष्टता देवात्मा के साथ योग एकात्म्य। उपचारों में जप, भजन, व्रत, उपवास जैसे शरीर साध्य कृत्य करने पड़ते हैं। योग भावना प्रधान है उसमें समर्पण स्तर की भाव श्रद्धा जगानी पड़ती है। भक्ति का, प्रेम का अभ्यास करना और स्वभाव बनाना पड़ता है। आदर्शों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व को योगी कहते हैं जबकि मात्र कर्म−काण्डों में ही निरत रहने वाले भाव शून्यों को अधिक से अधिक पुजारी की संज्ञा दी जा सकती है। उपचारों को तीर और योग एकात्म्य को धनुष कहते हैं। तीर उतनी ही दूर जाता, उतनी ही चोट करता है, जितना कि प्रत्यंचा का खिचाव उसे प्रेरणा देता है। धनुष के बिना तीर की कोई चमत्कृति नहीं, किन्तु अकेला धनुष किसी छोटे से कंकड़ को फेंककर लगभग तीर लगने जैसा परिणाम उत्पन्न कर सकता है। उपचार का कोई महत्व नहीं, सो बात नहीं। लेखक को कलम, दर्जी को सुई, चित्रकार को तूलिका, वादक को वीणा जैसे उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। इतने पर भी उनकी अन्तःचेतना का प्रखर प्रवीण होना आवश्यक है अन्यथा वे उपकरण हाथ में रहते हुए भी किसी सफलता का श्रेय प्रदान न कर सकेंगे। पूजा परक उपचारों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। उनकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। हथौड़ी के बिना लुहार, बाजे के बिना वादक अपने कौशल का परिचय कैसे देगा? उस्तरा न हो तो नाई किस प्रकार किसी की हजामत बनाये?
बीज की महत्ता सर्वविदित है। उसके बिना न खेती होती है और न बगीचा लगता है। इतने पर भी मात्र बीज को ही सब कुछ मान बैठने वाले न फसल काट सकते हैं और न फल सम्पदा के सहारे धनवान बन सकते हैं। बीज बोने की तरह ही खाद पानी का प्रबन्ध करना भी आवश्यक हैं। बीज को उपासना उपचार कह सकते हैं, किन्तु उसे लहलहाते पौधे का रूप देने के लिए भाव श्रद्धा का खाद पानी अनिवार्यतः चाहिए। अन्यथा बीज बोने में जो परिश्रम एवं धन खर्चा गया, वह भी बेकार चला जायेगा। यहाँ उस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया जा रहा है जिस पर साधना की सफलता–असफलता का केन्द्र–बिन्दु निर्धारित है।
‘साधना को सिद्धि के रूप में परिणित होते देखने के इच्छुक प्रत्येक विचारशील को जहाँ निर्धारित पूजा−उपचार नियमित रूप से करने चाहिए वहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इष्ट के−लक्ष्य के−प्रति श्रद्धा का क्रमिक विकास हो रहा है या नहीं? प्राण विहीन शरीर को लाश कहते हैं और आस्था रहित पूजा उपक्रम को विडम्बना। दोनों को बाह्य स्वरूप तो सही दीखता है, पर आन्तरिक खोखलेपन के कारण उनके सहारे किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। मृतक के निर्जीव कायकलेवर से किसी को क्या कुछ मिल सकेगा? इसी प्रकार भाव−श्रद्धा से रहित पूजा को परिश्रम से इतना ही लाभ हो सकता है कि वह समय किसी दुष्ट कर्म में न लगाकर सत्प्रयोजन के अभ्यास में व्यतीत हुआ। इतने पर भी उससे किसी चमत्कारी प्रतिफल की आशा अपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रत्येक तथ्यान्वेषी साधक को जितना परिश्रम, उपासना उपचार पर करना होता है, उससे कहीं अधिक प्रयास अपनी भाव चेतना में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए करना होता है। यह मरुस्थल को सुरम्य उद्यान में बदलने जैसा परम पुरुषार्थ है।
