Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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परमार्थ में स्वार्थ भी समाहित है
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भागीरथ का राज्य बहुत बड़ा था। उसमें सिंचाई के साधन न होने से प्रायः हर वर्ष दुर्भिक्ष पड़ जाता था। उनका मनोरथ उठा कि यदि दैव कृपा से कोई नदी इधर होकर बहने लगे तो अपनी कठिनाइयाँ दूर हो जायँ। धन-धान्य की कमी न रहे। उनने अनेक देवताओं के जप अनुष्ठान किये, अनेक सन्तों से वैसा वरदान देने को गिड़गिड़ाये, पर कहीं से भी उन्हें सहयोग न मिला। सभी ने उपेक्षा दिखाई।
एक दिन नारद जी से उनकी भेंट हुई। भागीरथ ने अपनी असफलता का कारण पूछा? देवर्षि ने उत्तर दिया अपने निजी लोभ लालच के लिए माँगने पर न देवता पसीजते हैं और न सन्त अपने तप की पूँजी खर्च करते हैं। आप अपने लिए धन-धान्य चाहते हैं। इस संकीर्ण स्वार्थपरता के रहते हुए आप किसी बड़े वरदान की आशा न करें। संसार व्यवहार भी तो आदान-प्रदान के आधार पर चलता है। दैवी सहायता तभी मिलती है जब कोई सत्पात्र उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए माँगे। आप दृष्टिकोण बदलें तो किसी देवी अनुकम्पा की बात सोचें।
भागीरथ ने उस तथ्य पर गंभीरतापूर्वक विचार किया। अपनी भावना और चरित्र निष्ठा में पवित्रता भरने के लिए उनने तप करने का निश्चय किया और जलधारा को अवतरित करने के लिए उनने विश्व-कल्याण को लक्ष्य बनाया। इस परिवर्तन के साथ वे हिमालय तप करने के लिए चले गये।
जैसे-जैसे उनका उद्देश्य और जीवन पवित्र होता गया। वैसे-वैसे आत्मबल की ज्योति सभी और फैलने लगी। उस प्रकाश की आभा स्वर्ग तक पहुँची। किसी पवित्रात्मा द्वारा लोकमंगल के लिए दैवी सहायता की आवश्यकता पड़ रही है। गंगा ने सोचा, तब तो मुझे उसकी सहायता करनी ही होगी। उनने निश्चय कर लिया कि भागीरथ की इच्छा पूरी करेगी। उनने अपना निर्णय भागीरथ तक पहुँचा दिया।
गंगा पृथ्वी पर पहुँचने की तैयारी करने लगी। भागीरथ की खुशी का ठिकाना था, पर तुरन्त ही एक नया प्रश्न सामने आ उपस्थित हुआ। स्वर्ग से गिरकर पृथ्वी पर जब गंगा की धारा तीव्र गति से गिरेगी तो उसका दबाव पृथ्वी सहन न कर सकेगी। धरती में छेद हो जायगा और वे पाताल जा पहुँचेगी। यह कठिनाई बहुत बड़ी थी। उसे हल कैसे किया जाय।
शिवजी ने कहा ऐसे पुनीत प्रयोजन के लिए तो मुझे भी योगदान करना चाहिए। उन्होंने गंगा के पास संदेश भेजा कि वे मेरी जटाओं में गिरें वहाँ से साधारण धारा के रूप में जहाँ भागीरथ कहें वहाँ चलें।
ऐसा ही हुआ। गंगा अवतरण से समस्त विश्व का कल्याण है। भारत भूमि धन्य बनी। जीवितों और मृतकों ने श्रेय साधन में सफलता पाई। इसके साथ-साथ भागीरथ के अधोगति में पड़े हुए पूर्वजों का भी कल्याण हुआ। जहाँ असंख्य जीव जन्तुओं का हित साधन हुआ, जहाँ विशाल भूखण्ड में हरितिमा लहलहाई वहाँ भागीरथ का प्रदेश भी उस लाभ से वंचित न रहा। उनने अपने कल्याण के साथ विश्व का भी कल्याण किया, ऐसा होता है परमार्थ। स्वार्थी तो तात्कालिक लाभ की ललक में अपना भविष्य अन्धकारमय ही बनाते रहते हैं।