Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म सूर्य का आह्वान (kavita)
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सूरज का तेज नहीं घटता, तपकर उजियारा देता है।
बढ़ते अँधियारे की दम क्या, उगती रश्मियाँ निगल जाये।
यह सूरज की उदार क्षमता जो तुम के लिये पिघल जाये।
काजत बिखेरता अन्धकार, रवि रोज बुहारा देता है।
हम तुम हैं भागीदार मित्र, बढ़ते तुम की नादानी में।
देते सलामियाँ स्वागत में, नाचते खड़े अगवानी में।
रह रोज अमावस के घर में उत्तर ध्रुवतारा देता है।
जिसके होने से सूरज है, वह तम की छाया क्या जाने।
जिसका अभाव ही अन्धकार, वह भ्रम की माया क्या जाते?
आलोक पुँज का उदय सदा, दिन प्यारा-प्यारा देता है॥
जो सूर्य चन्द्र को रचता है, देता प्रकाश विश्वासों को।
जिससे भू-अम्बर ज्योतिवान ज्योति करता जो श्वासों को
रवि शशि को तम में डुबा डुबा जो जन्म दुबारा देता है॥
धरती को ज्योति नहीं मिलती नभ गंगा के उजियारा से।
अन्तर की राह नहीं दिखती उत्तर दिशि के ध्रुवतारे से।
भीतर बैठा जो ज्योति पुरुष वह हमें इशारा देता है।
सूरज बैठा जो ज्योति पुरुष वह हमें इशारा देता है।
*समाप्त*