Magazine - Year 1987 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वनौषधियों में निहित असामान्य शक्ति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वनौषधि अपने भीतर असाधारण गुण समाहित किये रहती है। उनके रसायन उन्हीं तत्त्वों से बने हैं, जिनसे कि मनुष्य की काया। मनुष्य का शारीरिक व मानसिक ढाँचा कुछ इस प्रकार का बना है कि उसकी तुलना जड़ी-बूटियों के रसायनों एवं सूक्ष्म प्रभावों से भली प्रकार की जा सकती है। उनके द्वारा विकृति निवारण तथा बलवर्धन के दोनों ही प्रयोजन भली प्रकार पूरे किये जा सकते हैं। नव जीवन का संचार तक किया जा सकता है।
लक्ष्मण जी लंका युद्ध में मेघनाद का ब्रह्मास्त्र लगा था। वे मरणासन्न स्थिति में मूर्च्छित पड़े थे। इसका उपचार उस समय के पारंगत सुषैण वैद्य से पूछा गया तो उनने बताया कि हिमाच्छादित ऊँचे पर्वतों पर उगने वाली एक विशिष्ट बूटी ही इस संकट से उबार सकती है। हनुमान जी उस संजीवनी बूटी को लाये। सेवन कराने पर अभीष्ट परिणाम हुआ। अच्छे हो गये। इसे कहते हैं-बूटी का चमत्कार।
च्यवन ऋषि वयोवृद्ध थे। काया जीर्ण-शीर्ण हो गयी थी। राजकुमार सुकन्या की गलती से उनकी आँखें चली गयी। राजकुमारी ने वृद्ध ऋषि की अन्ध स्थिति में सहायता देने के लिये उनसे विवाह कर लिया। पति की दयनीय स्थिति पर उसे दुःख रहता था। उसने तपश्चर्या की एवं देव वैद्य अश्विनी कुमारों को प्रसन्न किया। उनके द्वारा प्रदत्त औषधि समुच्चय से ऋषि में नव-जीवन का संचार हुआ एवं वे युवा हो गए।
ये पौराणिक मिथक कितने सत्य हैं, नहीं मालूम। किन्तु ऐसे अनेकों प्रसंग न केवल इतिहास में अपितु दैनन्दिन जीवन में देखने को मिलते हैं, जिनमें शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य सुधारने के संबंध में जड़ी बूटियों के योगदान की महती भूमिका का वर्णन है। प्राचीन काल में कायाकल्प की विधा निष्णात् चिकित्सकों को विदित थी उसके प्रभाव से पुरानी जरा-जीर्ण काया सर्प की केंचुल की तरह उतर जाती थी और वैसी ही स्थिति बन जाती थी जैसी कि केंचुल उतार देने के उपरान्त सर्प में नई स्फूर्ति दृष्टिगोचर होती है।
अध्यात्म विज्ञान में यजन प्रक्रिया में वनौषधियों के प्रयोग का असाधारण महत्त्व बताया गया है। उसके द्वारा वातावरण शुद्धि से लेकर पर्जन्य वर्षण जैसे अद्भुत लाभ तो होते ही हैं, याज्ञिकों की शारीरिक-मानसिक स्थिति भी सुधरती है। महाराज दशरथ का उदाहरण सर्वविदित है। पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा ही उन्हें देवोपम चार संतानें प्राप्त हुई थीं। विश्वामित्र का यज्ञ वातावरण को बदलने-सतयुग की वापसी के लिए था। उसमें असुर विघ्न डालते थे। रक्षा के लिए राम-लक्ष्मण को जाना पड़ा था। यज्ञ सफल हुआ असुर समुदाय का समापन हुआ। राम-राज्य के रूप में धर्मराज्य की स्थापना हुई। इस असाधारण सफलता में उस यज्ञ की असाधारण सहायता थी। वातावरण के संशोधन के लिए भगवान राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे, जिसकी स्मृति अभी भी काशी का दशाश्वमेध घाट अपने में संजोए हुए है। इसी प्रयोजन के लिये महाभारत काल में भी राजसूय यज्ञ कराया गया था। दुर्भिक्ष जैसी विपत्तियों के निवारण के लिए अनेक बार यज्ञ-महायज्ञ होते रहे हैं।
भावनात्मक कायाकल्प में भी यज्ञ की महती भूमिका है। ब्राह्मणत्व की उपलब्धि का निमित्त कारण मनु ने यज्ञ को बताया है। मात्र जप, तप से ही नहीं, आचार-विचार से ही काम नहीं चलता। इसके लिए प्रयोगात्मक उपचार यज्ञ सान्निध्य में रहने का भी करना पड़ता है। शास्त्रकारों का अभिमत है कि यज्ञों और महायज्ञों के सान्निध्य में ही ब्राह्मणत्व पकता है। इसे भावनात्मक कायाकल्प ही कहना चाहिए।
