Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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दिग्भ्रान्त शक्तियाँ ज्वालामुखियों की तरह विध्वंसक
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साढ़े तीन हाथ लम्बे और साठ सत्तर किलो भारी मनुष्य के भीतर ऐसी क्षमताएँ और संभावनाएं भरी पड़ी है कि उनका प्रत्यक्षीकरण उसे दृष्टि का अद्भुत विलक्षण चमत्कार ही सिद्ध करता है। मनुष्य की अन्त निहित क्षमताओं और शक्तियों की कोई सीमा नहीं है। यदि वे रचनात्मक दिशा में लग सके साधारण-सा कलेवर धारण किये दिखाई देने वाला मनुष्य विराट् विश्व वसुन्धरा का सुरभित सुमन बन सकता है और यदि वही क्षमताएँ विध्वंसकारी प्रयोजनों में लग जाएँ तो वह स्वयं अपने आपको तो नष्ट करता ही है, अन्य औरों के लिए भी अगणित विपदाएँ खड़ी कर देता है।
किसी का भी बाहरी कलेवर देखकर यह नहीं सोच लेना चाहिए कि यह हाड़ माँस का एक साधारण या पुतला है। दीखने हुए बहुत-सी वस्तुएँ सामान्य दिखाई देती है परन्तु उनकी अन्तर्निहित क्षमताएँ जब उजागर होकर आती है तब पता चलता है कि वास्तव में वह वस्तु कितनी क्षमता सम्पन्न है बहुत-सी वस्तुएँ क्या संसार की लगभग सभी वस्तुएँ सामान्य स्थिति में अत्यन्त साधारण प्रतीत होती हैं किन्तु जब उनके भीतर की शक्तियाँ जागृत होती हैं तो सृजन या विनाश के चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती हैं। मनुष्य के भीतर भी ऐसी ही शक्तियाँ निहित हैं। यदि उनका सृजनात्मक उपयोग किया जाय तो सुखद परिणाम सामने आते है और उनकी दिशा यदि विध्वंस की ओर उन्मुख हो किए गए शक्तियों के उपयोग का नाम ही पुण्य है जब शक्तियां विध्वंस की दिशा में अग्रसर होती है तो उनसे ऐसे विस्फोट उत्पन्न होते हैं कि वे शक्तिधारी सहित अन्य समीपवर्ती और क्षेत्रों को भी नष्ट कर विनाश का दृश्य उपस्थित कर देते हैं। इन विनाश के परिणाम प्रस्तुत करने वाले कर्तृत्वों को, शक्तियों के दुरुपयोग को पाप, कल्मष, अपराध, अनैतिकता, अवाँछनीयता कुछ भी कहा जा सकता है।
साधारण अस्तित्व में छिपी हुई शक्ति की विभरीषि का को ज्वालामुखी के उदाहरण से भली भांति समझा जा सकता है। पृथ्वी की सतह धूल कंकड़ मिट्टी से ही बनी दिखाई देती है। ठोकर लगकर उस पर गिरने से केवल चोट ही लग सकती है किन्तु पृथ्वी के भीतर की ऊष्मा या शक्ति जब ज्वालामुखी बनकर फूटती है तो विनाश का दृश्य नहीं बनता। ज्ञात विवरणों के अनुसार अब तक पृथ्वी पर 455 क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ अक्सर ज्वालामुखी फूटते रहते सबसे अधिक ज्वालामुखी प्रशाँत महासागर और उसके द्वीपों तथा तटवर्ती इलाकों में हैं। यहाँ इतने अधिक जाग्रत ज्वालामुखी हैं कि इस क्षेत्र को अग्निरेखा का क्षेत्र कहा जाता हैं।
पृथ्वी के गर्भ में अग्नि की अधिकता हो जाती है और उसके निकलने का कोई रास्ता नहीं रह जाता तब वह अग्नि की अधिकता हो जाती है और उसके निकलने का कोई रास्ता नहीं रह जाता तब वह अग्नि ज्वालामुखी क्षेत्रों से बाहर निकलती है मानवीय चेतना के सम्बन्ध में भी यह बात लागू होती है। इसके भीतर भी शक्ति का एक अस्त्र प्रवाह बहता रहता है जब उन शक्तियों का उपयोग नहीं हो पाता या गलत दिशा में चल पड़ता है तो अपराध अनीति कुकर्म और अवाँछनीयता के रूप में प्रकट होने लगती हैं जिससे निजी जीवन के साथ साथ सामाजिक जीवन में भी कई विकृतियाँ उत्पन्न होती है। जिनका परिणाम निश्चित ही अनिष्ट कर होता है।
ज्वालामुखी जब फूटते हैं तो उस क्षेत्र की सतह से आग, धुँआ राख और लावा भयानक आवाज के साथ बाहर निकलता है। यद्यपि बहुत कुछ यह जान लिया गया है कि ज्वालामुखी किन क्षेत्रों में अधिक आते है। यह जान लेने के बाद उस क्षेत्र में जन हानि का कोई विशेष तय नहीं रहती। समय रहते पूर्व वहाँ के लोगों को हटाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा जा सकता है। किन्तु इतना जान लेने के पर भी विनाश की विभीषिका को रोका नहीं जा सकता क्योंकि ज्वालामुखी फूटने पर उससे निकल पड़ने वाला लावा किस दिशा में बह निकलेगा यह कुछ पता नहीं चलता। इसलिए कई बार कड़े सुरक्षा प्रबन्ध किये जाने पर भी बहुत अधिक विनाश होता है
