Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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अध्यात्म प्रयोगों की वैज्ञानिक साक्षी एवं ब्रह्मवर्चस् के प्रयास 2
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प्रामाणिकता हर क्षेत्र में अनिवार्य है। साधना विज्ञान पर भी वही सिद्धान्त लागू होता है जो भौतिकी के विभिन्न पक्षों में प्रयुक्त होता है। साधक की आत्मिक प्रगति का क्रम क्या रहा, क्या−क्या परिवर्तन उसके अन्तरंग व बहिरंग में हुए, इसकी प्रत्यक्ष जानकारी हर बुद्धिजीवी चाहता है। उसे मात्र आप्त वचनों—शास्त्र वाक्यों पर विश्वास नहीं। अन्वेषण बुद्धि वाले हर असामान्य तथा दिन भर की कमाई—पेट भरने तक सीमित रहने वाले साधारण व्यक्ति तक को फलश्रुति पर ही विश्वास होता है एवं उसकी धारणा किसी भी तथ्य के विषय में तब ही सशक्त बन पाती है।
व्यक्ति यदि उत्साहित आशान्वित, विश्वासी हो तो थोड़ी-सी सफलता भी बड़ी लगने लगती है और यदि निराशाग्रस्त−दीन−दुःखी प्रकृति का हो तो बड़ी सफलता भी अकिंचन-सी लगती है। सही जानकारी अनुमान के आधार पर नहीं लगाई जा सकती। उस कठिनाई का समाधान कल्पना बुद्धि नहीं, विज्ञान के सशक्त आधार उपकरण, प्रमाण, तथ्य एवं तर्क ही कर सकते हैं। इन्हीं आधारों पर साधक की मनः स्थिति, परिस्थिति बतायी जा सकती तथा साधना उपचारों की प्रतिक्रिया पर विवेचना भी की जा सकती है।
अध्यात्म अनुशासन आज की परिस्थिति में तर्क की पैरवी माँगते हैं। कुशल वकील अपनी दलीलों से फैसले को विरोधी पक्ष में जाने से बचा ले जाते हैं। प्रयोग की प्रत्यक्ष रिपोर्टों तथा प्रमाण— गणनादि के आधार पर चिकित्सक गण रोग का निदान व विकृति का समाधान बता देते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया यदि तर्क व प्रयोगों के आधार पर प्रतिपादित कर दी जाय तो कोई संशय नहीं कि बुद्धिवादी जनमानस अध्यात्म प्रयोगों की उपयोगिता मानने को तैयार न हो।
ब्रह्मवर्चस् के शोध विशेषज्ञों ने साधना विधानों की वैज्ञानिकता को प्रयोगशाला स्तर पर प्रमाणों द्वारा तथा साहित्य के विशद् विवेचन के माध्यम से तर्कों व प्रमाणों द्वारा सत्यापित करने का बीड़ा दो वर्ष पूर्व अपने हाथ में लिया। प्रज्ञा परिवार के सभी परिजनों को इस शोध संस्थान के विषय में सामान्य जानकारी है। उसका उद्देश्य जितना विशाल है उतने ही बड़े स्तर पर प्रयोग परीक्षण का एक प्रारूप बनाया गया है तथा उसका प्रारम्भिक स्तर पर श्रीगणेश कर दिया गया। अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जा सके, ऐसे उपकरण अभी और आना शेष है, फिर भी वर्तमान में जो भी कुछ है, कम नहीं। अभी तक की प्रगति की समीक्षा तथा साधना क्रमों के उतार−चढ़ाव का लेखा−जोखा जब करते हैं तो ज्ञात होता है कि एक ऐसा असम्भव कार्य सम्भव बनाया जा रहा है, जिसके विषय में हर व्यक्ति सामान्यतया शंका की दृष्टि ही रखता है।