कई भ्रान्तिग्रस्त व्यक्ति मात्र पूजा−उपचार के कर्मकाण्डों को ही ऋद्धि−सिद्धि का भाण्डागार मान बैठते हैं और बाजीगरों द्वारा तुर्त−फुर्त करतब कौतूहल दिखाये जाने की तरह अपने तन्त्र−मन्त्र से आकाश, पाताल जैसी कल्पना करने लगते हैं। वे पूरी नहीं होती तो नास्तिक जैसा आक्रोश प्रकट करने और उपासना विज्ञान पर चित्र−विचित्र लाँछन लगाते देखे जाते हैं। सभी जानते हैं कि जादूगरी मात्र छलावा है। मिट्टी से रुपया बनाना, हथेली पर सरसों जमाना विज्ञान के सामान्य नियमों से सर्वथा विपरीत है। मिट्टी से रुपया बन तो सकता है, पर उसके लिए किसान, कुम्हार या ईंट पकाने वाले जैसी सुनियोजित प्रक्रिया का आश्रय लेना होता है। पूजा−उपचार के जादूगरी जैसे परिणाम देखने के लिए आतुर व्यक्ति बालकों जैसी आशा−निराशा के झूले में झूलते रहते है। अध्यात्म वस्तुतः अन्तःचेतना के परिष्कार का एक सुनियोजित विज्ञान है। जो आत्मसत्ता से जिस स्तर की उत्कृष्टता का समावेश कर पाता है वह उतना ही पवित्र और प्रखर होता जाता है। सभी जानते हैं कि व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति जिस भी क्षेत्र में हाथ डालते हैं, उसी में सफलता पाते हैं। जबकि मंत्र−तंत्र के बाजीगर व्यक्तित्व के सुधार परिष्कार की ओर नजर तक नहीं डालते और मात्र जादुई क्रिया−कृत्यों के सहारे उन सफलताओं को तत्काल उपलब्ध करने की बात सोचते हैं जो अभीष्ट योग्यता एवं तत्परता के मूल्य पर ही खरीदी जा सकती है। बिना समुचित मूल्य चुकाये इस संसार में किसी को कोई चिरस्थायी सफलता नहीं मिल सकती। उचक्के उठाईगीरे ही जहाँ−तहाँ सेंध मारते, जेब काटते और तुर्त−फुर्त अमीरी झटक लेने का सपना देखते और हथकंडे अपनाते हैं। ऐसी सफलताएँ अन्ततः उन्हें महंगी ही पड़ती हैं। सस्ते पूजा−पाठ भर से प्रखर पुरुषार्थ के बदले कमाई जाने वाली विभूतियों को प्राप्त करने के लिए ताना−बाना बुनने वालों को भी इसी श्रेणी में गिना जा सकता है।
इन दिनों हर क्षेत्र में भ्रान्तियों को बाहुल्य है, अध्यात्म का क्षेत्र तो उनसे बुरी तरह भर गया है। आत्म परिष्कार के–व्यक्तित्व निर्माण के उच्चस्तरीय विज्ञान की आज जो दुर्गति हो रही हैं, उसे देखकर भारी दुःख होता है। उपचार कृत्यों के गुण दोषों पर विचार पीछे किया जाना चाहिए। पहले यह देखा जाना चाहिए कि अध्यात्म के नाम पर जो मान्यताएँ प्रचलित हैं, वे कहाँ तक सत्य और तथ्य पर निर्धारित हैं। आज उस आत्म परिष्कार की पुनीत प्रक्रिया को पदच्युत करके बाजीगरी का– उठाईगिरी का सिद्धान्त मान्यता प्राप्त कर चुका है। हर व्यक्ति चित्र−विचित्र कर्मकाण्डों से जादू भरे चमत्कार और टोकरा भरे आकाश कुसुमों के उपहार पाना चाहता है। यदि उनकी मान्यता सही होती है तो फिर इस विश्व व्यवस्था में कर्मफल का–योग्यता एवं तत्परता के लिए कोई स्थान शेष न रह जायेगा। तब महत्ती सफलताएँ जादूगरों की पिटारी से ही बिखरती, बरसती पाई जायेंगी।
