Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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“न मनुष्यात् श्रेष्ठतरम् हि किंचित्”
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देवर्षि नारद की स्थिति कुछ दिनों से अत्यन्त विचित्र हो गयी थी। मन की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही थी। विराट् सृष्टि और उससे जुड़े जड़ चेतन-घटकों पर जितना विचार करते उतना ही मन का असन्तोष बढ़ता जा रहा था। यह प्रश्न बारम्बार मन मस्तिष्क को झकझोर रहा था कि इस बृहद् सृष्टि में सबसे बड़ा सबसे महान कौन है? प्रश्न अत्यन्त गम्भीर था। उत्तर के लिए वे कुछ समय के लिए एकान्त स्थान में कोलाहल से दूर तत्व साधना के लिए चल पड़े।
लोक लोकान्तरों में उनका आवागमन रुक गया। समय-समय पर अन्य लोकों के समाचार, जो उनके माध्यम से मिलते रहते थे, वे मिलने बन्द हो गये। यह सूचना भगवान विष्णु को मिली। अपने एक दूत को उन्होंने नारद को ढूँढ़ने तथा साथ लेकर आने के लिए भेजा। दूत ने अपनी अंतर्दृष्टि से देखा कि महर्षि नारद विष्णुलोक से सुदूर एक निर्जन एकान्त क्षेत्र में तप-साधना कर रहे हैं। वहाँ पहुँचकर विनय पूर्वक दूत ने महर्षि को भगवान विष्णु का सन्देश सुनाया कि आपको देवाधिदेव ने शीघ्र ही बुलाया है।
विष्णुलोक में पहुँचते ही उनकी हालत देखकर अंतर्यामी लक्ष्मीपति को यह समझते देर न लगी कि नारद किसी समस्या से अति चिन्तित हैं। पूछने पर महर्षि ने बताया- “देव! कुछ दिनों से मेरे मन में बारंबार यह प्रश्न उठ रहा है कि इस जगत में सबसे महान कौन है? मेरी चिन्ता का यही कारण है। आप सर्वज्ञ हैं। समाधान करके मेरी व्याकुलता दूर करें।”
भगवान विष्णु बोले - “नारद! प्रत्यक्ष रूप से तो यह पृथ्वी ही सबसे बड़ी दीखती है, पर वह भी समुद्र से घिरी हुई है। अतएव वह भी बड़ी नहीं है। रही बात समुद्र की, सो उसे अपनी तपः शक्ति से एक बार अगस्त्य मुनि पी गये। अतः वह भी बड़ा कैसे हो सकता है। इससे तो अगस्त्य मुनि ही सबसे बड़े हुए। पर देखा जाता है कि अनन्त आकाश में एक सीमित सूचिका सदृश भाग में वे मात्र एक जुगनू की तरह चमक रहे हैं। विराट् आकाश के समक्ष तो उनका कुछ भी विस्तार नहीं है। इससे वे भी बड़े नहीं हो सकते। उनसे तो असंख्यों गुना अधिक बड़ा आकाश है। पर एक बार तो वामनावतार ने समस्त आकाश को केवल एक ही पग में नाप लिया था। अतः आकाश की महानता भी संदिग्ध सिद्ध होती है। उसकी तुलना में तो वामनावतार की सामर्थ्य अधिक जान पड़ती है। परन्तु उनका अंगुष्ठ मात्र स्वरूप हर मनुष्य के अन्तःकरण में आत्मा के रूप में विद्यमान हैं। जिसमें स्वयं ईश्वरीय सत्ता बीज रूप में मौजूद है, उससे बढ़कर महान् और कौन हो सकता है? उस बीच को विकसित करके आत्मा परमात्मा की स्थिति में पहुँच सकती है। उन विशेषताओं से सुसम्पन्न बन सकती है जो परम सत्ता में है। अस्तु है नारद! मनुष्य इस सृष्टि में सबसे महान है।
देवर्षि नारद को यथार्थता का बोध हुआ, व्यग्रता समाप्त हुई। जो ज्ञान उपलब्ध हुआ उसे भू-लोक वासियों को हृदयंगम कराने के लिए वे तुरन्त चल पड़े।