प्रयोग−अनुसंधानों के निष्कर्ष तब तक प्रामाणिक नहीं माने जाते जब तक कि काफी अधिक संख्या में प्रयोग−परीक्षण नहीं कर लिये जाते, साँख्यिकी की दृष्टि से उनका विश्लेषण नहीं कर लिया जाता। इस कारण अति उत्साह में जल्दबाजों की तरह उनका उद्घाटन करना हास्यास्पद तो होगा ही, वैज्ञानिक दृष्टि से एक गलत—बचकाना कदम भी। प्रस्तुत विवेचन को उद्देश्य है,अभी तक इस क्षेत्र में अन्यान्य व्यक्तियों द्वारा किए गए अनुसन्धानों का विश्लेषण तथा अपने समग्र प्रयास पुरुषार्थ की एक जानकारी देना। इसे ‘शोध सिनाप्सिस’ भी कह सकते हैं। यह लिखना तो आत्मश्लाघा होगी कि हमारा प्रयास समग्र है, औरों का अपूर्ण। पर एक वैज्ञानिक ऋषि के नाते हम यह कह सकते हैं कि औरों के प्रयास की अवहेलना न कर हम उससे भी आगे बढ़कर सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान की जानकारी बुद्धिजीवियों को उन्हीं की भाषा में देना चाहते हैं जिसे पाकर वे ही नहीं सारी मानवता कृतकृत्य होगी। नास्तिकता का वर्तमान स्वरूप बदलकर आस्तिकता उभरेगी, विज्ञान सम्मत बनेगी। अभी तक जो प्रयोग−परीक्षण किये गये हैं वे भौतिकी की सीमा में परिबद्ध रहे हैं। श्रद्धा को भौतिकी में स्थान कहाँ? श्रद्धा−विश्वास को मापने वाला कोई एल. सी. डी. अभी तक वैज्ञानिक नहीं बना पाए। पर यह तो सम्भव है कि जिस व्यक्ति में अध्यात्म उपचारों व उनके परिणामों के प्रति श्रद्धा हो—उसके आंतरिक परिवर्तनों की पूर्व की तथा बाद की स्थिति की तुलना ऐसे व्यक्ति से की जा सके जिसे इन पर विश्वास न हो। ‘फेथ’ अपने आप में एक साइन्स है जिसे हर समझदार आदमी आज समझता है, उसके अस्तित्व को मानता है। विदेशों में तो ‘के थ हीलिंग‘ एक चिकित्सा विज्ञान के रूप में मान्यता ले चुका है। ‘मिस्ट्री ऑफ हीलिंग‘ नामक ग्रन्थ (रीडर्स डायजजेस्ट प्रकाशन) में ऐसे ढेरों उद्धरण हैं जिसमें पेस्टर (पादरी), साइकेट्रिट (मनःचिकित्सक) तथा फिजीशियन (शरीर चिकित्सक) की एक सम्मिलित टीम द्वारा कई असाध्य रोगियों को जिनमें कैंसर भी सम्मिलित है, रोगमुक्त किया गया है। यह तो पाश्चात्य जगत की बात हुई जहाँ अन्ध विश्वास को कोई मान्यता प्राप्त नहीं। कम्यूनिस्ट राष्ट्र तो नास्तिक ही माने जाते हैं। रशिया में चर्चों की स्थापना को निरुत्साहित ही किया जाता है फिर भी ‘फै थ’ तत्व को उन्होंने भी माना है तथा परामनोविज्ञान पर की जा रही शोधों में उसे महत्वपूर्ण स्थान भी दिया है। श्रद्धा के अस्तित्व को माने बिना साधना उपचारों की सफलता की बात ही नहीं बनती। इसी कारण जरूरी समझा गया कि हम ही इस कार्य को अपने हाथ में लें व श्रद्धा तत्व के अस्तित्व व चमत्कार युक्त परिणति को प्रामाणित करके दिखायें। चान्द्रायण साधना के एक मास के अनुष्ठान सत्रों में यह किया भी गया व परिणाम भी सुखद सम्भावनाओं से भरे मिले।