होना यह चाहिए कि अध्यात्म तत्व ज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी पूजा उपचार और आत्म−परिष्कार के उभय पक्षीय प्रयोजनों को साथ−साथ लेकर चले। संचित कुसंस्कारों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपने अनपढ़ स्वभाव अभ्यास को सुधारे–दबाये। यह तपश्चर्या का व्रतशीलता का पक्ष है। इसके अतिरिक्त दूसरा बहिरंग पक्ष है जिसमें पूजा उपचारों के सहारे अन्तःचेतना को व्यायाम उपचार की तरह साधने−संजोने एवं उछालने का अभ्यास जारी रखा जाता है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि इस अध्यात्म साधना का समूचा प्रकरण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग पक्षों को उत्कृष्टता सम्पन्न बनाने के लिए है। इस दिशा में जो जितना आगे बढ़ेगा उसे उसी अनुपात में वजनदार व्यक्तित्व से सुसम्पन्न होने का गौरव मिलेगा। यही है वह आन्तरिक वैभव जिसके सहारे आत्मबल के धनी अपने को महामानव स्तर का बनाते हैं और अपने संपर्क क्षेत्रों को चन्दन वृक्ष की तरह गौरवास्पद सुरक्षित बनाते हैं।
अध्यात्म निश्चय ही जादू भरा है। संसार के महामानवों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का इतिहास एवं अनुदान ऐसा गौरवशाली है जिस पर हजारों लाखों जादूगरों को निछावर किया जा सकता है। वैसी ही महत्वाकांक्षा हर सच्चे अध्यात्मवेत्ता को संजोनी चाहिए। जादू भरे कौतूहलों को देखने की बचकानी ललक को कूड़े के ढेर में बुहार कर फेंक देना चाहिए साथ ही वह आत्म−तेजस् उभरना चाहिए जिसके सहारे अभ्यस्त कुसंस्कारों में, स्वभाव एवं आदतों में कायाकल्प जैसे परिवर्तन कर सकना शक्य हो सके।
आत्मीयता का विस्तार ही भक्ति योग है। इसके अभ्यास में सर्वत्र अपनापन दीखता है। उदार सेवा सहायता करने को मन करता है। आस्थाएँ उत्कृष्टता के साथ जुड़ी रहने को–अन्तरंग में जो उल्लास उमँगता रहता है उसी को अमृत, आत्मदर्शन, ब्रह्म साक्षात्कार आदि का नाम तत्वदर्शियों ने दिया है। जीवनमुक्तों की–देवदूतों की ऐसी ही अन्तःस्थिति होती है।
ज्ञानयोग उच्चस्तरीय दूरदर्शिता का नाम है। आम आदमी तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भविष्य की आवश्यकताओं–संभावनाओं पर तनिक भी विचार नहीं करते। यही कारण है कि उनकी बुद्धि विलास, संचय एवं अपव्यय के ताने−बाने बुनती रहती है। जिन्दगी इस व्यामोह में कट जाती है और जब परिणामों के परिपक्व होने का अवसर सामने आता है तो भाव पश्चाताप ही शेष रहता है। ज्ञान योग अन्धी भेड़ों जैसे लोक प्रवाह को अमान्य ठहराकर अपनी स्वतन्त्र विवेक बुद्धि का उपयोग करता है और इसी नर पशुओं की तरह नष्ट−भ्रष्ट होने वाले जीवन को नये निर्धारणों के आधार पर देवोपम गतिविधियों के साथ जोड़ देने का पराक्रम प्रकट करता है।
