Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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वातावरण में छाए संस्कारों की महत्ता
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व्यक्तियों की तरह क्षेत्रों की भी सुसंस्कारी-कुसंस्कारी होने की दो घटनाएँ ‘सूत’ जी ने ‘शौनक’ को सुनाई—
‘श्रवण कुमार’ अपने माता-पिता को कंधे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराने निकले। मध्य प्रदेश आने पर उनकी श्रद्धा डगमगाई। दोनों को उतारकर बोले— “आप लोग पैदल चलिए। हम लाठी के इशारे से रास्ता भर बताते चलेंगे।”
पिता अपने पुत्र की यशगाथा अजर-अमर बनाना चाहते थे। इसी से एक आदर्श उपस्थित करने की आज्ञा दी थी। पुत्र का उत्साह भी इसलिए उमगा था। आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि पुत्र में इतना बड़ा परिवर्तन अकस्मात कैसे हो गया। ध्यान से देखा, तो रहस्य समझ में आया कि यह भूमि बहुत समय तक ‘मय’ दानव के कब्जे में रही है। उसने अपने माता-पिता का वध करके राज्य प्राप्त किया था। भूमि का वह कुसंस्कार ही श्रवण कुमार में इतना आश्चर्यजनक परिवर्तन करने का निमित्त कारण बना।
कंधे की यात्रा पैदल पूरी की गई। जैसे ही वह क्षेत्र समाप्त हुआ, श्रवण कुमार की श्रद्धा लौटी और उसने क्षमा माँगते हुए माता-पिता की तीर्थयात्रा पुनः कंधों पर बिठाकर आरंभ कर दी।
सूत जी ने दूसरी कथा सुनाई— महाभारत के लिए कृष्ण ऐसी भूमि तलाश रहे थे, जहाँ भाई-भाई के बीच निष्ठुर व्यवहार चलता है। ऐसा क्षेत्र तलाशने के लिए उनने सब दिशाओं में दूत भेजे। अभीष्ट क्षेत्र एक मिला। दूतों ने सगे भाई को भाई द्वारा इसलिए वध किए जाते आँखों से देखा कि वे खेत को सींचने जाने में आनाकानी कर रहा था। समाचार कृष्ण तक पहुँचे, तो उन्होंने उस कुरुक्षेत्र को ही युद्धस्थल चुना, ताकि भाई-भाई बीच में ही संधि न कर बैठें। भूमि की कुसंस्कारिता दोनों पर अपना प्रभाव डालती रही।
विशिष्ट कार्यों की सफलता-असफलता का अविज्ञात, किंतु महत्त्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र पर छाए अदृश्य संस्कारों के साथ भी जुड़ा रहता है। तीर्थों की स्थापना में एक कारण यह भी रहा है। उनमें पुरातन महान कार्यों की भाव-प्रेरणा का बाहुल्य पाया जाता है।
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‘कृष्ण’ का परिवार संपन्न था। वे लोग बच्चे को पढ़ाने के लिए अध्यापक-नौकर भी रख सकते थे; पर वातावरण की महत्ता के दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए उन्हें ‘संदीपन’ ऋषि के आश्रम में दूरवर्ती ‘उज्जैन’ में पढ़ने भेजा गया। वहाँ से वे गोपाल से योगेश्वर बनकर लौटे।
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सीता-वनवास का एक दूरदर्शी कारण यह भी था कि गर्भावस्था से लेकर युवक बनने तक बच्चे ऋषि संरक्षण और उच्चस्तरीय वातावरण में रहे। स्वयं राम को महान उपलब्धियाँ इसी आधार पर मिली थीं। उनने सीता को इसके लिए सहमत किया और वाल्मीकि आश्रम में रहकर संतान को अपने ही समान व्यक्तित्व वाली बनाने का कष्टसाध्य निर्णय लिया।
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एक बालक को भेड़िए उठा ले गए। उसे खाया नहीं, पाल लिया। चार वर्ष का हो चला, तब शिकारियों ने उसे भेड़ियों की माँद से पकड़ा। वह भेड़ियों की तरह ही चलता, गुर्राता और खाता-पीता था। उसे ‘लखनऊ मेडिकल कालेज’ में दस वर्ष तक पाला गया। नाम ‘रामू’ रखा गया। आरंभिक जीवन का संपर्क-प्रभाव अंत समय तक बना ही रहा। सुधार बहुत थोड़ा-सा हो सका। कारण था— वह वातावरण, जिसमें वह पला।