यज्ञ-यजन प्रक्रिया का प्रत्यक्ष स्वरूप वनौषधियों की गुणवत्ता का अग्नि संस्कार द्वारा विस्तृतीकरण करना है। सुगंध का विस्तार यज्ञ धूम्रों के माध्यम से तुरन्त होता है। यह स्थूल का सूक्ष्मीकरण है। होम्योपैथी, बायोकेमिक का
सारा ढाँचा इसी सिद्धान्त पर टिका है। उसमें मूल द्रव्य को अपने ढंग से सूक्ष्म बनाकर पोटेन्सी बढ़ायी जाती है। वनौषधियों की शतपुटी व सहस्रपुटी भस्म में भी सूक्ष्मीकरण सिद्धान्त रहता है। कणों की सूक्ष्मता जितनी बढ़ती है, औषधि की गुणवत्ता उतनी बढ़ती है। यज्ञ में यह प्रक्रिया अग्नि संस्कार द्वारा सम्पन्न होती है। पानी की सतह पर थोड़ा-सा तेल डाल देने पर वह दूर-दूर तक फैल जाता है। उसी प्रकार अग्नि द्वारा वायुभूत की गई औषधियाँ भी सुविस्तृत वातावरण को प्रभावित करती है।
मस्तिष्क सबसे संवेदनशील और सक्रिय तंत्र है। उसे अन्य अंगों की अपेक्षा तीन गुनी ऊर्जा की खपत अभीष्ट होती है। इसकी पूर्ति यज्ञीय वाष्प द्वारा जितनी अच्छी तरह हो सकती है, उतनी अन्य किसी प्रकार नहीं। सामान्यतः मस्तिष्क के अनेकानेक केन्द्र व घटक प्रसुप्त ही पड़े होते हैं। इस बहुमूल्य खदान के भाण्डागार में से एक बहुत ही छोटा भाग है जो सामान्य जीवन के संचालन में प्रयुक्त होता है। यदि इन विभूतियों को जागृत करके अन्यान्य उपचार समूह की तुलना में अकेले वनौषधियों से सम्पन्न यज्ञ का पलड़ा ही भारी बैठता है। शारीरिक, मानसिक आधि-व्याधियों के निवारण में अनुकूल शास्त्रोक्त औषधियों का यजन चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करता है।
सभी जानते हैं कि आयुर्वेद मतानुसार रोगों की चिकित्सा का प्रमुख माध्यम वनौषधि स्तर की वनस्पतियाँ ही हैं। विषों का शोधन और रस-भस्मों का जारण-मारण तो मध्यकाल में आविष्कृत और प्रचलित हुआ। पुरातन पद्धति का अथर्ववेद में सुविस्तृत विवेचन हुआ। आयुर्वेद इसी का एक उपाँग है। इस प्रकरण में व्याधियों से निबटने और पौष्टिकता बढ़ाने के लिये वनौषधियों का ही वर्णन विवेचन किया जाता रहा है। इस संदर्भ में ऋषि कल्प महामानवों, वैज्ञानिकों ने चिरकाल तक गहरी खोजें की हैं। वनौषधियों की संरचना एवं प्रतिक्रिया की आयुर्वेद शास्त्रों द्वारा सर्वसाधारण को जानकारी है। इन प्रतिपादनों का जिनने समझा और अपनाया है, उनने अपने-अपने निकटवर्तियों के लिये कल्याणकारी लाभ उठाने का द्वार खोला हैं।
जिस प्रकार अन्न, जल, वायु के सहारे रस-रक्त बनता और जीवनक्रम चलता है, उसी प्रकार विकृतियों के निवारणार्थ और समर्थताओं के अभिवर्धन में वनौषधियों से लाभ लिया जा सकता है। दैनिक आहार की तरह आवश्यकतानुसार संतुलन बिठाए और बनाए रखने के लिये वनौषधियों को भी आहार का एक उच्चस्तरीय स्वरूप माना जा सकता है। उनके लाभ भी असंदिग्ध एवं चमत्कारी हैं। वे हमारी व्यथाओं को टालने और समर्थता को विकसित करने में अनेक प्रकार से सहायता करती हैं।
वनौषधियों की रासायनिक संरचना का तो अपना महत्व है ही, वे चेतना की संवाहक भी हैं। प्रयोक्ता की प्राणशक्ति को भी वे अपने में भर सकती हैं और उसे सेवनकर्त्ता के काय कलेवर तक पहुँचा सकती हैं। आशीर्वाद वरदान की तरह उन्हें अभिमंत्रित भी किया जा सकता है। यज्ञ धूम्र में वनौषधियों की रासायनिक संरचना के साथ मंत्र शक्ति का भी उपयोग होने से प्राण चेतना का समन्वय होता है। इसी कारण वे अधिक उत्कृष्ट व समर्थ बन जाती हैं।
