Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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व्यक्तित्व को शालीनता से संजोएँ
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व्यक्तित्व से स्वभाव बनता है या स्वभाव से व्यक्तित्व? पर इतना निश्चित है कि दोनों के बीच एकात्मता अवश्य रहती है। स्वभाव ही वह आधार है, जिसे देख कर किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जा सकता है। व्यक्तित्व की दृष्टि से यदि कोई वस्तुतः श्रेष्ठ है तो उसका स्वभाव अच्छा होना चाहिये। सदाचार मात्र आध्यात्मिक आख्यानों तक ही सीमित नहीं है। उसका परिचय व्यवहार-शिष्टाचार से भी मिलना चाहिए।
जो अपने आवेगों और आवेशों को संयम में रखता है, वही सच्चे अर्थों में सभ्य है। मानवी गरिमा के साथ कितनी ही मानने योग्य मर्यादाएँ और बचने योग्य वर्जनाएँ जुड़ी हुई हैं। इनसे बचा नहीं जा सकता, इनकी अवज्ञा नहीं हो सकती। पशुओं की बात दूसरी है, वे नंग-धड़ंग भी घूम-फिर सकते हैं। माता पुत्री का भेद किए बिना संतानोत्पादन कर सकते हैं। खाद्य जहाँ से भी मिले, लपक सकते हैं, पर मनुष्य को ऐसी छूट नहीं है।
मनुष्यता के साथ और भी कितनी ही विशेषताएँ जुड़ती है। गंगा, गौमुख पर उतनी चौड़ी नहीं है, जितनी कि सोनपुर या पटना में। कारण यह है कि आगे चलने पर गंगा में अनेक धाराएँ मिलती गई है। अंतिम छोर तक पहुँचते-पहुँचते गंगासागर बन गई है। अनगढ़ मनुष्य नर-पशु जैसा भी हो सकता है। वह आवेगों के प्रवाह से भी कुछ भी करने लगता है, उसके लिए मद्य, माँस भी भक्ष्य है; किंतु विचारशीलों को तो यह भी देखना पड़ता है कि जो अपनाया जा रहा है, यह न्यायोचित भी है या नहीं?
मनुष्य को अनेक लोगों के साथ बरतना पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के कारण यह अनिवार्य भी है। सभी लोग एक जैसे नहीं होते। समुदाय में सज्जनों की तरह दुर्जनों का भी बाहुल्य है, उनके परस्पर विरोधी व्यवहार तद्नुरूप प्रतिक्रिया सीधी भी हो सकती है और उलटी भी। जहाँ सदाशयता के कारण प्रसन्नता की अनुभूति होती है, वहाँ अपमानजनक अशिष्टता के प्रति आक्रोश भी आ सकता है। कटुवचन से लेकर आक्रमण कर बैठने तक की प्रतिक्रिया हो सकती है। बात करने पर असंतुलन हावी होने जैसी स्थिति भी बन सकती है; किंतु विवेक का अंकुश, ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने देने की रोकथाम करता है। वह बताता है — मित्र के प्रति मैत्री और दुष्टता के प्रति संघर्ष। सुधार करने के लिए अपना मानसिक संतुलन बनाए रहना चाहिए; अन्यथा विपक्षी की तुलना में अपने को ही अधिक हानि उठानी पड़ सकती है।
हमें पराक्रमी होना चाहिए ताकि अभीष्ट सफलताएँ उपलब्ध कर सकना संभव बन पड़े। इतना ही नहीं, यह भी आवश्यक है कि अपनी प्रामाणिकता अक्षुण्ण रहे। यह चरित्रनिष्ठा के सहारे ही संभव इज्जत मात्र उसकी हो सकती है जिसका आचार असंदिग्ध है, उसी पर विश्वास किया जा सकता है और उसे ही सहयोग मिल सकता है। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि अपने आचरण को पवित्र एवं सामयिक बनाए रखा जाए। इसे खो देने के बाद हम दुष्ट एवं भ्रष्ट हो जाते हैं। भले ही चापलूसों द्वारा प्रशंसा के ढेर लगाए जाते रहें। यहाँ समझने की यह बात भी है कि चापलूस वाहवाही के अंबार भले ही लगाते रहें ,पर विश्वास करने और सहयोग देने का समय आने पर वे भी कन्नी काट जाते हैं। व्यभिचारी मित्र को कोई अपनी गृहस्थी में घनिष्ठता बढ़ाने की छूट नहीं दे सकता और न अपने बच्चों को किसी नशेबाज के साथ घनिष्ठता स्थापित करने दे सकता है। अनाचारियों से स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कोई चापलूसी की बातें कर सकते हैं, पर उनके हाथों अपनी धनराशि नहीं सौंप सकते, क्योंकि उसके लौटने की आशा बँधती ही नहीं, अच्छा हो कि हम अपनी प्रामाणिकता को अक्षुण्ण बनाए रहें, भले ही इस कारण गरीबी ही क्यों न अंगीकार करनी पड़े। प्रामाणिक व्यक्ति अंत तक बरगद के पेड़ की तरह फूलता-फलता फैलता है; जबकि अविश्वस्त पाखंडी की दुर्गति पानी का बबूला फूट जाने जैसी होती है।