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ऋषियों के आश्रमों में गाय, सिंह एक घाट में पानी पीते थे, जब तक वे उस वातावरण में रहते, डरने और डराने का स्वभाव ही भूल जाते। यह वातावरण का प्रभाव है।****
‘श्रवण कुमार’ अपने माता-पिता को कंधे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराने निकले। मध्य प्रदेश आने पर उनकी श्रद्धा डगमगाई। दोनों को उतारकर बोले— “आप लोग पैदल चलिए। हम लाठी के इशारे से रास्ता भर बताते चलेंगे।”
पिता अपने पुत्र की यशगाथा अजर-अमर बनाना चाहते थे। इसी से एक आदर्श उपस्थित करने की आज्ञा दी थी। पुत्र का उत्साह भी इसलिए उमगा था। आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि पुत्र में इतना बड़ा परिवर्तन अकस्मात कैसे हो गया। ध्यान से देखा, तो रहस्य समझ में आया कि यह भूमि बहुत समय तक ‘मय’ दानव के कब्जे में रही है। उसने अपने माता-पिता का वध करके राज्य प्राप्त किया था। भूमि का वह कुसंस्कार ही श्रवण कुमार में इतना आश्चर्यजनक परिवर्तन करने का निमित्त कारण बना।
कंधे की यात्रा पैदल पूरी की गई। जैसे ही वह क्षेत्र समाप्त हुआ, श्रवण कुमार की श्रद्धा लौटी और उसने क्षमा माँगते हुए माता-पिता की तीर्थयात्रा पुनः कंधों पर बिठाकर आरंभ कर दी।
सूत जी ने दूसरी कथा सुनाई— महाभारत के लिए कृष्ण ऐसी भूमि तलाश रहे थे, जहाँ भाई-भाई के बीच निष्ठुर व्यवहार चलता है। ऐसा क्षेत्र तलाशने के लिए उनने सब दिशाओं में दूत भेजे। अभीष्ट क्षेत्र एक मिला। दूतों ने सगे भाई को भाई द्वारा इसलिए वध किए जाते आँखों से देखा कि वे खेत को सींचने जाने में आनाकानी कर रहा था। समाचार कृष्ण तक पहुँचे, तो उन्होंने उस कुरुक्षेत्र को ही युद्धस्थल चुना, ताकि भाई-भाई बीच में ही संधि न कर बैठें। भूमि की कुसंस्कारिता दोनों पर अपना प्रभाव डालती रही।
विशिष्ट कार्यों की सफलता-असफलता का अविज्ञात, किंतु महत्त्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र पर छाए अदृश्य संस्कारों के साथ भी जुड़ा रहता है। तीर्थों की स्थापना में एक कारण यह भी रहा है। उनमें पुरातन महान कार्यों की भाव-प्रेरणा का बाहुल्य पाया जाता है।
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‘कृष्ण’ का परिवार संपन्न था। वे लोग बच्चे को पढ़ाने के लिए अध्यापक-नौकर भी रख सकते थे; पर वातावरण की महत्ता के दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए उन्हें ‘संदीपन’ ऋषि के आश्रम में दूरवर्ती ‘उज्जैन’ में पढ़ने भेजा गया। वहाँ से वे गोपाल से योगेश्वर बनकर लौटे।
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सीता-वनवास का एक दूरदर्शी कारण यह भी था कि गर्भावस्था से लेकर युवक बनने तक बच्चे ऋषि संरक्षण और उच्चस्तरीय वातावरण में रहे। स्वयं राम को महान उपलब्धियाँ इसी आधार पर मिली थीं। उनने सीता को इसके लिए सहमत किया और वाल्मीकि आश्रम में रहकर संतान को अपने ही समान व्यक्तित्व वाली बनाने का कष्टसाध्य निर्णय लिया।
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एक बालक को भेड़िए उठा ले गए। उसे खाया नहीं, पाल लिया। चार वर्ष का हो चला, तब शिकारियों ने उसे भेड़ियों की माँद से पकड़ा। वह भेड़ियों की तरह ही चलता, गुर्राता और खाता-पीता था। उसे ‘लखनऊ मेडिकल कालेज’ में दस वर्ष तक पाला गया। नाम ‘रामू’ रखा गया। आरंभिक जीवन का संपर्क-प्रभाव अंत समय तक बना ही रहा। सुधार बहुत थोड़ा-सा हो सका। कारण था— वह वातावरण, जिसमें वह पला।
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ऋषियों के आश्रमों में गाय, सिंह एक घाट में पानी पीते थे, जब तक वे उस वातावरण में रहते, डरने और डराने का स्वभाव ही भूल जाते। यह वातावरण का प्रभाव है।****