अभी तक देश−विदेश में जो प्रयोग किये गये हैं उनका उद्देश्य है—आसन, प्राणायाम के क्रियायोग वाले स्वरूप के परिणामों की जानकारी प्राप्त करना तथा ध्यान की शिथिलीकरण वाली स्थिति, जिसमें चयापचयिक प्रक्रिया शून्य के समीप पहुँच जाती है, की प्रतिक्रियाएँ जानना। ध्यान भी,—सोद्देश्य, साकार या डडडड अथवा किसी उच्चस्तरीय चिन्तन से जुड़ा न होकर मात्र विचारों को खुला छोड़ देने तक सीमित माना गया। इन शोध कर्त्ताओं ने पूरे अध्यात्म उपचारों को इन तीन प्रयोगों के बहिरंग सीमित कर ही उनके अति फलदायी परिणाम बताये हैं। तनाव निवारण से लेकर शरीर की स्थूल जीवनी शक्ति में वृद्धि तक लाभों को गिनाते हुए उन्होंने यह प्रामाणित करने का प्रयास किया कि आयुष्य वृद्धि तथा रोग प्रतिरोधी सामर्थ्य वृद्धि में अध्यात्म उपचार काफी सीमा तक सहायक सिद्ध होते हैं।
पाश्चात्य वैज्ञानिकों का ध्यान काफी समय से ‘इर्स्टन मिस्टीसिज्म’ (पूर्वार्त्त रहस्यवाद) की ओर आकर्षित होता रहा है। भारतीय ऋषियों की योग पद्धति तथा झेन बौद्धिज्म की ध्यान पद्धति उनके लिये रहस्य रोमाँच का विषय रहा है। उनकी उत्कण्ठा अपनी प्रारम्भिक स्थिति में मात्र यहीं तक सीमित रही कि क्या हृदय की धड़कन को रोक सकना सम्भव है? एक एयरटाइट बॉक्स में या एकदम ठण्डे स्थान पर बिना भोजन के योगीजन कैसे रह पाते हैं, यह कौतूहल प्रारम्भ से ही उनके मन में रहा है। फ्रेंच कार्डियोलॉजिस्ट थेरेसी ब्राँसे 1935 में भारत आयीं व उन्होंने योगियों पर अपने प्रयोगों से पाया कि वास्तव में अधिकाँश अपनी धड़कन पर नियन्त्रण कर सकने में समर्थ हैं। इनमें से एक ने काफी समय तक अपने हृदय की धड़कन को बन्द करके दिखाया। 1957 में 2 अमेरिकन फिजियोलॉजिस्ट एम. ए. वेन्गर (यू. सी. एल. ए.) तथा डॉ. बी. के. बागची (यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन मेडिकल स्कूल) ने नयी दिल्ली में मेडीकल इन्स्टीट्यूट के डॉ. बी. के. आनन्द के सहयोग से कुछ वालंटियर्स पर प्रयोग किये व पाया कि ध्यान की गहरी स्थिति में प्रवेश करने पर बन्द तो नहीं पर हृदय की गति 60 प्रति मिनट से कम तथा श्वास गति को 12 प्रति मिनट से कम कर सकना सम्भव है।
1957 से 1972 तक का समय ध्यान व प्राणायाम पर शोध कार्य का ही रहा और विभिन्न प्रयोगकर्ताओं ने भिन्न−भिन्न परिणाम अपने प्रयोगों के विज्ञान जगत के समख रखे। जापान के वाय. सूगी. तथा के. अकात्सू, ए. कासामात्सू तथा टी. हिराई, नयी दिल्ली के सी. एस. आनन्द, बलदेव सिंह, जी. एस. चीना, अमेरिकी रॉबर्ट, कीथ, वेलेस तथा एच. बेन्सन इत्यादि ने ध्यान प्रक्रि या पर तथा के. एन. उडुपा व आर. एस. सिंह, स्वामीराम, स्वामी सत्यानन्द तथा स्वामी कुवल्यानन्द (लौनावला−पुणे) आदि ने मूलतः आसन−प्राणायाम पर प्रयोग किए। इन सबके निष्कर्षों का सार इस प्रकार दिया जा सकता है—