भगवान के प्रसाद में तुलसी दल मिश्रित जल को अभिमंत्रित करके दिया जाता है। उसका लाभ भी सात्विकता की अभिवृद्धि के रूप में सेवनकर्त्ताओं को मिलता है। यह साधारण प्रक्रिया है। यदि इसे अधिक गंभीरता से समझा और प्रयोग किया जाय तो उसकी परिणति वरदान स्तर की बनाई जा सकती है।
मथुरा में एक पुरातन सिद्ध गायत्री टीला है। उसमें एक संत के निवास एवं तप करने हेतु प्रयुक्त होने वाली एक गुफा भी बनी हुई है। वे रात्रि में निकलते थे और दूर-दूर तक घूमकर अनेक प्रकार की वनौषधियाँ ले जाते थे। उन्हें अभिमंत्रित करते थे। दिन में थोड़ा समय सर्वसाधारण को दर्शन देने के लिए नियत रखा था। लोग अपनी कठिनाईयाँ बताते व निवारण हेतु उपाय पूछते रहते थे। वे मौन रह मात्र किसी औषधि के अभिमंत्रित पत्ते दुःखी व्यक्ति को दे देते थे। एक पत्ता नित्य सेवन करने का संकेत करते। इतने भर से आने वालों का मनोरथ पूरा हो जाता था। उसमें से अधिकाँश अपने संकटों से त्राण पा जाते। इस तपस्वी का नाम तो अज्ञात था, पर लोग उन्हें बूटी सिद्ध कहते थे। इसी नाम से उनकी चर्चा उस क्षेत्र में अभी भी होती रहती है।
यह वैयक्तिक विशेषता तक सीमित रहने वाला प्रसंग नहीं है, वरन् एक सम्मत सिद्धान्त भी है। वनौषधियों की रासायनिक विशेषता का पर्यवेक्षण प्रयोगशालाओं में किया जाता रहा है और उस आधार पर उनकी रोग निवारक शक्ति को, जीवनी शक्ति संवर्धन सामर्थ्य को जाना गया है, प्रयोग करके लाभ उठाया गया है। पर इस प्रसंग में अभी उतनी गहराई तक नहीं उतरा गया है कि प्राणवान आत्मशक्ति से सम्पन्न व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक विभूतियों को किस प्रकार वनौषधियों में कूट-कूट कर भर देता है।
अभी इस तथ्य पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है कि प्राचीन काल में वनौषधियों की रासायनिक संरचना चिकित्सा प्रयोजनों में क्यों भरपूर लाभ देती थी और अब वह विशेषता क्यों संदिग्ध होती जा रही है? लोग आयुर्वेदिक औषधियाँ लेने की अपेक्षा एलोपैथी का तीव्र एवं शीघ्र परिणाम दिखाने वाली दवाओं पर अधिक विश्वास रखते हैं। वैद्य से इलाज कराने की अपेक्षा डॉक्टर की शरण में जाना पसंद करते हैं। पूछने पर सेवनकर्त्ताओं में से प्रायः सभी एक ही उत्तर देते हैं कि उनमें तुरन्त लाभ देने वाला गुण नहीं हैं। काष्ठ औषधियों का लाभ भी देर से होता है और संदिग्ध भी रहता है। स्थिति का इस प्रकार बिगड़ते जाना उस ऋषि अनुसंधान को झुठलाता है, जिसने चिरकाल तक समूची मानव जाति को आधि-व्याधि से मुक्त रखने में असंदिग्ध सहायता की। अब वह क्यों कर पिछड़ गई? क्यों कर अपना चमत्कारी प्रभाव प्रदर्शित करने में असमर्थ हो गई? इस संदर्भ में शान्तिकुँज में ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने पिछले दस वर्षा में अनवरत प्रयोग परीक्षण किये हैं और सारगर्भित निष्कर्ष निकाले हैं।
दूसरा प्रयोग पर्यवेक्षण अभी और आगे तक चलाना है कि वनौषधियों में प्राणवान व्यक्ति किस सीमा तक दिव्य शक्ति की-प्राण शक्ति की अवधारणा कर सकते हैं। उस समन्वय से न केवल शरीरगत व्यथा निवारण की वरन् मानसिक संतुलन एवं आत्मिक वर्चस् के अभिवर्धन में भी सफलता प्राप्त कर सकते हैं। वनौषधि यजन एवं बूटी कल्क सेवन की महत्ता इसी तथ्य पर अवलम्बित है कि मात्र वनौषधियों को सूक्ष्मीकृत किया जाना ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् मंत्र शक्ति के आधार पर उन्हें सचेतन प्राणवान भी बनाया और संबद्ध लोगों को आशाजनक लाभ दिया जा सकता है।