कर्मयोगी अपनी क्रिया शक्ति को पेट प्रजनन में–तृष्णा अहंता की पूर्ति से ऊपर उठाकर उसे आदर्शवादी क्रिया−कलापों में नियोजित करता है। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त ही कर्मयोग का पर्यायवाचक है, जो उच्चस्तरीय जीवन जियेगा उसे संयम बरतना पड़ेगा। आवश्यकता और इच्छाएँ घटाकर देशवासियों के औसत स्तर तक नीची लानी पड़ेगी। इतना बन पड़ने पर ही कोई अपने श्रम, समय, मनोयोग एवं वैभव को बचत करके उच्च विचारों को साकार करने वाले परमार्थ में नियोजित कर सकता है। कर्मयोगी की आंतरिक स्थिति यही होती है। उसके दृष्टिकोण, रुझान एवं प्रयास में अनिवार्यतः आदर्शवादिता घुसती तथा चढ़ती चली जाती है।
कर्मयोगी–महामानव बनते हैं। ज्ञानयोगी ऋषि कहलाते हैं और भक्ति योगी जीवन मुक्त अवतारी देवदूतों में गिने जाते हैं। मनुष्य के तीन शरीर हैं। डडडड शरीर को कर्मयोग से–सूक्ष्म शरीर को ज्ञानयोग से एवं कारण शरीर को भक्तियोग से परिष्कृत करते हुए परम लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। यही आत्मिक प्रगति का आदर्शमार्ग है। इसी पर चलते हुए सामान्यों को असामान्य बनने का–और युग प्रवाह उलटने से लेकर समूचे वातावरण में उत्कृष्टता भरे देने का सुअवसर मिलता है उनकी गतिविधियों की परिणति को देखते हुए हर विवेकवान् की आँखें उन्हें चमत्कारी सिद्ध पुरुष कहतीं और शतशत नमन करती देखी जाती हैं। बचकाने जादू जैसे दृश्य देखने कौतूहल दिखाने के लिए ललकते रहते हैं पर परिपक्व प्रज्ञा वाले उस ओर नजर उठाकर भी नहीं देखते। उन्हें अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में–दृष्टिकोण, रुझान एवं कर्तृत्व की उत्कृष्टता में ऐसे चमत्कारों की भरमार दीखती है जिसके लिए सामान्य नर पामर प्रायः तरसते−तरसते ही मरते हैं।
हर पूजा उपचार का एक तत्व दर्शन है, उस क्रिया के माध्यम से कुछ सोचना, सीखना पड़ता है, और तद्नुरूप ढलने के लिए इष्टदेव के प्रति आत्म−समर्पण का अभ्यास करना होता है। वस्तुतः विभिन्न साधना उपचारों के पीछे छिपा हुआ प्रेरणा प्रवाह ही दिव्य शक्ति की प्रचण्डता से ओत−प्रोत प्राण−पुँज है। यदि उसे न समझा जाए और न हृदयंगम किया जाए तो फिर इतना ही समझना चाहिए कि मात्र क्रिया−कृत्यों तक सीमित श्रम उपचार से कोई वैसा बड़ा प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा। जैसी कि आमतौर से अपेक्षा की जाती है। किन्तु यदि कर्मकाण्डों में सन्निहित भाव निष्ठा को सच्चे अर्थों में हृदयंगम किया गया, तद्नुरूप जीवनचर्या को ढाला गया तो निश्चित रूप से अन्तःचेतना में देवत्व की उमँगें उभरेंगी और व्यक्तित्व उच्चस्तरीय बनाने के साथ−साथ अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ सिद्ध पुरुष भी बना देगी।