दो वर्ष पूर्व 18 मई 1980 को अमेरिका के दक्षिणी भाग में स्थित वेन्फुवर पर्वतीय क्षेत्र में सुबह ज्वालामुखी का भयंकर विस्फोट हुआ कुछ ही क्षणों में वह सारा क्षेत्र घटाटोप धुएं से घिर गया और उससे निकली राख आस पास के 400 किलोमीटर क्षेत्र में फैल गई। इस विस्फोट की सम्भावना एक महीने पहले से आँकी जा रही थी। काफी सुरक्षा प्रबन्ध भी किये गए किन्तु फिर भी उससे होने वाले विनाश का पूरी तरह टाला नहीं जा सका। अपराधी प्रवृत्ति को भले ही पहचान लिया जाय, उससे बचने के भी चाहे जितने प्रयास कर लिये जाँय परन्तु इस तरह की प्रवृत्ति पहले से ज्ञात सम्भावना वाले ज्वालामुखी की तरह कुछ न कुछ हानि तो पहुँचाती ही हैं।
ज्वालामुखी में विस्फोट के समय निकलने वाला लावा प्रायः 3 या 4 मील प्रति घण्टे की गति से 40 से 60 मील तक के क्षेत्र में फैलता है। ऐसे स्थिति में तो फिर भी सुरक्षा प्रयास किये जा सकते है किन्तु कई बार इनकी गति 300 मील प्रति घण्टा तक होती है। उस स्थिति में ज्वालामुखी के कारण होने वाले महाविनाश को रोका पाना असम्भव ही होता है। जन धन की किसी प्रकार रक्षा कर भी ली जाए तो ज्वालामुखियों में लावे के साथ जो गैसें निकलती है। वृक्ष वनस्पति और फसलें तो इनमें नष्ट होती ही हैं।
पृथ्वी के निर्माण से लेकर अब तक उसके कई क्षेत्रों में हजारों ज्वालामुखी फूट चुके हैं। पिछली कुछ शताब्दियों में ही अनेक ज्वालामुखियों ने महाविनाश का दृश्य उपस्थित किया। 5 अप्रैल 1815 को इण्डोनेशिया के बोलकाना क्षेत्र में 36 वर्ग मील क्षेत्र में भयंकर ज्वालामुखी फूटा। इस ज्वालामुखी के कारण 4100 फूट ऊंचाई वाली बौल्कानों पहाड़ी नष्ट हो गई और वहाँ 7 मील गहरा वृत्ताकार गड्ढा बन गया। पिछले सौ वर्षों में अब तक का सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट 27 अगस्त 1883 को जावा और सुमात्रा के बीच वाले भूभाग में हुआ था। इस ज्वालामुखी के कारण 163 गाँव पूरी तरह नष्ट हो गए। विस्फोट इतना प्रचण्ड था कि बड़े बड़े पत्थर 34 मील लम्बी ऊँचाई तक आकाश में छिप गए और करीब 3500 वर्ग मील के घेरे में धूल छा गई। इस विस्फोट को गूँज 154 लाख वर्गमील क्षेत्र में सुनी गई।
सबसे निष्क्रिय अर्थात् जहाँ पहले विस्फोट हुआ करता था, ज्वालामुखी, चिली तथा अर्जेण्टाइना की सीमा पर स्थूतिया के क्षेत्र में है। निष्क्रिय ज्वालामुखी का अर्थ यह नहीं है कि अब वहाँ कभी विस्फोट होगा नहीं। निष्क्रिय से तात्पर्य विस्फोट हुए वर्षों अवधि बीत जाने से ही कुसंस्कारी मन कब अपनी कुसंस्कारिता के वशीभूत होकर कुकृत्यों से संलग्न हो जाए, इसका कोई निश्चित ठिकाना नहीं रहता। उसी प्रकार निष्क्रिय ज्वालामुखी भी कभी भी जाग उठते हैं और विनाश मचाने लगते हैं।
सर्वाधिक सक्रिय ज्वालामुखी एण्टोकेला एवं माउण्ट हेलेना हैं, जो कभी भी धूल, गुबार, धुएं और आग लावे के साथ बहने लगता है। हजारों वर्ष पर्व कहाँ ज्वालामुखी धधक रहे थे? इसका कोई पता ठिकाना नहीं है, और वे कभी भी फिर से जाग सकते है जापान का बादाई ज्वालामुखी 1000 तक शान्त रहने के बाद फट पड़ा था। 7000 वर्ष तक शाँत रहने के बाद आइलैंड के ज्वालामुखी ने सन् 1973 में लावा उगलना शुरू किया था। कौन जाने जिस स्थान पर हम बैठे हैं, वहाँ कभी कोई ज्वालामुखी लावा उगलता रहा हो और वह कब फूट पड़े।
पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई अमित शक्ति का परिचय ज्वालामुखियों से मिलता है। मनुष्य के भीतर भी ऐसी ही प्रचण्ड शक्तियाँ छिपी पड़ी हैं। वह आखिर है तो भूमिपुत्र ही। महत्व उन शक्तियाँ का तभी है जब उन्हें सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाया जाए अन्यथा संचित शक्तियाँ दिग्भ्रान्त होकर ज्वालामुखियों की तरह ही विनाशकारी सिद्ध होती हैं।