हमें अतिवादी नहीं होना चाहिए। मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। बहुत ऊँची छलांग नहीं लगानी चाहिए। सूर्य को पकड़ना और चंद्रमा को छूने जैसी महत्वकांक्षाएँ नहीं सँजोए चाहिए। औसत नागरिक स्तर का जीवन शाँतिपूर्वक जिया जा सके इसी में संतोष करना चाहिए। सादा जीवन-उच्चविचार की नीति-निर्धारण को पर्याप्त मानना चाहिए। अतिवादी हारते, कुढ़ाते और खीजते देखे गए हैं। आवश्यक नहीं है कि सामान्य जनों से बहुत ऊँची परिस्थितियाँ और सफलताएँ हमें मिलकर ही रहे। सबको पीछे छोड़कर बड़प्पन को हमीं समेटें, ऐसा होता भी कभी-कभी एवं कदाचित ही है। जिन्हें तृष्णाएँ बहुत सताती हैं, वे आमतौर से अनीति का मार्ग अपनाते हैं। इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि हर महत्त्वाकांक्षी अपनी इच्छित ऐषणा को पूरा कर सके। बेतहाशा दौड़ने वाले प्रायः पैरों में ठोकर खाते और औंधे मुँह गिरते देखे गए हैं। इसलिए प्रसन्नचित्त रहने और रहने देने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि संतोषपूर्वक जिया जाए। अमीरी बटोरने और ठाट-वाट से जीने की अपेक्षा यह कहीं सरल और सुखद है कि अपने को आदर्शवादी बनाया जाए और भावना-क्षेत्र में उत्कृष्टता को सँजोया जाए; जिनने अपना दृष्टिकोण परिष्कृत कर लिया है, वे सज्जनों की तरह सोचते और परमार्थ-पथ पर चलते रहे।
हम अदूरदर्शी न बनें। तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को अंधकारमय बनाने वाले कदम न उठाएँ। आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुछ ही समय में इंद्र जैसा सम्मान और कुबेर जैसा वैभव समेटना चाहते हैं। इसके लिए ऐसे सपने सँजोते हैं, जिनका पूरा होना कब तक किस तरह संभव है। यह तो नहीं कहा जा सकता, पर इतना निश्चित है कि उनका संतोष और संतुलन छिन जाता। सह गमन एक आदर्श है। जिसे अपनाने वाले दूसरों को पीछे छोड़ने और अपने प्रतिद्वंद्वी, ईर्ष्यालु बनाने की भूल नहीं करते। जिस समाज में जितने महत्त्वाकांक्षी बढ़ते हैं, उसमें उतनी ही विषमता उत्पन्न होती है और उसे अपनाने के धारा अपनाने के लिए परस्पर होड़ लगती है। यह अदूरदर्शितापूर्ण मार्ग है, जिसमें लाभ कम और हानि की संभावना सुनिश्चित रूप से अधिक है।
छिद्रांवेषण सरल है। बिना आधार के आरोप लगाना चिढ़ाना, बदनाम करना और भी सरल। वह कार्य तो कोई नासमझ भी कर सकता है। उपेक्षा, अवज्ञा, अशिष्टता का थोड़ा-सा अंश स्वभाव में सम्मिलित कर लेने से सद्भाव रखने वाले भी खिन्न हो जाते हैं और शत्रुता बरतने लगते हैं। मित्र बनाना जीवन में एक अत्यंत ही लाभदायक कार्य है, जिसे मात्र मृदुवचन कहने एवं शिष्टता बरतने भर से उपलब्ध किया जा सकता है। दुःखदाई परिस्थितियों में, रोग, शोक, हानि, अपमान आदि की गणना होती है; किंतु इन सबसे अधिक कष्टकर है, वह शत्रुता जो किसी के साथ दुर्व्यवहार करते हुए मोल ली गई है। शत्रु को मित्र बना लेना एक उच्च कोटि की कला है। मित्र को मित्र बनाए रहना बुद्धिमता है; किंतु रास्ता चलते शत्रुता मोल लेते चलना ऐसा फूहड़पन है, जो अशिष्ट और दुर्बुद्धि वाले ही अपनाते हैं।
प्रयासों में अनेकों क्रियाकलापों बुद्धिमतापूर्वक गिनाए जा सकते हैं; किंतु सब से अधिक विवेकवान उन्हें कहा जाएगा, जो अपने चरित्र एवं स्वभाव को आकर्षण बना लेते हैं। संजीवनी विद्या की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है।