देव शक्तियों के स्वरूप, स्तर एवं क्रिया−कलाप के सम्बन्ध में इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही उत्तम है कि वे चमचागिरी, जीभ की लपालपी, छोटे−मोटे पुष्प–दीप जैसे उपहारों से प्रभावित होकर किसी को अपना भक्त मान बैठने और उसकी उचित अनुचित कामनाओं की तत्काल पूर्ति में लग जाने वाले नहीं हैं। इस आधार पर उन्हें फुसलाने बहलाने की तिकड़म बाजी को ही यदि कोई पूजा साधना समझना हो तो इस भ्रम−जंजाल में फँसने के उपरान्त निराश होने, गाली देने की अपेक्षा यही अच्छा है कि बिना किसी भजन−पूजन के ही काम चलाया जाए। पुरुषार्थ के आधार पर सफलता पाने में नीतिमत्ता भी है और वास्तविकता भी। छुटपुट जादुई उपचारों के उलटे उस्तरे से देवताओं की हजामत बनाने के धन्धे में हाथ डालने की अपेक्षा उसे न करना ही अधिक समझदारी की बात है।
देवताओं को पूजा बटोरने और वरदान बाँटते रहने वाला–अन्धेर नगरी का बेवझ राजा नहीं मान बैठना चाहिए और न उनसे पात्रता का अभाव रहने पर भी मनमाने अनुग्रह पाने की आशा ही करनी चाहिए। दैवी शक्तियाँ देती तो बहुत कुछ हैं पर देने से पूर्व हजार बार यह ठोंकती बजाती हैं कि माँगने वाला आखिर किस स्तर का व्यक्ति है? अनुदानों का सदुपयोग करने की उसकी प्रामाणिकता क्या है? जो माँगा जा रहा है वह किस प्रयोजन के लिए है? इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर मिलने पर ही देवता किसी को अपना अनुग्रह अनुदान देते देखे गये हैं।
पेड़ों की आकर्षण शक्ति आकाश में उड़ने वाले बादलों को धरती पर उतरने और बरसने के लिए विवश करती हैं। साधक की चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा का समन्वय ही ऐसी आकर्षण शक्ति का उद्भव करता है जो दैवी अनुदानों को साधक पर बरसाने के लिए विवश कर सके। अस्तु मनुहार उपहार के लोभी–लालची में दैवी शक्तियों को बहेलियों और मल्लाहों की तरह फसाने का विचार छोड़कर अपना प्रयास यह करना चाहिए कि अपनी पात्रता किस प्रकार इस स्तर तक विकसित की जाए कि दैवी शक्तियों को बादलों की तरह बरसने के लिए विवश होना पड़े। बर्तन जितने बड़े होते हैं उतना ही पानी उनमें भरा जा सकता है। विपुल जलाशय भी बर्तन की परिधि से अधिक पानी दे सकने में असमर्थ रहते हैं। दैवी शक्तियाँ भी ऐसे ही अनुबन्धों में बँधी हुई हैं।
वरदान माँगने की अपेक्षा अपनी स्थिति ऐसी बनानी चाहिए कि दूसरों को वरदान दे सकना अपने लिए भी सम्भव हो सके। वस्तुतः आशीर्वाद देना उदारमना सन्तों का ही काम है। पिछड़ों को उठाने, अशक्तों की सहायता करने और विकासोन्मुखों को छात्रवृत्ति देने जैसे उदार प्रयोजन सन्तों को ही पूरे करने पड़ते हैं। भगवान् तो एक व्यवस्था मात्र है। जो आग या बिजली की तरह मात्र सदुपयोग की शर्त पर ही अनुग्रह करता है। दुरुपयोग की कुमार्गगामिता का दण्ड देने में ईश्वर भी नहीं चूकता। इस संदर्भ में उसे भक्त −अभक्त में कोई अन्तर करते नहीं पाया जाता। नौकरी पाने के लिए अर्जी देनी पड़ती है और मंजूरी भी उसी पर मिलती है। पर यह ध्यान देने की बात है कि इस बीच आवेदनकर्त्ता को परीक्षा एवं प्रतियोगिता से होकर भी गुजरना पड़ता है, ईश्वर प्रार्थना से प्रभावित होकर तुरन्त अनुकम्पा नहीं करने लगता वरन् यह भी देखता है कि प्रार्थना करने वाला अभीष्ट पात्रता एवं प्रामाणिकता अर्जित किये हुए है या नहीं?