(1)ध्यान से साधकों की आक्सीजन को अन्दर पचाने की क्षमता (ऑक्सीजन कन्जम्पशन) में बीस प्रतिशत से भी ज्यादा कभी हो जाती है अर्थात् वे कम ऑक्सीजन में भी अपना काम चला लेते हैं।
(2)मस्तिष्क की विद्युत सक्रियता ध्यान से अत्यधिक प्रभावित होती है—अल्फा, थीटा वेव्स का ई. ई. जी. द्वारा विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि उनकी नियमितता बढ़ती जाती है—विशेषकर सामने वाले (फन्टल) व केन्द्रीय हिस्से (सेण्ट्रल रिजन) में। यह स्थिति तभी होती है जब व्यक्ति पूर्ण विश्राम की स्थिति में हो, फिर भी चेतन मस्तिष्क पूर्ण जागृत हो। जिनका ध्यान अभ्यास अधिक गहरा था, उनमें साधारण 9 से 12 साइकल्स (आवृत्ति) प्रति सेकेंड से घटकर अल्फा तरंगें 7−8 पर आ गयीं जबकि अनुपस्थित थीटा तरंगें 6−7 आवृत्ति प्रति सेकेंड पर उभर आयीं।
(3) त्वचा की विद्युतीय प्रतिरोध सामर्थ्य (स्किन रेजिस्टेन्स) वैज्ञानिकों ने उन्हीं में कम पायी है जो अत्यधिक तनावग्रस्त होते हैं। जिनमें यह बढ़ती चली जाती है, उनकी तनाव स्थिति में शिथिलता आने लगती है। करीब−करीब सभी प्रयोगकर्ताओं ने यह पाया है ध्यान से यह रेजिस्टेन्स बढ़ जाता है।
(4) क्रियापरक प्रयोगों यथा आसन−प्राणायाम जिनसे ध्यान−धारणा को प्रमुखता नहीं दी गयी थी, वैज्ञानिकों ने पाया कि यद्यपि शरीर की सामान्य जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है, पर ऑक्सीजन कन्जम्पशन उनका अधिक होता है अर्थात् उन्हें अधिक प्राण वायु को प्रयुक्त करना होता है। इसके अतिरिक्त जो अन्य परिवर्तन पाये गये हैं, वे हैं—रक्त चाप में कमी, रक्त ओषजन में बढ़ोत्तरी; रक्त केलैक्टेट स्तर में औसतन दस मिलीग्राम प्रति सी. सी. प्रति घण्टे की दर से कमी (यह तनाव शैथिल्य का बोधक है), रक्त −प्रवाह में तीन सौ प्रतिशत तक कमी (बाह्य माँसपेशियों में) तथा शरीर के सिम्पेथेटिक आँटोनॉमिक संस्थान से सम्बन्धित स्नायु रसायनों में अत्यधिक कमी। यह वर्णन कुछ जटिल अवश्य हो गया है, पर इतना बताये बिना वह पूरी विस्तृत चर्चा सम्भव नहीं जो इस अति महत्वपूर्ण विषय के लिये अपरिहार्य है।
मनोवैज्ञानिक, शरीर के जैव−रासायनिक तथा स्नायु प्रवाह सम्बन्धी सभी पैरामीटर्स का विश्लेषण कर सीमित अध्यात्म उपचारों में विज्ञान क्षेत्र के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ध्यान एक जागृत, पूर्ण विश्राम की स्थिति है जिसमें चयापचयिक प्रक्रिया न्यूनतम हो जाती है। महर्षि महेशयोगी के भावातीत ध्यान, बौद्ध झेन पद्धति के ध्यान तथा विपासन एवं शिथिलीकरण प्रक्रिया के विश्लेषण से सभी एक मत हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि से अध्यात्म उपचारों द्वारा आज की मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का हल निकाल पाना सम्भव है। आदमी को तनाव से मुक्ति दिलायी जा सकती है। आसन आदि के प्रयोग से शरीर शोधन व स्वास्थ्य संवर्धन भी सम्भव है। पर क्या यही वह उद्देश्य है जिसके लिए इन अध्यात्म अनुशासनों की महत्ता शास्त्रों ने प्रतिपादित की है? क्या वास्तव में मन से ही अधिकाँश रोगों की उत्पत्ति होती है या उससे भी गहरे में कोई और परत है जो सारी विकृतियों के लिये उत्तरदायी है। रोग निवारण की बात छोड़कर यदि व्यक्ति को और भी अधिक समर्थ बनाना—अदृश्य जगत के शक्ति केन्द्र से उसे जोड़कर अति मानवी क्षमता सम्पन्न बनाना चाहें तो यह किस प्रकार सम्भव है? इन सब प्रश्नों का उत्तर हमें इन शोध निष्कर्षों से नहीं मिलता इसके लिये और भी सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने वाली प्रक्रिया व उपकरण चाहिए।
जब वैज्ञानिकों ने जीवकोष की जानकारी मानव समुदाय को दी तो उसे विलक्षण कहा गया। मात्र बीस वर्षों में इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से लेकर स्पेक्ट्रोफोटोमेट्री एक्सरे−लेसर आदि के प्रयोगों ने यह बता दिया है कि उस समय का हर्षातिरेक कितना बचकाना था। अन्त जीवकोष के अन्तराल में छिपे एक−एक घटक के विस्तृत विवरणों पर बड़े−बड़े ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं, जीन्स की फोटोग्राफी ही नहीं—उनका संश्लेषण तथा कृत्रिम कलम लगाने तक का अभियान आरम्भ किया जा चुका है। ऐसे में अध्यात्म उपचारों की प्रतिक्रिया को मात्र ई. ई. जी. तथा रक्त में घुले कुछ रसायनों में परिवर्तन भर तक सीमित मान लेना अपना मार्ग बन्द कर लेने के समान है। शोध का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। शरीर के विद्युतीय ढाँचे का मापन−विश्लेषण अब इलेक्ट्रोमीटर, मैग्नेटोमीटर तथा अन्य मल्टी चैनेल फिजियोग्राफिक उपकरणों द्वारा है। रसायनों के सूक्ष्म मापन के लिये भी ऐसे यन्त्र बनाये जा चुके हैं जो नैनोग्राम (एक मिलीग्राम का दस लाखवाँ हिस्सा)तक विभिन्न शरीर द्रव्यों में उनका स्तर मापने में सक्षम हैं। यह तो रही उपकरणों की चर्चा। अध्यात्म उपचारों में भी जो प्रयोग अब तक किये गये हैं वे अपने आप में समग्र नहीं कहे जा सकते। जीवन साधना से आरम्भ होने वाला अध्यात्म ध्यान धारण—समाधि की स्थिति तक अपना कलेवर फैलाये हैं। ऐसे में हठयोग की कुछ क्रियाओं व ध्यान योग के छुटपुट प्रयोगों तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता।