उपासना का वास्तविक प्रयोजन अपने मन मन्दिर को बुहार कर इस योग्य बनाना है कि उस स्वच्छता से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मी शक्ति उस क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए सहमत हो सके। शरीर को नित्य स्नान कराते हैं, कपड़े नित्य धोते हैं, दाँतों को मंजन नित्य करना होता है, कमरे में झाडू नित्य लगाते हैं, इस दैनिक स्वच्छता का प्रयोजन इतना ही हैं कि मलीनता के कारण उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध, रुग्णता एवं कुरुचि से बचा जा सके। इसमें कोई अतिरिक्त चमत्कार नहीं होता। स्वच्छता अपनाने से चित्त हल्का होता है। सभ्य लोगों की पंक्ति में सम्मान पूर्वक बैठने का द्वार खुलता है और मलीनताजन्य बीमारियों से सहज ही बचाव होता रहता है। इतने से सन्तुष्ट न होकर कोई स्नान, मंजन आदि से ऋद्धि−सिद्धियों के वरदान चमत्कार चाहे तो उसे बाल बुद्धि बचकाना ही कहा जायेगा। उपासना के फलितार्थों के सम्बन्ध में भी इसी दृष्टिकोण से सोचा जाना चाहिए।
ईश्वर आदर्शों का समुच्चय है। उपासना का अर्थ होता है–समीप बैठना। समीप बैठना वैसा–जैसा कि गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचकर अपना गीलापन समाप्त कर लेती है और आग की ऊष्मा को अपने में धारण करके सूखती चली जाती है। अधिक निकट पहुँचने पर स्वयं आग बन जाती है। उपासना का वास्तविक स्वरूप यही है। महानता की समस्त उत्कृष्टताओं के पुंज परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त करके साधक उसकी गुण गरिमा को क्रमशः अपने में अधिकाधिक मात्रा में भरता चला जाए। यही दैवी विभूतियाँ व्यक्तित्व को श्रेष्ठ, शालीन उदार और उदात्त बनाती है। कहना न होगा कि व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति एक प्रकार से सिद्ध पुरुष ही होता है। उसका मूल्य हर क्षेत्र में सामान्य नर पशुओं की तुलना में हजारों लाखों अधिक आँका जाता है। तद्नुरूप उस पर चारों ओर से सम्मान सहयोग भी बरसता है। जो इस स्तर का–लाभ पा सकेगा उसे स्वभावतः उच्चस्तरीय सफलताएँ भी मिलती चली जायेंगी। ऐसे लोग ही हर क्षेत्र में श्रेय पाते और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं। इसी सुखद प्रतिफल को यदि कोई चाहे तो उपासना का चमत्कार कह सकता है।
ईश्वर निष्पक्ष न्यायकारी है, उसके दरबार में किसी का मूल्य उसकी प्रामाणिकता एवं परमार्थ परायणता के आधार पर ही आँका जाता है। न उसे प्रशंसा की आवश्यकता है न पूजा सामग्री की। नाम लेने न लेने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे किसी उपहार की भी आवश्यकता नहीं। विश्व सम्पदा के अधिष्ठाता की ऐसी इच्छा आवश्यकता हो भी नहीं सकती। यह हमारी अपनी क्षुद्रता है जो इतनी बड़ी शक्ति को नगण्य से उपचारों से प्रभावित करके उससे उचित अनुचित मनोरथों की पूर्ति करा लेने की बात सोचते हैं। ऐसा पक्षपात तो कोई ईमानदार न्यायाधीश तक नहीं करता। फिर ईश्वर जैसी महान् शक्ति प्रशंसा पूजा जैसे उपहासास्पद उपहारों के बदले कर्मफल की समस्त नियम मर्यादाओं को नष्ट−भ्रष्ट कर देगी यह सोचना पहले सिरे की मूर्खता का परिचय देना है।
ईश्वर उपासना जिन्हें भी करनी हो वे इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए करें। उस आधार पर उपलब्ध होने वाली दिव्य प्रेरणाओं के सहारे अपने गुण, कर्म, स्वभाव की प्रसुप्त विशेषताओं को विकसित करें और उन्हीं समस्त सिद्धियों−विभूतियों को पाने के अधिकारी बनें जो भक्ति योग की साधना करने वालों में मिलने की बात शास्त्रकारों एवं आप्त जनों ने अपने प्रतिपादनों में समय−समय पर बताई है।