अध्यात्म वस्तुतः चेतना का विज्ञान है। अन्तःकरण का अपना अस्तित्व है। आस्थाओं, आकाँक्षाओं की इस जन्मस्थली का परिचय पाये बिना प्रखरता सम्पादन आत्मबल अभिवर्धन सम्भव नहीं। प्रखरता सम्पादन आत्मबल अभिवर्धन सम्भव नहीं। अन्तःकरण की उपेक्षा करके किसी भी उपचार को अध्यात्म उपचार का नाम नहीं दे सकते। इसीलिये पहले उस दृष्टि का परिष्कार करना होगा, जिसे अपनाकर शोध कार्य में प्रवृत्त हुआ जाता है। ब्रह्मवर्चस् ने प्रारम्भ में मन्त्र विज्ञान, ध्यान विज्ञान, यज्ञ विज्ञान की तीन अध्यात्म विधाओं को प्रयोग परीक्षण पर कसने का निश्चय किया। इनमें योग एवं तप दोनों का सम्मिश्रण है। कर्मकाण्ड, आस्था, अग्निहोत्र मन्त्र प्रयोग, संयम, तितिक्षा, साकार−निराकार ध्यान इन सभी के विभिन्न सम्मिश्रणों का मानव के अंतरंग व बहिरंग पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे मूल लक्ष्य बनाकर शोध कार्य को आगे बढ़ाया गया है। जैसा कि साधना विशेषाँकों में पहले ही प्रतिपादित किया जा चुका है—किसी उच्चस्तरीय उद्देश्य से जब तक तल्लीनता−तन्मयता न जुड़ पाये, इसे ध्यान नहीं कहा जा सकता। ऐसे निरुद्देश्य ध्यान का न तो किसी सदुद्देश्य हेतु सुनियोजन सम्भव है और न अन्तरंग में परिवर्तन ही कर सकना शक्य है। बहिरंग में जो परिवर्तन होता है उसे ही सब कुछ नहीं माना जा सकता।
वस्तुतः व्यक्ति के हिस्से में थोड़ी-सी सामर्थ्य ही आई है। किन्तु वह जिस विराट् शक्ति भण्डार से—परब्रह्म से जुड़ा है, उसकी सामर्थ्य का कोई अन्त नहीं। कम ताकत का बल्ब कम प्रकाश देता है, पर यदि उसी स्थान पर बड़ी ताकत का बड़ा बल्ब लगा दिया जाय तो उसी विद्युत फिटिंग से अनेकों गुना प्रकाश उत्पन्न हो सकता है। परब्रह्म सत्ता के साथ आमतौर से आत्मा का सीमित एवं सामान्य सम्बन्ध ही रहता है। पर यदि व्यक्ति को अधिक परिष्कृत प्रखरता सम्पन्न बनाया जा सके तो वह अदृश्य जगत की महान देव शक्तियों से भरपूर लाभ उठा सकता है। अन्तरिक्ष में—प्रकृति जगत में भरी पदार्थ सम्पदा का भी अध्यात्म प्रयोगों के माध्यम से दोहन कर धरती को वैभव सम्पन्न बनाया जा सकता है−इन्हें ही सिद्धियों का नाम देकर महत्ता बतायी जाती रही है। पर सही अर्थों में कैसे इन्हें हस्तगत किया जाय, कैसे वह क्षमता अर्जित की जाय—यह जानकारी शास्त्रों तक ही सीमित न रख वैज्ञानिक बना दी जाय तो कई प्रकार के भ्रम जंजालों से बचा जा सकता है।
शोध के आयाम कई हैं, सीमित नहीं। आवश्यकता थी साधना उपचारों के विज्ञान सम्मत प्रस्तुतीकरण की। विज्ञान और अध्यात्म के इस समन्वय सहयोग की परिणति कितनी सुखद होगी, इसकी मात्र कल्पना ही अभी की जा सकती है। प्रयोगकाल की मध्यावधि में इससे अधिक क्या कहा जाय कि जो कुछ भी किया जा रहा है वे आगे के लिये जिसकी योजना बनायी गयी है—वह निश्चय ही अद्वितीय है। यह सब कैसे किया जा रहा है—उपलब्ध उपकरणों का आश्रय लेकर मंजिल पर कदम कैसे बढ़ रहे हैं? इसका विवेचन विस्तार से अगले अंकों में करेंगे। पाठक गण अपनी उत्सुकता को तब तक के लिए विराम दें।
(क्रमशः)